Book Title: Jinabhashita 2005 01
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

View full book text
Previous | Next

Page 35
________________ मुनि श्री क्षमासागर जी की चार कविताएँ निशाना जब भी मैंने किसी और को निशाना बनाया और अपने जीतने का जश्न मनाया मैंने पाया, मैं ही हारा, अनजाने ही मेरा तीर मुझसे टकराया शिकार मैं ही बना और कई रोज तक कराहती रही मेरी घायल चेतना। कुछ भी नहीं प्यासा मृग मरीचिका में उलझा और तड़प उठा हमने कहा, बेचारा मृग! स्वाद की मारी मीन काँटे-में उलझी और मर गयी हमने कहा, अभागी मीन! एक पतंगा दीपक की जोत पर रीझा और झुलस गया हमने कहा, पागल परवाना! वाह रे हम, अपनी प्यास अपनी उलझन और अपने दीवानेपन पर हमें अपने से कभी कुछ भी नहीं कहना! अहसास हमने यहाँ एक-एक चीज और अपने बीच वासनाओं के नित-नवीन/रंगीन परदे डाल रखे हैं कि रोज कुछ नया लगे ज़िन्दगी भ्रम में गुज़र सके और बासेपन का अहसास हमें विरक्त न कर सके। दोहरे गणित ज़िन्दगी में हमारे चाहे/अनचाहे बहुत कुछ हो जाता है हमारा मनचाहा हुआ तो लगता है यह हमने किया हमारा अनचाहा हुआ तो लगता है शिकायत करें/पूछे कि यह किसने किया जीवन-भर इसी दोहरे गणित में हम जीते हैं और समझ नहीं पाते कि अच्छा-बुरा चाहा-अनचाहा अपने लिए सब हम ही करते हैं अपनी मौत की इबारत अपने हाथों हम ही लिखते हैं। 'पगडंडी सूरज तक' से साभार Jain Education International For Private & Personal use only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 33 34 35 36