Book Title: Jinabhashita 2007 02 Author(s): Ratanchand Jain Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra View full book textPage 8
________________ ‘Such briefly, is the teaching of Jainism, and | मानने की बात ही नहीं है, मैं बहुत अच्छा मानूँगा और यदि it is obvious that the whole thing is a chain of links based on the law of Cause and Effect, in other words a perfeclty scientific school of philosophy, and the one most remarkable feature of the system is that it is not possible to remove, or alter, a single link from it without destroying the whole chain at once. It follows from this that jainism is not a religion which may be said to stand in need of periodic additions and improvements or to advance with times, for only that can be enriched by experience which is not perfect at its inception.' ( pp. 182-183). मेरी कमी है, तो मंजूर भी करूँगा । उसने पुनः कहा कि बुरा न मानें, तो मैं यह कहना चाहता हूँ कि आपको कम से कम एक लँगोटी तो रखनी चाहिए। समाज के बीच आप रहते हैं, उठते-बैठते आहार-विहार - निहार सब करते हैं और आप तो निर्विकार हैं, लेकिन हम लोग रागी है, इसलिए लँगोटी रख लें, तो बहुत अच्छा । अनुवाद संक्षेप में यही जैनधर्म की शिक्षा है । और यह स्पष्ट है कि सम्पूर्ण विषय कारण-कार्य-सिद्धान्त पर आधारित विभिन्न कड़ियों की एक श्रृंखला है। दूसरे शब्दों में यह पूर्णत: वैज्ञानिक दर्शन है। इस दर्शन का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण अंग यह है कि इसमें से एक भी कड़ी को न तो इससे हटाया जा सकता है, न बदला जा सकता है, क्योंकि ऐसा करते ही तत्काल सम्पूर्ण श्रृंखला नष्ट हो जायेगी । इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि जैनदर्शन ऐसा दर्शन नहीं है, जिसमें समय-समय पर कुछ परिवर्तन की आवश्यकता हो या समय-समय पर सुधार जरूरी हो। ऐसा उसी दर्शन में आवश्यक हो सकता है, जिसका प्रतिपादन करते समय उसमें पूर्णता का ध्यान न रखा गया हो। श्री चम्पतराय जी के पत्रों में जो तर्क दिये गये हैं, वे इतिहास हैं और समय-समय पर दिगम्बर मुनियों की नग्नता के सम्बन्ध में जो दुष्प्रचार किया जाता है, उसका आगमोक्त समाधान है। परमपूज्य आचार्य श्री विद्यासागर जी को भी एक दार्शनिक ने लँगोटी पहनने को सलाह दी थी। उसे आचार्यश्री ने जो उत्तर दिया था वह पठनीय है। आचार्यश्री के ही शब्दों में वह इस प्रकार है " अजमेर की बात है । एक विद्वान् जो दार्शनिक था, वह आया और कहा कि महाराज, आपकी चर्या सारी की सारी बहुत अच्छी लगी, श्लाघनीय है। आपकी साधना भी बहुत अच्छी है, लेकिन एक बात कि समाज के बीच आप रहते हैं और बुरा नहीं माने तो कह दूँ। हमने कहा भैया, बुरा क्या मानूँगा, जब आप कहने के लिये आये हैं तो बुरा 6 फरवरी 2007 जिनभाषित Jain Education International हमने कहा, भइया ऐसा है कि महावीर भगवान् का बाना हमने धारण कर रखा है और इसके माध्यम से महावीर भगवान् कम से कम ढाई हजार वर्ष पहले कैसे थे, यह भी ज्ञान होना चाहिए। तो वे कहने लगे कि महाराज ! आप तो निर्विकार हैं, अन्य सभी की दृष्टि से कहा है । मैंने कहा-अच्छा! आप दूसरों की रक्षा के लिये काम कर रहे हैं, तो ऐसा करें कि लँगोटी में तो ज्यादा कपड़ा लगेगा, और भगवान महावीर का यह सिद्धान्त है कि जितना कम परिग्रह हो, उतना अच्छा है। आप एक छोटी सी पट्टी रख लो और जिस समय कोई दिगम्बर साधु सामने आ जाये तो धीरे से आँख पर ढक लें। जो विकारी बनता है, उसे स्वयं अपनी आँख पर पट्टी लगा लेनी चाहिए।" ('समग्र' खण्ड ४/ पृ. १५७ - १५८ ) । 44 उपर्युक्त तथ्यों के प्रकाश में हमें आशा करनी चाहिए कि आधुनिक विद्वान् अपने विचारों पर पुनः चिंतन-मनन करेंगे। 'जिनभाषित' के सम्पादकीय एवं बैरिस्टर चम्पतराय जी के पत्रों से स्पष्ट हो जाता है कि जैन सिद्धान्त शाश्वत है। किसी भी सामाजिक वातावरण में उसमें किसी भी प्रकार के परिवर्तन या संशोधन की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि वह सर्वज्ञ की दिव्यध्वनि पर आधारित है एवं पूर्णरूप से वैज्ञानिक है। कोई भी संशोधन या परिवर्तन पूरे सिद्धान्त की वैज्ञानिकता को नष्ट कर देगा। सम्पादकों और विद्वानों से भी अनुरोध है कि अपने विचार प्रकट करने के पहले यह विचार अवश्य करें कि क्या उन्होंने पूरे तथ्यों की खोज - बीन कर ली है और क्या उनके विचार धर्मप्रभावना में सहायक होंगे? For Private & Personal Use Only भूतपूर्व चीफ इंजीनियर म.प्र. विद्युत मण्डल www.jainelibrary.orgPage Navigation
1 ... 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36