________________
नदी की सीख
दुनियाँ में सीख सिखाने वाले बहुत से पदार्थ हैं पर हम सीखना जब चाहें तो सीख सकते हैं। वरना वे तो अपना संदेश विखेर मानवता को कर्तव्य का बोध करा ही रहे हैं। चाहे वह जल हो, अग्नि हो या पृथ्वी, वनस्पति, वायु इन्हें जैन- दर्शन में एक इन्द्रिय का धारक कहा गया है। जो स्पर्शन इन्द्रिय के द्वारा सुखदुख का अनुभव करते हैं।
यहाँ पर हम नदी के जल की बात कहने जा रहे हैं। जब कभी में नदी के तट पर जाता तो नदी का जल, उसमें पड़े हुए कंकड़-पत्थर कुछ न कुछ सीख हमें देते ही रहते हैं। वह बात इस प्रकार है, कि जब मैं नदी के तट पर प्रथम दिन पहुँचा, तो मैंने पाया नदी खाली है, बहुत कम पानी है, रेत स्पष्ट दिख रहा है, पत्थर अलग दिखाई दे रहे हैं, तट भी देखने में आ रहा है। तो मैंने सोचा, इसीप्रकार यदि आदमी का जीवन बुराइयों से खाली हो जाता है, तो अच्छाइयाँ स्पष्ट दीखने लगती हैं। जिस प्रकार नदी में कम पानी रहने पर नदी के अन्दर की वस्तुएं स्पष्ट दिखने लगती हैं। मैं देखकर, सोचता हुआ चला आया। लेकिन पुनः नदी जाना हुआ, तो नदी को पानी से भरा हुआ पाया। न अब तट का ही पता था न ही रेत, पत्थर कुछ भी नहीं दिख रहा था, बस पानी ही पानी वो भी वेगमयी-गतिमान बहुत जल्दी में चला जा रहा था, लेकिन वह भी गन्दा था। फिर मेरे मन में विचार आया स्वच्छ पानी में गन्देपन का कारण पानी का वेग है। क्योंकि वह ऊंचाई को छूना चाहता है और जल्दी से सागर में मिलना चाहता है। इसीलिए वर्षा के गतिमान पानी से हर कोई बचना चाहता है। इस दृश्य को देखकर ऐसा विचार आया कि इस पानी ने सारी बुराइयों को अपने में मिला लिया है। इसीलिये इस प्रकार के पानी से प्रत्येक आदमी को डर लगता है। और दूर रहकर देखना चाहता है, पास कोई आना नहीं चाहता क्योंकि इस पानी की कोई मर्यादा, सीमा नहीं होती है यह तो डुबाने का ही कार्य करता है । इसप्रकार नित्य प्रतिदिन की भांति पुनः नदी जाना हुआ तो पानी को स्वच्छसंयत पाया तो मन में विचार क्रम चल पड़ा कि यह तो योगी की भांति शांत-संयत है। जैसे ब्रह्मचर्य के प्रभाव से योगी के देह में कांति - कंचन सी चमक आ जाती है और जग की आस्था का दर्शन बन जाता है, ऐसे ही उज्ज्वल स्वच्छ जल से प्रतिभाषित हो रहा था। और गन्दे पानी को देखकर ऐसा लगा जैसे बालक का स्वभाव चंचल होता है, ठीक ऐसा ही गन्दे पानी में देखने में आया। जैसे बालक उछल-कूद में माहिर होता है, ऐसे ही वर्षा का गन्दा जल उछल कूद से परिस्पूर्ति रहता है। पानी में गन्दापन, मटमैलापन, कूड़ा, कचरा जो देखने में आता वह पानी का
Jain Education International
मुनि श्री चन्द्रसागर जी
विकार है और स्वच्छ उज्ज्वल जल निर्विकार अवस्था का प्रतीक है, निर्विकार की दुनिया पूजा करती है, तो विकारी को ठुकरा देती है । अब याद रखना क्या ध्यान देने की बात है। पानी में गन्दापन इस बात का संकेत देता है कि पानी में पाप घुल-मिल गये हैं इसीलिये यह गन्दापन देखने में आ रहा है। जब यही जल कंचन - स्वच्छ देखने में आता है तो मन में विचार आता है पानी निष्पाप हो गया है। ऐसे ही आदमी का जीवन निष्पाप मय हो जाये तो उसके चरण की पूजा ही तीर्थ का धाम बन बैठती है । गन्दे पानी का कोई भी प्रयोग करना पसन्द नहीं करता न वर्षा के समय नदी के घाट पर बार-बार आना जाना पसंद करता है और जब वही पानी साफ-सुथरे गुणों से परिपूरित हो जाता है फिर उसका दैनिक जीवन में प्रयोग हो जाता है। जैसे कि स्नान करना, पीकर प्यास बुझाना, वस्त्र साफ करना आदि क्रियाओं में प्रयोग लाना हो । गन्दे पानी के प्रति लोगों में घृणा के भाव आ जाते हैं और स्वच्छ-धवल जल के प्रति प्रेम-भाव, चाहत - प्रीति देखने में आती है।
पानी रे पानी तेरा रंग कैसा
जिस में मिलादो लगे उस जैसा
पानी जब अवगुणों से परिपूरित हो जाता है तो नफरत के अलावा कुछ भी उसे नहीं मिलता। यह बाह्य पदार्थों से प्रभावित होने के कारण ऐसा होता है। इस कारण उसे अपने निज तत्त्व गुण को खोना पड़ता है। और मिट्टी, रेत धूलादि मिलने के कारण विकृत हो जाता है। इसलिये पानी का रंग उसमय माना जाता है। अतएव मूल रंग का पता ही नहीं चलता है। ऐसे ही पर पदार्थ, बाह्य-वस्तु के आकर्षण से संसार की परिधी (घेरा) बढ़ता चला जाता है। पानी को देखकर जीवन जीने की धारा में परिवर्तन लाया जा सकता है। दुनिया के प्रत्येक पदार्थ कुछ न कुछ शिक्षा देते हैं विकास चाहने वाला शिक्षा ग्रहण कर लेता है ।
इस प्रकार पुनः नदी गया तो नदी में पहले की अपेक्षा कुछ कम पानी था, कुछ पत्थर स्पष्ट दिख रहे थे । एक लाल पत्थर, दूसरा सफेद पत्थर, तीसरा काला पत्थर । लोग लाल पत्थर को श्रद्धा से नमन करते, सफेद पत्थर को गोरे वदन को देखकर प्रेम करते, काले को काला-कलूटा कहकर पैरों से ठुकरा देते और द्वेष करते, लोगों को देखा। कहने का मतलब यह है कि एक इन्द्रिय, जहाँ केवल स्पर्शन इन्द्रिय मात्र फिर भी लोग उससे रागद्वेष करते हैं। ऐसी घटना तब घटित होती है जब विवेक का स्तर गिर जाता है तब परम धाम की यात्रा रूक जाती है।
इसी क्रम में जब नदी पर गया तो घाट पर जाकर बैठ गया
फरवरी 2004 जिनभाषित 9
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org