Book Title: Jinabhashita 2005 01
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 20
________________ अभयं यच्छ भूतेषु कुरू मैत्रीमनिन्दिताम्। कि मन,वचन, काय एवं कृत, कारित और अनुमोदना से पश्यात्म सदशं विश्वं जीवलोकं चराचरम॥ सभी प्रकार की हिंसा का त्याग करना अहिंसा है। यहाँ तक कि गृहस्थ के लिए जो चार प्रकार की हिंसा बतायी अर्थात हे जीव! तू किसी के भय का कारण न बनकर गयी- 1. आरम्भी, 2. उद्योगी, 3. संकल्पी, 4. विरोधी, प्राणियों को अभयदान दे। स्वयं भी अहिंसा के बल पर वहाँ गृहस्थ को संकल्पी हिंसा के पूर्ण त्याग की बात की, निर्भय बन। सब जीवों से प्रशंसनीय मैत्री भाव रख। समस्त वहीं आरम्भी, उद्योगी और विरोधी हिंसा के साथ विविध जगत के प्राणियों को आत्मवत देख। शर्ते जोड़ी और कहा कि इनमें आवश्यकता के अनुसार उक्त भावनाओं के अनुरूप कार्य करने वाला ही अहिंसा कार्य किया जाय। उद्योगी हिंसा में भी प्रत्यक्ष हिंसा वाले के महत्व को जान सकता है। आचार्य अमितगति ने व्यापार नहीं करने के लिए कहा। यहाँ प्रत्यक्ष हिंसा से सामायिक पाठ में स्पष्ट किया है कि तात्पर्य ज्ञात हिंसा से है। सोमदेवाचार्य ने कहा कि 'अपने सत्त्वेषु मैत्री गुणिषु प्रमोदं, क्लिष्टेषु जीवेषु कृपापरत्वम्। कर्तव्य के पालन करने में जो व्यक्ति हिंसा करता है वह माध्यस्थभावं विपरीतवृत्तौ, सदा ममात्मा विदधातु देव॥ क्षम्तव्य है।' तथा 'क्षत्रिय वीर उन्हीं पर शस्त्र उठाते हैं जो अर्थात् प्राणीमात्र के प्रति मैत्री भाव, गुणीजनों के रणक्षेत्र में युद्ध करने को उनके सम्मुख हों अथवा जो प्रति प्रमोदभाव, दुःखी और क्लेष युक्त जीवों के प्रति उनके शत्रु हों, कंटक हों, उसकी उन्नति में बाधक हों। वे करूणा (कृपा) भाव तथा प्रतिकूल विचारवालों के प्रति दीन, हीन एवं साधु आशय वाले व्यक्तियों पर हाथ नहीं माध्यस्थ भाव रखें। हे देव! मेरी आत्मा सदा ऐसे भाव उठाते।' विरोधी हिंसा तभी करने की छूट है, जब आत्महानि धारण करे। की संभावना हो। मैत्री. प्रेम. करूणा. संवदेनशीलता, मधुर संभाषण, मनष्य समाज पर यह बहत बड़ा दायित्व है कि वह मानवीयता, निर्वेर, सहिष्णता, सह अस्तित्व की भावना, मात्र मानव की ही चिन्ता न करे, अपितु संसार के निरीह आशावादिता, निष्कपटता जैसे भावों से अहिंसा पुष्ट और जीवों की रक्षा के प्रति भी सतर्क रहे। नीतिवाक्यामृतम् के प्राप्त शक्ति के दुरूपयोग से इसका पोषण होता है। अतः अनुसार-"वृद्धबालव्याधितक्षीणान् पशून् बान्धवानिव हमें हिंसा से बचने के लिए अपने आपसे उन विचारों को | पोषयेत्' अर्थात वृद्ध, बाल एवं व्याधिग्रस्त पशुओं का समाप्त करना होगा जो हमें हिंसक बनाते हैं। बान्धवों की तरह पोषण करे। किन्तु आज हो उल्टा रहा है आओ सब मिलके जड़ों को ही मिटा देते हैं, हम रक्षक से भक्षक बन गये हैं। कत्लखानों की संख्या उन दरख्तों को जो जहरीली हवा देते हैं। हमारे देश में निरन्तर बढ़ती जा रही है, पशुधन निरन्तर अहिंसा के कवच से हम अपनी आत्मा, अपनी घटता जा रहा है। यहाँ तक कि दूसरों के भरण-पोषण के मानवीयता और अपनी मानवता को बचा सकते हैं। हिंसा लिए हमारी देशीय सरकारें माँस का निर्यात करती हैं। कैसी भी हो वह अनुचित है। भगवान महावीर का अहिंसा उनकी दृष्टि में यह व्यापार है, जबकि हमारी दृष्टि में यह के क्षेत्र में यह सबसे बड़ा अवदान है कि उन्होंने कहा अनाचार और कर्त्तव्य-विमुखता है। यह कैसा व्यापार है कि-हिंसा चाहे किसी भी अच्छे-बुरे प्रयोजन से की जाय, जिसने हिंसा में प्रगति, व्यापार और लाभ देखना प्रारंभ हिंसा हिंसा है और त्यागने योग्य है। उन्होंने धर्म क्षेत्र में किया है। डॉ.इकबाल ने यह प्रश्न कितना सार्थक किया है की जाने वाली हिंसा को भी पापकार्य माना और इसे कित्यागने का उपदेश दिया। नरबलि, पशुबलि आदि यज्ञ की जान ही लेने की हिकमत में तरक्की देखी। क्रियाओं को उन्होंने धर्म का आवरण डालकर अहिंसा मौत का रोकने वाला कोई पैदा न हुआ? बताने की चेष्टाओं को अधर्म बताया। जो लोग "वैदिकी जो लोग पशुओं की हिंसा एवं माँस निर्यात को उचित हिंसा हिंसा न भवति" के समर्थक थे उन्हें भगवान महावीर | मानते हैं वे अपने ही विनाश को आमंत्रित करते हैं। कहा के चिन्तन से धर्म का सही मार्ग मिला। अहिंसा के प्रति भी हैहमारी सम्बद्धता और प्रतिबद्धता का पता इसी से चलता है भारत का उत्थान न होगा माँस निर्यात की कमाई से। कि हम किसी भी परिस्थिति में हिंसा को स्वीकार करते हैं विनाश होगा इस देश का पशुओं की अवैध कटाई से॥ या नहीं? जैन धर्म ने अहिंसा को व्यापकता दी और कहा बिना धैर्य के अहिंसा संभव नहीं है। भगवान महावीर 18 जनवरी 2005 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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