Book Title: Jinabhashita 2007 02
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 14
________________ १. सर्वार्थसिद्धि ३/३७पृ. २३२ । २. तत्त्वार्थवार्तिक भाग १। पृ. २०४-०५ ३. भगवती आराधना ७८१ विजयोदया टीका पृ. ९३६ । ४. कथं भरतादीनां पंचदशानां कर्मभूमित्वमिति चेत्प्रकृष्टस्य शुभाशुभ कर्मणोऽधिष्ठानत्वादिति ब्रूमः । सप्तमनरकप्रापणस्याशुभस्य कर्मणः सर्वार्थसिद्धयादिप्रापणस्य शुभस्य च कर्मणो भरतादिष्वेवोपार्जनम् । कृष्यादि कर्मणः पात्रदानादियुक्तस्य तत्रैवारम्भात् । तन्निमित्तस्यात्मविशेष परिणामविशेषस्यैतत्क्षेत्रविशेषाप्रेक्षत्वात्कर्मधिष्ठिता भूभयः कर्मभूभय इति संज्ञायन्ते ॥ तत्वार्थवृत्ति भास्करनन्दि कृत सुखबोधा टीका पृ. १८१ । ५. विजयार्द्ध पर्वत ५० योजन विस्तार वाला २५ योजन उत्सेंध वाला है। एक कोष छह योजन जड़ वाला भाग है। पूर्व पश्चिम की तरफ से यह लवण समुद्र का स्पर्श करता है। चक्रवर्ती के विजयक्षेत्र की अर्धसीमा इस पर्वत से निर्धारित होती है। अतः इसका नाम विजयार्द्ध है। इसके नीचे तमिसा और खण्डप्रताप नामक दो गुफायें हैं। दोनों के दरवाजों से चक्रवर्ती विजय के लिए जाता है। इन्हीं गुफाओं के द्वारों से गंगा सिन्धु मिलती हैं। ६. तत्त्वार्थवार्तिक ३/१०/११ ७. तत्त्वार्थवार्तिक ३/१०/११ ८. महापुराण १६ / १४६ ९. महापुराण १६ / १५१ १०. तिलोयपण्णत्ती ४/५१०-११ त्रिलोकसार ८०३ ११. तिलोयपण्णत्ती ४/१४७३ १२. महापुराण १६ / २५८ - २९४ १३. हरिवंशपुराण १३/३३ 12 फरवरी 2007 जिनभाषित १४. पद्मपुराण ५/४ १५. हरिवंशपुराण १३/१६ Jain Education International १६. महापुराण १६ / १७८ - १७९ १७. लाटी संहिता १७८-२०८ १८. अंतिम तिगसंघडणं णियमेण च कम्मभूमिमहिलाणं आदिम् तिगसंघडणं णत्थित्ति जिणेहिं णिद्धिं ॥ १९. मधुमांससुराहारमानुषः कर्मभूमिजाः । उद्धृत प्रवचनसार २२४-८ तिर्यंचो व्याघ्रसिंहाद्या बन्धका नारकायुषः ॥ प्र. सर्ग ॥ अभय-दान चातुर्मास स्थापना का समय समीप आ गया था। सभी की भावना थी कि इस बार आचार्य महाराज नैनागिरि में ही वर्षाकाल व्यतीत करें। वैसे नैनागिरि के आसपास डाकुओं का भय बना रहता था, पर लोगों को विश्वास था कि आचार्य महाराज के रहने से सब काम निर्भयता से सानन्द सम्पन्न होंगे। सभी की भावना साकार हुई । चातुर्मास की स्थापना हो गई। २ हरिवंशपुराण २०. तिलोयपण्णत्ती २९३६ २१. तिलोयपण्णत्ती २९३७ २२. भगवती आराधना ७८१ २३. गोम्मटसार जीवकाण्ड ७०३ २४. त्रिलोकसार ६८०-६८१ २५ . तत्त्वार्थवार्तिक ३/३१ (पृ. ५३३ प्र. भा. आ. सुपार्श्वमती कृत टीका) २६ . तिलोयपण्णत्ती ४/२-९५४ २७. तिलोयपण्णत्ती ५/२९२ २८. सर्वार्थसिद्धि ६/१६ पृ. ३३४ २९. गोम्मटसार कर्मकाण्ड ५५० एक दिन हमेशा की तरह जब आचार्य महाराज आहार चर्या से लौटकर पर्वत की ओर जा रहे थे तब रास्ते में समीप के जंगल से निकलकर चार डाकू उनके पीछे-पीछे पर्वत की ओर बढ़ने लगे। सभी के मुख वस्त्रों से ढँके हुए थे, हाथ में बंदूकें थीं। लोगों को थोड़ा भय लगा, पर आचार्य महाराज सहज भाव से आगे बढ़ते गए। मन्दिर में पहुँचकर दर्शन के उपरान्त सभी लोग बैठ गए। आचार्य महाराज के मुख पर बिखरी मुस्कान और सब ओर फैली निर्भयता व | आत्मीयता देखकर वह डाकुओं का दल चकित हुआ। सभी ने बंदूकें उतारकर एक ओर रख दीं और आचार्य महाराज की शान्त मुद्रा के समक्ष नतमस्तक हो गए। आचार्य महाराज ने आशीष देते हुए कहा कि 'निर्भय होओ और सभी लोगों को निर्भय करो। हम यहाँ चार माह रहेंगे, चाहो तो सच्चाई के मार्ग पर चल सकते हो।' वे सब सुनते रहे, फिर झुककर विनतभाव से प्रणाम करके धीरे-धीरे लौट गए। फिर लोगों को नैनागिरि आने में जरा भी भय नहीं लगा । वहाँ किसी के साथ कोई दुर्घटना भी नहीं हुई। आचार्य महाराज की छाया में सभी को अभय-दान मिला। For Private & Personal Use Only नैनागिरि (१९७८) मुनि श्री क्षमासागरकृत 'आत्मान्वेषी' से साभार www.jainelibrary.org

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