Book Title: Jinabhashita 2005 01
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 36
________________ रजि नं. UP/HIN/29933/24/1/2001-TC डाक पंजीयन क्र.-म.प्र./भोपाल/588/2003-05 साधर्मी को गले लगाओ 0 मुनि श्री प्रमाणसागर जी धर्म और समाज दोनों एक दूसरे के परिपूरक हैं। धर्म जहाँ हमारे वैयक्तिक जीवनोत्थान की साधना है, वहीं समाज एक सी विचारधारा में जीने वाले लोगों का समूह है। धर्म समाज को अनुशासित और नियंत्रित करता है, तो समाज धार्मिक विचारधारा का विकास करता है। धर्म के अभाव में समाज स्वस्थ और सुखी नहीं रह सकता, तो समाज के अभाव में धर्म भी फल-फूल नहीं सकता। धर्म और समाज के इसी सह सम्बन्ध को रेखांकित करते हए आचार्य समन्तभद्र महाराज ने एक सूत्र दिया है न धर्मो धार्मिकैर्विना धर्मात्माओं के बिना धर्म टिक नहीं सकता। धर्म के विस्तार के लिए धर्मात्माओं का संरक्षण नितान्त अनिवार्य है। वही धर्म चिरस्थायी हो सकता है, जिसके अनुयायी संगठित हों। यह पारस्परिक प्रेम, वात्सल्य और सद्भावों की प्रगाढता पर ही सम्भव है। अतः प्रत्येक धर्मात्मा का यह कर्तव्य है कि वह धर्मात्माओं को मजबूती प्रदान करे। अन्यथा धार्मिक, सामाजिक और सांस्कृतिक परम्पराएँ धीरे-धीरे छिन्न-भिन्न होने लगती हैं। धर्मात्माओं के प्रति इसी सहयोग और संरक्षण की वृत्ति को प्रोत्साहित करने की भावना है- साधर्मी वात्सल्य। प्रेम और वात्सल्य सामाजिक जीवन की मूल चेतना हैं। इनके बल पर ही पूरे समाज को एक सूत्र में बाँधकर उन्नत बनाया जा सकता है। कुरल काव्य में कहा है अस्थिहीनं यथाकीटं, सूर्यो दहति तेजसा। तथा दहति धर्मश्च प्रेमशून्यं नृकीटकम् // जिस प्रकार अस्थिहीन कीडे को सूर्य की तेज किरणें जला डालती हैं, उसी प्रकार धर्मशीलता उस मनुष्य को जला डालती है, जो प्रेम नहीं करता। प्रेम और वात्सल्य के अभाव में धर्म टिक नहीं सकता। वात्सल्य गुण सम्यग्दर्शन का अंग है। जीवन में वात्सल्य का वही स्थान है, जो कि शरीर में हृदय का। हृदयगति के अवरुद्ध होते ही शरीर छट जाता है। इसी प्रकार वात्सल्य भाव का अभाव होते ही धर्म छुट जाता है। शास्त्रकार कहते हैं "प्रेम जीवन का प्राण है। जिसमें प्रेम नहीं वह केवल मांस से घिरी हड्डियों का ढेर है।" वात्सल्य शब्द 'वत्स' से बना है। जैसे गाय अपने बछडे के प्रति निश्छल और आन्तरिक प्रेम रखती है. बछड़े को देखते ही उसका रोम-रोम पुलकित हो उठता है. वैसे ही हमें प्रत्येक साधर्मी के प्रति प्रेम-वात्सल्य का भाव रखना चाहिए। सामाजिक चेतना के स्फूरण में वात्सल्य का विशिष्ट स्थान है। पारस्परिक वात्सल्य के बल पर समाज में समरसता लाई जा सकती है। प्रेमवात्सल्य जीवन में माधुर्य का रस घोलता है। जैसे मरुस्थल के सूखे हुए ठूठ में कोंपलें नहीं फूट .. वैसे ही प्रेम रहित मनुष्य का जीवन कभी भी फल-फूल नहीं सकता। प्रेम जीवन का आन्तरिक सौन्दर्य है। प्रेम/वात्सल्य के अभाव में बाहरी सौन्दर्य अर्थहीन है / सन्त कहते हैं- जिसका जीवन, प्रेम-वात्सल्य के रस से पगा हुआ है, वह संसार में कहीं भी क्यों न चला जाए उस पर कोई संकट नहीं आता। 'ज्योतिर्मय जीवन' से साभार स्वामी, प्रकाशक एवं मुद्रक : रतनलाल बैनाड़ा द्वारा एकलव्य ऑफसेट सहकारी मुद्रणालय संस्था मर्यादित, जोन-1, महाराणा प्रताप नगर, भोपाल (म.प्र.) से मुद्रित एवं सर्वोदय जैन विद्यापीठ 1/205 प्रोफेसर कॉलोनी, आगरा-282002 (उ.प्र.) से प्रकाशित / Jain Education International For Private & Personal use only www.jainelibrary.org

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