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जिज्ञासा - समाधान
प्रश्नकर्ता श्री सविता जैन, नन्दुरवार जिज्ञासा- तीर्थंकरों को मन:पर्ययज्ञान कब होता है ? समाधान- मन:पर्ययज्ञान गृहस्थ अवस्था में नहीं होता । यह छठे से १२ वे गुणस्थानवर्ती मुनियों के ही पाया जाता है 'देखें धवला पुस्तक १ पृष्ठ ३६६ ' अतः तीर्थंकरों के गृहस्थ अवस्था में मन:पर्ययज्ञान नहीं होता।
श्री उत्तरपुराण पृष्ठ २३ पर इस प्रकार कहा है
दीक्षां षष्टोपवासेन जैनीं जग्राह राजभिः । सहस्त्रसंख्यैर्विख्यातैस्तादाप्तज्ञानतुर्यकः ॥ ५३ ॥ अर्थ- तीर्थंकर अभिनन्दन नाथ ने वेला का नियम लेकर एक हजार प्रसिद्ध राजाओं के साथ जिनदीक्षा धारण कर ली। उसी समय उन्हें मन:पर्ययज्ञान उत्पन्न हो गया ।
इस आगम प्रमाण से स्पष्ट है कि तीर्थंकरों के दीक्षा लेते ही मन:पर्ययज्ञान उत्पन्न हो जाता है। इतना विशेष है कि सप्तम गुणस्थान होने के साथ ही मन:पर्ययज्ञान नहीं होता क्योंकि मन:पर्ययज्ञान से पूर्व अन्तर्मुहूर्त काल तक सकल संयम की साधना आवश्यक निमित्त है।
जिज्ञासा- क्या उपशम श्रेणी पर चढ़ा जीव मरण को प्राप्त हो सकता है। जबकि मरण तो केवल १-२ और ४ गुणस्थान ही है तथा क्या ऐसे मुनिराज मरण कर अनुदिश व अनुत्तरों में ही जन्म लेते हैं या अन्य स्वर्गों में भी ?
समाधान- किन गुणस्थानों में मरण नहीं होता, इस संबंध में गोम्मटसार कर्मकाण्ड में इस प्रकार कहा है
मिस्साहारस्स य खवगा चडमाडपढमपुव्वा य । पढमुवसम्मा तमतमगुडपडिवण्णा य ण मरति ॥ ५६०॥ अणसंजोजिदमिच्छे मुहुत्तअंतं तु णत्थि मरणं तु । किद करिणिज्ज जाव दुसव्वपरट्ठाण अट्ठपदा ॥ ५६१ ॥ अर्थ- मिश्रगुणस्थानवर्ती, आहारक मिश्र काययोगी, क्षपक श्रेणी वाले, उपशम श्रेणी चढ़ते हुए, अपूर्वकरण गुणस्थान के प्रथम भागवर्ती, प्रथमोपशम सम्यक्तवी, सप्तम नरक के द्वितीय, तृतीय और चतुर्थ गुणस्थानवर्ती जीव मरण को प्राप्त नहीं होते । अनन्तानुबंधी का विसंयोजन कर मिथ्यात्व को प्राप्त जीव का अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त मरण नहीं होता तथा दर्शनमोहनीय का क्षय करने वाला जीव कृत-कृत्य वेदी होने तक मरण को प्राप्त नहीं होता।
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पं. रतन लाल बैनाड़ा
उपरोक्त प्रमाण के अनुसार उपशम श्रेणी चढ़ने वाले जीव, अपूर्वकरण के प्रथम भाग में मरण को प्राप्त नहीं होते, उपशम श्रेणी में अन्यत्र मरण संभव है । इसीलिए तो श्री धवला पु. २, पृष्ठ ४३० पर इस प्रकार कहा है
चारित्तमोहउवसामगा मदा देवेसु उववज्जंति ।
अर्थ- चारित्रमोह का उपशम करने वाले जीव मरते हैं तो देवों में उत्पन्न होते हैं। कुछ महानुभावों की ऐसी धारणा है कि ऐसे मुनिराज मरण समय चौथे गुणस्थान को प्राप्त होकर शरीर छोड़ते हैं। पर वह धारणा ठीक नहीं है। उपरोक्त कर्मकाण्ड की गाथा के अनुसार उपशम श्रेणी के गुणस्थानों में मरण होना यह बताता है कि वे मुनिराज अंतिम समय तक उसी गुणस्थान में रहते हैं अर्थात् मनुष्य पर्याय के अंतिम समय तक तो उपशम श्रेणी के उसी गुणस्थान में रहते हैं और अगले समय में अर्थात् देवायु के प्रथम समय से (विग्रहगति में भी) चतुर्थ गुणस्थान में आ जाते हैं।
उपशम श्रेणी में मरण करने वाले जीव उत्कृष्ट से सर्वार्थसिद्धि पर्यन्त अनुत्तर विमानों में और जघन्य से, सौधर्म, ईशान स्वर्ग में उत्पन्न होते हैं । तत्त्वार्थसूत्र अध्याय ९, सूत्र ४७ की व्याख्या करते हुए आचार्य पूज्यपाद ने कषाय कुशील एवं निर्ग्रन्थों का उपपाद (जन्म) उत्कृष्ट से सर्वार्थसिद्धि और जघन्य से सौधर्मकल्प के देवों में लिखा है। उक्तं च 'कषाय कुशीलनिर्ग्रन्थयोस्त्रयस्त्रिंशत्सागरोपम-स्थितिषु सर्वार्थसिद्धौ । सर्वेषामपि जघन्यः सौधर्मकल्पे द्विसागरोपमस्थितिषु ।'
यह भी विशेष है कि कुछ स्वाध्यायीजन तत्त्वार्थसूत्र अध्याय ९, सूत्र ४६ 'पुलाकवकुशकुशीलनिर्ग्रन्थस्नातकाः निर्ग्रन्थाः ' का अर्थ करते समय १२वें गुणस्थानवर्ती क्षीणकषाय क्षपकों को ही निर्ग्रन्थ के अन्तर्गत मानते हैं। वह मानना उचित नहीं है ।
११ वें तथा १२ वें दोनों गुणस्थानवर्ती मुनिराज निर्ग्रन्थ के अन्तर्गत मानना योग्य है। क्योंकि जब आ. पूज्यपाद ने उपरोक्त टीका में निर्ग्रन्थों के उपपाद का वर्णन किया है, तो वह उपपाद मात्र ११ वें गुणस्थानवर्ती उपशांत मोह मुनिराजों का ही संभव है। क्षीणमोह १२ वें गुणस्थानवर्ती मुनियों का तो उपपाद होता ही नहीं, मात्र निर्वाण होता है ।
प्रश्नकर्ता - कामताप्रसाद जैन, मुज्जफरनगर जिज्ञासा - तिर्यंचनी, मनुष्यनी तथा देवियों को अवधिज्ञान
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फरवरी 2004 जिनभाषित 25
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