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भगवान की पूजा निःस्वार्थ भाव से करनी चाहिए
मुनिपुंगव श्री सुधासागर जी महाराज
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उस पर संकट आते हैं तो वह भगवान को दोषी ठहराता है, लेकिन जब अच्छे कार्य का पुरस्कार उसे मिलता है तो उसका श्रेय भगवान को या बड़ों को नहीं देता। यही स्वार्थ प्रवृत्ति है, इसे त्यागें और दृढ़ संकल्प के साथ नियम का पालन करें।
सच्चा भक्त वही है जो भगवान की निःस्वार्थ भाव से सेवा करता है और कितना भी संकट आ जाये वह भगवान से कुछ नहीं मांगता है। सच्चे भक्त को भगवान से मांगने की कभी जरुरत भी नहीं होती। भगवान स्वयं अंतर्यामी हैं, वे इस भक्त का सुख - दुःख समझते हैं और संकट आने पर उसकी सहायता करते हैं । मुनि से भी कभी आशीर्वाद मत मांगो। आशीर्वाद अपने आप ही मिलता है। सच्ची श्रद्धा से गुरु को नमस्कार करना ही आशीर्वाद है । यदि कर्म करो तो उसके फल की इच्छा मत रखो। सशर्त नियम लेना जुआ होता है। कभी भी परमात्मा के सामने शर्त रखकर कोई नियम मत लेना। मंदिर आना, प्रवचन सुनना धर्म नहीं है, संकट आने पर भी अपने नियम पर अडिग रहना यह धर्म है। नियम के फल आसानी से नहीं मिलते, नियमों के प्रति समर्पित होना पड़ता है। नियम लेते ही तुम्हारी परीक्षा चालू हो जायेगी। मानव अपने प्राण बचाने के लिए अण्डे और कौवे का मांस भी खाने को तैयार हो जाता है। ऐसे, नियमों को तोड़ने से नियम का अतिशय नहीं मिलता। जिस नियम का दृढ़ साहस के साथ पालन किया जाय उसी का फल मिलता है। प्राण जाये पर वचन न जाये तभी नियम का फल मिलेगा।
भगवान राम ने धर्म की रक्षा के लिए दर-दर की ठोकरें खाईं। सीता ने धर्म की रक्षा के लिए रावण की पत्नी बनना स्वीकार नहीं किया। सीता को जब राम ने अयोध्या से निकालकर वन में भेजा तो सीता ने राम को अभिशाप नहीं दिया बल्कि यह सन्देश भेजा कि राम ने दूसरे के बहकावे में आकर मुझे तो छोड़ दिया लेकिन दूसरे के बहकावे में आकर कहीं धर्म न छोड़ दें। मुनि श्री सुधासागर जी ने बताया कि भगवान राम सीता को चाहते थे, इस पर प्रश्न चिह्न है, लेकिन सीता, राम को अवश्य चाहती थीं। इसलिए नाम लेते समय सीता का नाम पहले आता है, राम का नाम बाद में। आपने बताया कि मानव का नियम है कि जब
करम करीमा लिखि रहा, अब कछु लिखा न होय । मासा घटै न तिल बढ़े, जो सिर पटके कोय ॥
फरवरी 2004 जिनभाषित
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' पूज्य और पूजा' पर विचार व्यक्त करते हुए मुनिश्री ने कहा कि तुम पूज्य बन जाओ, सबसे अच्छा है। किन्तु जब तक तुम भगवान न बन पाओ तब तक तुम भक्तपने का सहारा नहीं छोड़ देना, नहीं तो मरकर नरक, निगोद चले जाओगे। पूरा का पूरा संसार दोनों रास्तों से भटका है, न तो पूज्य बन रहा है, न पूजा कर रहा है। पूज्य बनना है तो हम कर्म के भरोसे न बैठें। कर्म को हटाने का प्रयास करें, तो अपने आप सन्मार्ग पर आ जायेंगे। पूज्य नहीं बन पा रहे हो तो पूजा करो। आज तक जितने जीव भगवान बने हैं वे सब भक्त बनकर ही भगवान बने हैं। भगवान के समक्ष जाकर आप देखना, न आपको राग होगा, न द्वेष होगा। ऐसा प्रतीत होता है कि कुछ अलौकिक दृश्य है। भक्त भगवान को एक ही रूप में पकड़ सकता है, जब वह भावना भाए
तव पादौ मम हृदये तव हृदयं तव पदद्वये लीनं । तिष्ठतु जिनेन्द्र तावद् यावन्निर्वाणि सम्प्राप्तिः ॥ प्रत्येक व्यक्ति को चाहिए कि मोह की ग्रन्थियाँ छोड़े, प्रभु से नाता जोड़े। राग-द्वेष की श्रृंखलायें जिस घर में पड़ती हैं, सम्यग्दृष्टि उसे अपना घर नहीं मानता। श्रद्धान में, स्वभाव में, ज्ञान की अपेक्षा यदि कोई पूछे, तो वह कहता है कि ये जेलखाना है। जेल में पड़ा हूँ, क्योंकि मैंने राग-द्वेष, मोह और कषाय रुप अपराध किए हैं। जब तक मैं अपराध करता रहूँगा, तब तक ये जेल छोड़ना भी चाहूँ तो छूटने वाली नहीं है।
कबीर के दोहे
संकलन- डॉ. नरेन्द्र कुमार जैन निदेशक पार्श्व ज्योति मंच, सनावद (म.प्र.)
विश्वासी है गुरु भजै, लोहा कंचन होय । नाम भजै अनुराग ते, हरष शोक नहीं होय ॥
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