Book Title: Jinabhashita 2005 01
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 13
________________ रात्रिभोजन निषेध : वैज्ञानिक एवं आरोग्य मूलक विश्लेषण प्राचार्य निहालचंद जैन श्रावक की पहचान तीन बातों से है-देवदर्शन, स्वच्छ प्रतिमाओं के प्रसंग में छठी प्रतिमा रात्रि भुक्ति त्यागी वस्त्र से जल छानकर पीना और रात्रिभोजन त्याग। श्रावकों | की होती है। जिसमें श्रावक अन्न, अन्न पान, खाद्य, लेह द्वारा व्रतों के पालन करने का मूल उद्देश्य होता है, अहिंसा | इन चारों प्रकार के आहार को ग्रहण नहीं करता है। धर्म की रक्षा करना। अन्नं पानं, खाद्यं लेहं, नाश्नाति यो विभावर्याम्। सागार (श्रावक) हो अथवा अनगार (साधु) दोनों स च रात्रि भुक्ति विरतः सत्वेष्वनुकम्पमानमनाः॥ को ही व्रतों की रक्षा के लिए अनस्तमित अर्थात् दिवा (रत्नकरण्ड श्रावकाचार ) भोजन नामक व्रत का पालन करना आवश्यक है। स्वामिकार्तिकेयानुपेक्षागत श्रावक धर्म में कहा गया सागारे वाऽनगारे वाऽनस्तमितमणुव्रतम्। है कि छठी प्रतिमाधारी श्रावक दाल, भात आदि खाद्य, समस्तव्रत रक्षार्थं स्वर व्यंजन भाषितम्॥' मिष्ठान्न आदि स्वाद, चटनी आदि लेह और पानी, दूध, संसार में वही श्रावक है, वही कृति और बुद्धिमान है शरबत आदि पेय पदार्थों का रात्रि में भोजन न स्वयं करता जो त्यागपूर्वक व्रताचरण में जीवन व्यतीत करता है। श्रावक है और न ही दूसरों को कराता है। क्योंकि वह सभीप्रकार के मूलगुणों में स्थूल रूप से रात्रिभोजन का त्याग करना, के आरंभ का त्यागी होता है। जो चउविंह पि भोज्जं रयणीए णेव भुंजदेणाणी। अनुभव और आगम से सिद्ध है। श्रावक के व्रतों का आरोहण उत्तरोत्तर ग्यारह प्रतिमाओं के अनुपालन करने में पायं भुंजावदि अण्णं, णिसिविरओ सो हवे भोज्जो॥81॥' है। व्रतों में प्रवेश रात्रि भोजन निषेध से ही प्राप्त होता है। रात्रिभोजन के दोष प्रथम दार्शनिक प्रतिमा में अन्नादिक स्थूल भोजनों का त्याग कहा है और इसमें रात्रि को औषधीय रूप जल ___ 1. रात्रि में निम्नांकित जीवन के व्यापारादि और क्रियाएं वर्जनीय हैं फिर रात्रिभोजन क्यों? आदि ग्रहण किया जा सकता है। निषिद्धमन्नमात्रादि स्थूल भोज्य व्रते दृशः। ___ अ. सूक्ष्म जंतुओं का समूह स्पष्ट और अस्पष्ट दिखाई नहीं देता है। न निषिद्धं जलाद्यन्न ताम्बूलाद्यपि वा निशि ॥2 ___ब. कोई वस्तु अंधेरे में स्पष्ट न दिखने से त्यागी वस्तु वस्तुत: पहली प्रतिमा को धारण करने वाला श्रावक के खा लेने का दोष लगता है। अव्रती है। इसलिए वह पाक्षिक श्रावक कहलाता है। क्योंकि स. साधु वर्ग विचरण नहीं करते तथा रात्रि में देव व वह व्रतों को धारण करने के पक्ष में रहता है। रात्रिभोजन गुरु पूजा नहीं की जाती। निषेध, जैन कुल परंपरा से चली आ रही कुल क्रिया है। द. संयमी पुरुष गमनागमन नहीं करते। बिना रात्रिभोजन त्याग के किसी भी व्रत को धारण करने का पक्ष स्वीकार नहीं। सचमुच रात्रिभोजन निषेध व्रतों के इ. श्राद्धकर्म स्नान, दान, आहुति, यज्ञ आदि शुभ एवं धार्मिक क्रियाएं रात्रि में वर्जनीय होती हैं। ऐसी रात्रि में अनुशीलन का मंगलाचरण है। कुशल पुरुष भोजन नहीं करते हैं। 6. रात्रि में भोजन करने वालों के अनिवार्य रूप से हिंसा होती है। अत्याग में राग भाव के उदय की उत्कृष्टता होती 2. रात्रिभोजन संयम का विनाश करने वाला होता है। है। जैसे अन्नग्रास की अपेक्षा मांस ग्रास खाने वाले को क्योंकि रात्रि में जीते जीवों की भक्षण की संभावना रहती अधिक राग होता है। अतः रात्रि भोजी हिंसा का परिहार है और इससे खाने की गृद्धता का दोष लगता है। जो कैसे कर सकेगा। कृत्रिम प्रकाश में सूक्ष्म जीवों की उत्पत्ति । अहर्निश सदा खाया करते हैं वे सींग, पूंछ और खुर रहित हो जाती है, जो भोज्य पदार्थों में अनिवार्यतः मिल जाते पशु ही हैं। हैं। अहर्निश भोजी पुरुष राग की अधिकता के कारण 3. भाग्यहीन, आदररहित नीच, कुलहिं उपजाहिं। अवश्य हिंसा करता है। 4 दुख अनेक लहै सही जो निशि भोजन खाहिं। - जनवरी 2005 जिनभाषित 11 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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