Book Title: Jinabhashita 2007 02
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 11
________________ भरत-ऐरावत-विदेहक्षेत्रस्थ कर्मभूमियाँ : एक अनुशीलन डॉ. श्रेयांस कुमार जैन शाश्वत लोक के जिस भाग में जीवों का निवास है, । होती हैं। विदेह की संख्या 160 किस प्रकार से है उसी को वह भूमि है। यह भूमि भोगभूमि और कर्मभूमि के रूप में | भट्टाकलंकदेव ने समझाया है कि विदेहक्षेत्र निषध और नील शास्त्रकारों द्वारा वर्णित की गयी है। जहाँ भोगो की प्रधानता | पर्वतों के अन्तराल में है। इसके बहुमध्यभाग में एक सुमेरू रहती है वह भोगभूमि नाम से जानी जाती है और जहाँ कर्म | व चार गजदन्त पर्वत हैं। इनसे रोका गया भूखण्ड उत्तरकुरु की प्रधानता होती है वह कर्मभूमि कही जाती है। आचार्य | व देवकुरु कहलाते हैं। इनके पूर्व व पश्चिम में स्थित क्षेत्रों पूज्यपाद कर्मभूमि के विषय में लिखते हैं- "जिसमें शुभ | को पूर्वविदेह और पश्चिमविदेह कहते हैं। यह दोनों ही और अशुभ कर्मों का आश्रय हो, उसे कर्मभूमि कहते हैं। विदेह चार-चार वक्षारगिरियों, तीन-तीन विभंगा नदियों और यद्यपि तीनों लोक में कर्म का आश्रय है फिर भी जिससे | सीता सीतोदा नाम की महानदियों द्वारा सोलह-सोलह देशों उत्कृष्टता का ज्ञान होता है कि इसमें प्रकृष्टरूप से कर्म का | में विभाजित कर दिये गये हैं। इन्हें ही बत्तीस विदेह कहा आश्रय है। सातवें नरक को प्राप्त करने वाले अशुभ कर्मों | जाता है, ये एक-एक मेरू सम्बन्धी बत्तीस-बत्तीस विदेह का भरतादि क्षेत्रों में ही अर्जन किया जाता है। इसी प्रकार | हैं। पाँच मेरूओं के मिलकर कुल 160 विदेह हैं। इन सर्वार्थसिद्धि आदि विशेषस्थान को प्राप्त करने का पुण्य कर्म | भूमियों की कर्मभूमि संज्ञा का निर्णायक हेतु "भरतैरावतका उपार्जन भी यहीं होता है तथा पात्र दानादि के साथ कृषि | विदेहाः कर्मभूमयोऽन्यत्रदेवकुरुत्तरकुरुभ्यः" यह तत्त्वार्थसूत्र आदि छह प्रकार के कर्म का आरम्भ यहीं पर होता है। | के तृतीय अध्याय का सैतीसवां सूत्र हैं। इससे स्पष्ट है कि इसलिए भरतादि को कर्मभूमि का क्षेत्र जानना चाहिए।" | भरत, ऐरावत और विदेह ये । सूत्र में यही तथ्य भट्टाकलंकदेव ने प्रस्तुत किया है। आचार्य | अन्यत्र पद रखकर आचार्य श्री उमास्वामी ने इस शंका का अपराजितसूरि कर्मभूमि के विषय में लिखते हैं जहाँ असि- | निवारण कर दिया जो केवल विदेह शब्द रखने से उत्पन्न हो शस्त्र धारणकरना, मषि-बहीखाता आदि लेखन कार्य करना, | सकती थी। यदि अन्यत्र पद न रखते तो देवकुरु उत्तरकुरु कृषि-खेती करना, पशु पालना, शिल्पकर्म करना अर्थात् | भी कर्मभूमियों में परिगणित होतीं। अतः इनका निषेध करने हस्त कौशल के काम करना, वाणिज्य-व्यापार करना, | के लिए अन्यत्र देवकुरुत्तर कुरुभ्यः ऐसा सूत्र में वाक्य कहा व्यवहारिता न्यायदान का कार्य करना ऐसे छह कार्यों से जहाँ उपजीविका चलायी जाती है। जहाँ संयम पालनकर मनुष्य भरत, ऐरावत और विदेह तीनों क्षेत्रों में कर्मभूमियों तप करने में तत्पर होते हैं, जहाँ मुनष्यों को पुण्य की विशेष को बताया गया है अतः इन क्षेत्रों के नाम और विशेषताओं प्राप्ति होती है, जिससे स्वर्ग मिलता है। जहाँ कर्म को नष्ट | पर भी विचार पहिले करके कर्मभूमि के वैशिष्ट्य को भी करने की योग्यता मिलती है, जिससे मुक्तिलाभ होता है। दर्शाया जायेगा। ऐसे स्थान को कर्मभूमि कहा जाता है। भास्करनन्दि ने कर्म | भरतक्षेत्र संज्ञा भरत क्षत्रिय के योग से पड़ी है। से अधिष्ठित भूमियों की कर्मभूमि संज्ञा मानी है। । भट्टाकलंकदेव लिखते हैं ६ विजयार्ध पर्वत से दक्षिण भरत, ऐरावत और विदेह में कर्मभूमि होती है क्योंकि लवणसमुद्र से उत्तर और गंगा सिन्धु नदी के मध्यभाग में इन्हीं क्षेत्रों से मुक्ति होती है। जैनाचार्य इसको सहेतु स्पष्ट बारह योजन लम्बी और नव योजन चौड़ी विनीता नामक करते हैं- मानुषोत्तर पर्वत के इस भाग में अढ़ाई द्वीप प्रमाण | नगरी है उसमें सर्वलक्षणों से सम्पन्न भरत नाम का मनुष्यक्षेत्र है। इन अढाई द्वीपों में पाँच सुमेरू हैं। एक-एक | षटखण्डाधिपति चक्रवर्ती हुआ है। इस अवसर्पि सुमेरू के भरत, ऐरावत आदि सात-सात क्षेत्र हैं जिनमें भरत | विभाग काल में उसने ही सर्वप्रथम इस क्षेत्र का उपयोग ऐरावत और विदेह ये तीन कर्मभूमियाँ हैं। इसप्रकार पांच किया था। इसलिए उसके अनुशासन के कारण इस क्षेत्र का मेरू सम्बन्धी पन्द्रह कर्मभूमियाँ हैं। यदि पाँचों विदेहों के | नाम भरतक्षेत्र पड़ा है अथवा यह भरत संज्ञा अनादिकालीन बत्तीस-बत्तीस क्षेत्रों की भी गणना की जाय तो पाँच भरत, | है अथवा यह संसार अनादि होने से अहेतक है। इसलिए पाँच ऐरावत और 160 विदेह इस प्रकार कुल 170 कर्मभूमियाँ | 'भरत' यह नाम अनादि सम्बन्ध पारिणामिक है अर्थात् बिना -फरवरी 2007 जिनभाषित 9 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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