Book Title: Jinabhashita 2004 02
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 4
________________ आपके पत्र, धन्यवाद : सुझाव शिरोधार्य _ 'जिनभाषित' का दिसम्बर २००३ अंक मिला। पत्रिका । 'जिनभाषित' के दिसम्बर-जनवरी २००३-४ के अंक का इतनी अच्छी होती है कि हाथ आते ही शुरु से अंत तक पढ़े बिना | आद्योपान्त पठन किया। बैनाड़ा जी के 'शंका-समाधान' आगम मन ही नहीं मानता है। आपने अपनी संपादकीय में यह बात | उद्धरण सहित प्रशंसनीय प्रस्तुतिकरण है। श्रीमान मूलचंद लुहाड़िया एकदम सही लिखी है कि 'न्याय-दर्शन ग्रन्थों के प्रकाशन की | का 'सम्मेद शिखर सिद्ध क्षेत्र' के अन्तर्गत लेख प्रासंगिक है। साथ समस्या' है। अच्छे शोध कार्य को आज कोई प्रकाशक प्रकाशित ही इस ओर अन्य महानुभावों को भी प्रयास करना चाहिए। चौपड़ा ही नहीं करना चाहता है। सभी लोगों को व्यावसायिक साहित्य कुंड का निर्माण आचार्य आर्यनन्दी महाराज की प्रेरणा का सुफल है। चाहिए जिससे उनका व्यवसाय बढ़ सके। काफी शोध कार्य | जनवरी अंक में डॉ. स्नेहरानी जैन का लेख शोधपूर्ण है। इसलिए नहीं हो पा रहे हैं कि उन्हें कोई प्रकाशक ही नहीं सुमतचंद दिवाकर मिलता है, यदि मिलता भी है तो हजारों-हजारों रुपए की मांग पुष्पराज कॉलोनी गली नं. २, सतना, (म.प्र.) करता है, रुपए देने के बाद भी लेखक को ५-७ प्रतियाँ थमा देता मुनिश्री प्रवचनसागर जी की समाधि का समाचार यद्यपि है। समाज ऊलजलूल बातों में करोड़ों रुपए खर्च कर देता है यदि पहले ही प्राप्त हो गया था, लेकिन जिनभाषित' में पढ़कर फिर इन्हीं पैसों का उपयोग सही ग्रंथों को छापने में हो तो यह कार्य से मुखमंडल अश्रुपूरित हो गया। मुनिश्री के अंतिम अवस्था में बहुत सार्थक होगा। कहे गये वचन 'यह शरीर तो धोखेबाज है, धोखा दे ही गया' आचार्य श्री विद्यासागर की वाणी 'अतिक्रमण और हमेशा शरीर की असारता का बोध कराते रहेंगे। प्रतिक्रमण' पढ़ा जिसने बहुत कुछ सोचने पर मजबूर कर दिया कुछ अंकों में मुनिश्री क्षमासागर जी की कविताएँ पढ़कर है। यह सही है कि हम सभी यदि अपने-अपने में लीन हो जाएँ लगभग हर अंक में बड़ी आतुरता से कविराज (मुनिराज) की तो संघर्ष कभी नहीं होगा। हम दूसरों पर ध्यान न लगाएँ अपने कविताओं की प्रतीक्षा करता रहा। आपसे विनम्र सुझाव है कि हर ऊपर ध्यान दें, पहले अपनी पहचान कर लें। आज हम दूसरों को अंक में मुनिश्री की एक कविता अवश्य दें। कवर पृष्ठ २ या ३ पर पहचानने में लगे हैं तथा खुद को पहचान नहीं पा रहे हैं। हमारी देतो अतिरना होगा। दृष्टि, हमारी सोच, हमारे कार्यों तथा हमारी बातों में कहीं भी | । पत्रिका के माध्यम से जिनशासन की महती प्रभावना सामंजस्य नज़र नहीं आता है। हम जैसे हैं वैसे नहीं दिखते हैं, | होती रहे, इसी भावना के साथ। को हमें जैसा करना चाहिए वैसा भी नहीं कर पा रहे हैं। हमें अपने जितेन्द्र कुमार जैन आचरण में ऐसी बातों को अंगीकृत करना होगा जिससे हम कोषाध्यक्ष- श्री पार्श्वनाथ दि. जैन अपनी पहचान बना सकें तथा अपने आपको जान सकें। मंदिर, नरसिंहगढ़, दमोह (म.प्र.) मध्य प्रदेश की मुख्यमंत्री सुश्री उमाभारती ने अपने उद्बोधन मैंने 'जिनभाषित' पत्रिका के सितम्बर, अक्टूबर, नवम्बर में 'संसार की समस्याओं का निदान अहिंसा, संयम और तप' | और दिसम्बर २००३ के अकों को जानकारी की दृष्टि से पढ़ा और बतलाया है। इसके माध्यम से ही सुख व शांति को पा सकते हैं। | स्वाध्याय मनोगत भावों से भी अध्ययन किया। पत्रिका का शीर्षक डॉ. फूलचन्द जैन प्रेमी ने आचार्य विद्यासागर जी की पुस्तक - तथा विचारों का आध्यात्मिक तथ्य जाना गया। इसमें कुछ लेख तो अधिक प्रशंसनीय हैं। जैसे आचार्य विद्यासागर-कर्मों की गति, 'मूकमाटी' के बारे में एक अच्छी समीक्षा प्रस्तुत की है। मूकमाटी तो एक अनूठा महाकाव्य है। एक-एक लाइन पढ़ते जाओ व सदलगा की भूमि पर, श्रावक का प्रथम कर्त्तव्य-डॉ. श्रेयांस गहराई में उतरते जाओ, हर पंक्ति में चिन्तन, अध्यात्म व दर्शन कुमार जैन, आधुनिक विज्ञान ध्यान-डॉ. पारसमल अग्रवाल, सम्पादकीय-सदलगा सदा ही अलग, योग से अयोग की ओरझलकता है। श्रीमती स्नेहलता जैन का लेख-'विधिपूर्वक सत्कर्म के प्रेरक णायकुमार' बहुत अच्छा है। पत्रिका हमेशा की तरह डॉ. फूलचंद प्रेमी, अनर्गल प्रलापं वर्जयेत्- मूलचंद लुहाड़िया, पठनीय, ज्ञानवर्धक व बहुत सारी जानकारियों से युक्त है। जिज्ञासा-समाधान- पं. शिरोमणि रतनलाल बैनाड़ा, जिज्ञासा'जिनभाषित' के सभी अंक लोगों के लिए प्रेरणादायी होते हैं। । समाधान वास्तव में शंका-समाधान का पिटारा है। नूतन वर्ष मंगलमय हो। 'जिनभाषित' पत्रिका के लिए मेरे अपने सुझाव ये हैं कि भवदीय |बालकों, किशोरों के लिए नैतिक शिक्षण सामग्री भी होनी चाहिए। राजेन्द्र पटोरिया डालचंद जैन सम्पादक, खनन भारती डी- २५९/बी. गली नं. १०, लक्ष्मी नगर, दिल्ली - ४२ 2 फरवरी 2004 जिनभाषित - For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International

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