Book Title: Jinabhashita 2005 01
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 28
________________ (केशलोंच) आचेलक्य (नग्नत्व) अस्नान् क्षितिशयन (भूमि शयन) अदन्त धावन, स्थितिभोजन ( खड़े होकर भोजन करना और एक भक्त (एक बार आहार) ये अट्ठाईस मूलगुण हैं। इनमें अतिचार की स्थिति में साधु (गुरु के समक्ष ) प्रायश्चित लेता है । मुनियों के 34 उत्तर गुण कहे गये हैं । 22 परीषह, 12 तप और 34 उत्तरगुण हैं । क्षुधा, तृषा, उष्ण, दंसमशक, नग्न, अरति, स्त्री, चर्या, निषद्या, शयन, आक्रोश, बधबन्धन, याचना, अलाभ, रोग, तृणस्पर्श, मल, सत्कारपुरस्कार, प्रज्ञा, अज्ञान और अदर्शन ये 22 परीषह तथा अनशन, अवमौदर्य, वृत्तिपरिसंख्यान, रस परित्याग, विविक्त शय्यासन, कायक्लेश, प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, व्युत्सर्ग और ध्यान ये 12 तप कहे गये हैं। इन पर चलकर मुनि आध्यात्मिक शक्तियों का विकास कर मोक्ष प्राप्त करता है। इन गुणों का पालन कर व्यक्ति मन, वचन, काय को स्थिर कर सारा ध्यान आत्मा पर केन्द्रित करता है। आत्मा का चिंतन करता है ऐसा करने से 'आत्मज्ञान' की प्राप्ति होती है। आत्मज्ञान प्राप्त व्यक्ति की भावना इस तरह होती है अरि-मित्र महल-मसान, कंचन - कांच, निन्दन - श्रुतिकरन । अर्घावतारन - असिप्रहारन, में सदा समता धरन ॥ अर्थात् वे (मुनि) शत्रु-मित्र,, महल, श्मशान, कंचन (सोना) और काँच, निंदा और प्रशंसा करने वाले में, पूजन करने वाले और तलवार का प्रहार करने वाले में सदैव समता धारण करते हैं। आचार्य कुन्दकुन्द प्रवचनसार में कहते हैं समसत्तु बंधुवग्गो समसुहदुक्खो पसंस णिंदसमो । समलोट्ठ कंचणो पुणं जीविदमरणे समो समणो ॥ (241) अर्थात् जिसे शत्रु और मित्र समान हैं, सुख-दुख समान हैं। प्रशंसा और निंदा के प्रति जिनको समता है। जिसे लोठ (मिट्टी के ढेला) और सुवर्ण (सोना) समान है तथा जीवन-मरण के प्रति जिसको समता है, वह श्रमण | श्रमण को यह ज्ञान होता है णाणेण दंसणेण य तवेण चरियेण संजमगुणेण । चहिं पि समाजोगे मोक्खो जिणसासणे दिट्ठो ॥ (दर्शन पाहुड 30 ) से ही । अतः ज्ञान, दर्शन, तप और चारित्र रूप संयम गुण मोक्ष की प्राप्ति होती है। ऐसा जिन शासन ने कहा जिन शासन की आज्ञा को ही सर्वस्व मानकर दिगम्बर साधु अपनी चर्या आगे बढ़ाते रहते हैं । जैन साधुओं को 26 जनवरी 2005 जिनभाषित Jain Education International इस बात का ज्ञान रहता है कि "देह विनाशी मैं अविनाशी " अर्थात् यह शरीर नाशवान है और मैं (आत्मा) अविनाशी हूँ । इसीलिए वे देह (शरीर) पोषण में नहीं शरीर का उपयोग ज्ञानार्जन, तप और ध्यान के लिए करते हैं । इसीलिए दिगम्बर साधुओं के लक्षण में "देहे निर्ममता " शब्द का प्रयोग किया है। जिसको संसार में रहते हुए शरीर से राग रहता है वह शरीर को कष्ट नहीं देना चाहता, वह अपने शरीर को ही श्रृंगारों से आपूरित करने में समय बर्बाद करता । रात दिन सोलह श्रृंगार करता है और इसी में अपने जीवन का अमूल्य समय गँवा देता है। जबकि जिन्हें संसार, शरीर और भोगों की नश्वरता का सच्चा ज्ञान है वह सोचता है भोगो न भुक्ता वयमेव भुक्ता, तपो न तप्ता वयमेव तप्ता । कालो न याता वयमेव याता तृष्णा न जीर्णा वयमेव जीर्णा ॥ भोगों को तिलांजली देते हुए साधु समझता है कि भोगों को भोगते हुए हमने अपना सम्पूर्ण समय गँवा दिया परन्तु भोगों की तृप्ति नहीं हुई, तृष्णा का अंत नहीं हुआ इसलिए वह शरीर के सम्बन्ध में निर्ममत्व होकर सोचता है- यावत्स्वस्थं शरीरस्य यावच्चेन्द्रिय सम्पदः । तावद्युक्तं तपः कर्मः वार्धक्ये केवलं श्रमः ॥ अर्थात् जब तक शरीर स्वस्थ है और इन्द्रियों की सम्पदा है तब तक " तप" रूपी कर्म ही करना चाहिए । बुढ़ापे में तो सिर्फ व्यक्ति श्रम ही करता है। सप्तर्षि पूजा में सात मुनिवरों के तप के वर्णन में लिखा गया है जय शीतकाय चौपट मंझार, कै नदी सरोवर तट मंझार । जय निवसत ध्यानारूढ होय रंचक नहिं मटकत रोम कोय ॥ जय मृतकासन वज्रासनीय गोदूहन इत्यादिक गनीय । जय आसन नानाभाँति धार, उपसर्ग सहित ममता निवार ॥ इस तरह दिगम्बर (श्रमण) साधुओं का सिर्फ एक ही कार्य रह जाता है। ज्ञान और क्रिया । ज्यादा से ज्यादा आत्मस्थ होकर तप करके कर्मों का नाश करना और सतत् स्वाध्याय के माध्यम से " आत्मज्ञान" को बढ़ाना। मुनि का नग्नत्वपना अनाशक्ति भाव का प्रतीक, देह तपधारण के लिए, आहार, शरीर के पोषण के लिए नहीं वरन् तप करने के लिए केशलोंच, शरीर के प्रति अनाशक्ति या ममत्व रहित होने की स्थिति का स्वयं के आंकलन के लिए होता है । इसीलिए प्रत्येक साधु को संसार शरीर भोगों के प्रति मन से विरक्त होना चाहिए । बाह्य में नग्न होना अलग बात है परन्तु लक्ष्य की प्राप्ति के लिए तो For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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