Book Title: Jinabhashita 2005 01
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 19
________________ जिस लम्हे से मेरे जेहन में फूलों का ख्याल आया, | जीवों को दुःख प्रिय नहीं हैं। अत: सब प्राणियों पर ठीक उसी वक्त मेरे हाथों में पत्थर बरामद हुआ। आत्मौपम्य दृष्टि रखकर दयाभाव रखना चाहिए। किन्तु यह कथन उचित नहीं है। संसार में जिस क्षण धर्मदयामूलक है तथा जीवधारियों पर अनुकम्पाभाव कोई जीव गर्भ में आता है तो माता की अहिंसक भावना रखना दया हैउसका पोषण करती है। जब वह पृथ्वी पर अवतरित होता "दयामूलोभवेद्धर्मो दयाप्राणानुकम्पनम्।"7 हमारा है (जन्मता है) तो माँ अपने दुग्ध से उसका पालन करती धर्म हमें रक्षा करना सिखाता है रक्षणीय की हत्या करना है। दुग्ध का वर्ण सफेद होना ही वात्सल्य एवं अहिंसा का नहीं। यदि मानवता की उन्नति करनी है, स्वयं के अस्तित्त्व द्योतक है, जबकि रक्त वात्सल्य का प्रतीक नहीं माना को बचाना है तो अहिंसा का पालन करना ही चाहिए। जाता। यहाँ तक कि हिंसक प्रकृति जीवी जीव भी, अपने अहिंसा समत्व का बोध कराती है, क्रूरता, विषमता, अन्याय, बच्चों को दुग्धपान ही कराते हैं, रक्तपान नहीं। स्वयं के अत्याचार और अनाचार से बचाती है। जहाँ अहिंसा है रक्त को दुग्ध के रूप में ढालकर पिलाना हिंसा के विरुद्ध वहाँ करुणा है, प्रेम है, आनन्द है, सुख है और जहाँ हिंसा अहिंसा की जीत है। कहते हैं कि जब भगवान महावीर है वहाँ कलुषता है, क्रन्दन है, चीत्कार है। हिंसक व्यक्ति को चण्डकौशिक सर्प ने काटा तो उनके शरीर से दुग्ध की कभी सुखी नहीं रह सकता क्योंकि वह अपनी आत्मा का धारा बह निकली। यह दुग्ध की धारा संसार के क्रूर प्राणियों हत्यारा स्वयं है। अहिंसा का संबंध हमारे अन्तश्चित्त से है के प्रति वात्सल्य की प्रतीक थी। यह मान्यता है कि भगवान/ और बाहरी चराचर जगत से भी है। राग-द्वेष रूप परिणामों तीर्थंकर का रक्त श्वेतवर्णी दग्ध के समान होता है। भला. से निवृत्त होकर साम्य भाव में स्थिर होना अहिंसा है ऐसा क्यों न हो जिसके मन और आत्मा में कूट-कूटकर जिसके लिए हमारे तीर्थंकरों ने धर्म कहा हैअहिंसा भरी हुई हो उसके शरीर में दुग्ध की धारा ही तो अतीतै विभिश्चापि वर्तमानैः समैर्जितः । बहेगी, वह रक्त की उत्तेजना को कैसे अपने में समाहित सर्वे जीवा न हन्तव्या, एष धर्मो निरूपितः॥ कर सकता है? वह क्रोध और हिंसा पर विजय इसीलिए अर्थात भत, भविष्यत और वर्तमान. सभी तीर्थंकरों ने पा सके क्योंकि उनके अंतस में वात्सल्य और प्रेम की सभी जीवों को नहीं मारना चाहिए अर्थात् अहिंसा को ही धारा निरन्तर प्रवाहमान थी। वे 'सर्वसत्त्वानां हिताय, धर्म निरूपित किया है। सर्वसत्त्वानांसुखाय' अहिंसा को चरितार्थ कर सके। अहिंसा वीरोचित भाव है जिसकी अनदेखी नहीं करना जो लोग अहिंसा का निषेधपरक अर्थ करते हैं वे यह चाहिए। महात्मा गांधी की दृष्टि में- "अहिंसा डरपोक भूल जाते हैं कि विधेयात्मक पक्ष का आधार बनाये बिना और कायरों का मार्ग नहीं है, यह उन बहादुरों का मार्ग है निषेधात्मकता का कोई अर्थ नहीं है। जब हम और हमारे जो मृत्यु के वरण के लिए सदैव तत्पर रहते हैं। जिसके आराध्य हिंसा का निषेध करते हैं तब उनके विचारों में हाथ में शस्त्र है वह बहादुर हो सकता है, लेकिन उससे कहीं न कहीं प्राणी मात्र के अस्तित्त्व की रक्षा और सम्पोषण भी बहादुर वह है जो बिना हिचकिचाहट, बिना शस्त्र की भावना होती है। गांधीजी कहा करते थे कि-"सर्वजीवों उठाए मृत्यु का सामना करता है।" वीरता तो वहाँ है जहाँ के प्रति सद्भावना या समस्त जीवों के प्रति दुर्भावना का नीति हो, मूल्य हो। शायर ठीक ही कहता हैपूर्ण अभाव ही अहिंसा है।" भगवान महावीर ने तो यहाँ तमाम उम्र लड़ाई लड़ो उसूलों की, तक कहा कि जो जी सको तो जिन्दगी रसूलों की॥ जीव वहो अप्पवहो, जीवदया अप्पणो दया होइ। संसार में प्रायः सभी लोग अपने लिए दुःखी मानते हैं ता सव्व जीवहिंसा परिचत्ता अन्तकामेहिं । किन्तु वे दुःख के मूल को भूल जाते हैं। आचार्य शुभचन्द्रदेव जह ते न पियं दुक्खं आणिय एमेव सव्वजीवाणं। कहते हैं किसव्वायरमुवउत्तो अत्तोवम्मेण कुणसु दयं ॥ यत्किञ्चित्संसारे शरीरिणां दुःखशोक भयबीजम् अर्थात् जीव का वध करना अपना ही वध करना है, | दोर्भाग्यादि समस्तं तद्धिंसासम्भवं ज्ञेयम्॥१ जीवों पर दया करना अपने पर दया करना है अतः सभी अर्थात् इस संसार में जीवों के दुःख, शोक, भय के जीवों की हिंसा को अपने ही प्रिय की हिंसा समझना बीजस्वरूप दुर्भाग्य आदि का दर्शन होता है, वह सब चाहिए। जैसे तुम्हें दुःख प्रिय नहीं है वैसे ही अन्य सभी हिंसा से उत्पन्न समझना चाहिए। वे सावधान करते हैं कि - जनवरी 2005 जिनभाषित 17 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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