Book Title: Jinabhashita 2005 01
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 27
________________ साधुओं की चर्या ज्ञान, ध्यान और तप में ही लगनी चाहिए डॉ. नरेन्द्र जैन 'भारती' जैन धर्म में आचार' का विशेष महत्व है। आचारहीन । लिए श्रम करता है और तपः साधना से शरीर को खेद व्यक्ति की सर्वत्र निंदा की गई है। पतन का कारण खिन्न करता है वह श्रमण कहा जाता है। मल्लिषेणाचार्य आचरणहीनता को माना गया है। सदाचार का पालन और कहते हैंपाप रूप प्रवृत्तियों का विसर्जन जैन धर्म की प्रमुख विशेषता देहे निर्ममता गुरो विनयता नित्यं श्रुताभ्यासता, है। भोग प्रधान संस्कृति के विपरीत भारतीय संस्कृति योग चारित्रोजवल मोहोपशमता संसार निर्वेगता। की प्रधानता पर बल देती है। मन, वचन और शरीर की अन्तर्बाह्य परिग्रहत्यजनतां धर्मज्ञता साधुता, प्रवृत्ति या चंचलता को रोकना योग का कार्य है इसलिए, साधो साधुजनस्य लक्षण मिदं संसारविक्षेपणम्॥ भारत के गृहविरत व्यक्ति 'योग' का अनुसरण करते हैं। अर्थात् शरीर के प्रति निर्ममता, गुरुओं की विनय योग का अर्थ है आत्मा में स्थिर हो जाना। गृहत्यागी करना, निरन्तर शास्त्रों का अभ्यास करना, उज्जवल चरित्र आत्मा में ही स्थिर रहकर सुख प्राप्ति के प्रयास करता पालना, क्रोध, मान, माया, लोभ आदि कषायों को शांत रहता है। यही पुरूषार्थ उन्हें संसार के दुःखों से मुक्ति रखना, संसार से डरना, अन्तरङ्ग और बाह्य परिग्रह के दिलाता है। संसार में तो दुःख ही दुःख हैं। कहा गया है- | 24 भेद रूप परिग्रहों को छोड़ना, उत्तम क्षमादि दश धर्मों का पालन करना साधुपना है। आचार्य समन्तभद्र ने या संसार विषै सुख होता, तीर्थंकर क्यों त्यागै। 'रत्नकरण्ड श्रावकाचार' में कहा हैकाहे को सुख साधन करते संयम सों अनुरागै। विषयाशावशातीतो निरारम्भो परिग्रहः। (वैराग्य भावना 8) ज्ञानध्यानतपोरक्तः तपस्वी सः प्रशस्यते॥ यदि संसार में सुख होता, तो तीर्थंकर संसार का त्याग अर्थात् विषय कषायों से रहित, आरम्भ परिग्रहों से क्यों करते? क्यों संसार में रहकर संयम की साधना करते। परिमुक्त होकर ज्ञान, ध्यान और तप में लवलीन साधु ही जब तीर्थंकर को भी संसार में सुख नहीं दिखाई दिया तभी सच्चे गुरु हैं। ये साधु अपनेआचरण के सुधार तथा मोक्ष तो उन्हें भी तपस्या करनी पड़ी। भगवान महावीर स्वामी ने की प्राप्ति के लिए निरन्तर 28 मूलगुणों का पालन करते बारह वर्ष तक कठोर तपस्या करके कर्मों को नष्ट किया हैं। वे 28 मूलगुण ये हैं- . इसके उपरांत ही मोक्ष गये। मोक्ष प्राप्ति के लिए सम्यग्दर्शन, पंचय महत्वयाई समिदीओ पंच जिणवरू हिट्ठा। सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र का पालन आवश्यक है। पंचेविंदियरोहा छप्पिय आवासआ लोओ। सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान आत्मा की स्वाभाविक शक्ति आचेलकमण्हाणं खिदिसयणमदंतघंसणं चेव, हैं, जो व्यक्ति को नैसर्गिक रूप से प्राप्त हो सकती है। ठिदि भोयणेय भत्तं मूलगुणा अट्ठवीसा दु॥ परन्तु सम्यक्चारित्र की प्राप्ति के लिए जीव को पुरूषार्थ (मूलाचार) करना पड़ता है। यदि यह पुरूषार्थ मनुष्य भव में किया प्रतिक्रमण पाठ में अट्ठाईस मूलगुणों के नाम की गाथा जाय तो इस भव से अवश्य मुक्ति मिलती है। दूसरी गतियों इस प्रकार हैके जीवों को भी पहले मनुष्य गति में आना होगा, क्योंकि वदसमिंदिदियरोधो लोचो आवासनमचेलमण्हाणं । मनुष्य गति से ही मुक्ति (मोक्ष) मिलता है। जैन धर्म क खिदिसयणमदंतवणं ठिदिभोयणमेयभत्तं च॥ श्रद्धानी, ज्ञानी ऐसा जानकर संसार, शरीर, भोगों से विरक्त एद खलु मूलगुणा समणाणं जिणवरेहिं पण्णता। होकर अपनी आचरण रूप क्रिया की शुद्धि हेतु श्रमण एष पमादकदादो अइचारादोणियत्तोहं। चर्या को अंगीकार करता है। श्रमण चर्या में व्यक्ति "आत्मा पाँच महाव्रत (अहिंसा, सत्य, अस्तेय, अपरिग्रह और की साधना के लिए श्रम" करता है। उसकी साधना पापों ब्रह्मचर्य) पाँच समिति (ईर्या, भाषा, एषणा, आदान निक्षेपण के प्रायश्चित, कर्मों के दहन, स्वाध्याय, संयम और तप और व्युत्सर्ग) पाँच इन्द्रियों का निरोध (स्पर्शन, रसना, आदि में ही लगी रहती है। श्रमण शब्द "जैन संस्कृति में घ्राण, चक्षु और कर्ण)छह आवश्यक (सामायिक, स्तुति, तपस्वी" का सूचक है। "श्राम्यति तपसा खिद्यत इति वन्दना, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान, कायोत्सर्ग) लोच कृत्वा श्रमणो वाच्यः" अर्थात् जो आत्मा की साधना के । जनवरी 2005 जिनभाषित 25 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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