Book Title: Jinabhashita 2005 01
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 29
________________ अन्तरंग (मन) से भी अपरिग्रही बनना आवश्यक है। । अतः साधुओं को 28 मूलगुणों तथा 34 उत्तर गुणों का सम्यक् पालन करते हुए अपनी नियमित चर्या रखनी चाहिए। श्रावक और जैनेतर व्यक्ति भी दिगम्बर मुनिराजों की तपस्या और त्याग के हृदय से प्रशंसक हैं और रहेंगे। उनके त्याग मार्ग के सभी कायल हैं। आज की भोगवादी परिस्थितियों में भी जिनकी भावना वस्त्र त्याग, तथा एक बार दिन में आहार की भी है तो वह भी श्रद्धास्पद है, पूज्य है, परन्तु जिसने स्वाध्याय किया है। चरणानुयोग का | जानकार है वह तो यही अपेक्षा रखेगा कि श्रमण साधु, श्रमण धर्म में वर्णित क्रियाओं पर खरा उतरे। श्रद्धा | दिगम्बरत्व के प्रति लोगों की है और निरन्तर बनी रहेगी। यह इस बात पर निर्भर करेगा कि "साधु" योगमयी प्रवृत्ति पर विश्वास रखें। ज्ञान, ध्यान और तप उनका लक्ष्य होना चाहिए। परम दिगम्बर मुनियों के प्रात:काल दर्शन ही बड़े पुण्य के कारण मिलता है। पंचमकाल में मुनियों के दर्शन हो रहे हैं यह हम सबके लिए सौभाग्य की बात है। मुनियों की जीवन चर्या हम सभी लोगों की भावना को धर्ममय बनाये वैराग्य की ओर हमारी भावना बलवती हो तथा साधुओं का सान्निध्य प्राप्त कर हम सम्यकचारित्र के पथ पर आगे बढ़ें, यह सभी की भावना होना चाहिए। A-27 न्यू नर्मदा विहार, सनावद (म.प्र.) जिनवाणी माँ मनोज जैन 'मधुर' जिनवाणी माँ नाव हमारी, भव सागर से तारो। लाखों पापी तारे तुमने, हमको भी उद्धारो। माता तेरे वरद हस्त की,छाँव तले जो आता है। छटते कल्मष कोप उसी क्षण कुन्द-कुन्द बन जाता है। भावों के हम अक्षत-चंदन लाए हैं स्वीकारो। सात तत्व छः द्रव्य बताए, अनेकांत समझाया है। भव से पार उतर जाता है, जिसने तुमको ध्याया है। सब कुछ सौंप दिया है तुमको, तुम्ही हमें सम्हारो। कुन्द-कुन्द से विद्यासागर, जो भी तुमको ध्याते हैं। रत्नत्रय के चंदा-सूरज, उन सब को मिल जाते हैं। सबके मन में भेद-ज्ञान. दीपक माँ उजियारो। गौतम गणधर ने गूंथी है, महावीर की वाणी। वचनामृत का पान करें सब, तर जाएंगे प्राणी। अष्ट कर्म के इन रिपुओं को, माता तुम संहारो। पाते वे ही मोक्ष लक्ष्मी, जिसने अंगीकार किया अंजन चोर सरीखे पापी, पर माते उपकार किया। मुक्तिवधू से हमें मिलाकर, हमको भी उपकारो। C-5/13, इन्दिरा कालोनी बाग उमराव दूल्हा, भोपाल-10 जनवरी 2005 जिनभाषित 27 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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