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अनुपम साधक मुनि स्व. श्री प्रवचनसागर जी
डॉ. सुमन जैन
मोक्षगामी सुपथ की भव्य जीवात्माओं की देह का विसर्जन । प्राप्त किया। यह उनकी कठिन ज्ञान/तप साधना का ही परिणाम ऐसा ही हुआ करता है, जैसा मुनि प्रवचनसागर की देह का | था जो सल्लेखना से अंतिम क्षण तक दिखायी दिया। हुआ। जिसे एक पुद्गल जड़ पिंड माना जाता है जिसका त्याग | भावलिंगी श्रमण के जो लक्षण मुनिचर्या में दृष्टिगोचर होते होश पूर्वक किया जाता है, जिसे आत्मा से पृथक मान कर किया | हैं वे समस्त लक्षण उनकी शारीरिक अस्वस्थता के बाबजूद भी जाता है। जिसका आत्मा से प्रथक होने पर महोत्सव के रूप में | संयम के लक्षण ही दिखाई दिये एवं किंचित क्षण भी असंयमी के मनाया जाता है।
समान उनके शरीर में कोई भी प्रतिक्रिया नहीं दिखाई दी। वे परमपूज्य मुनिश्री प्रवचनसागर जी युग निर्माता परम पूज्य | अपने जिन लिंग की रक्षा हेतु यत्नाचार पूर्वक मन-वचन-काय से आचार्य श्री विद्यासागर जी के अद्वितीय शिष्य थे। वे अत्यन्त ध्यान/साधना करते रहे। गंभीर एवं प्रखर प्रज्ञा के धनी थे, उनकी मुनिचर्या चौथे काल के | मुनिश्री जी ने अत्यन्त अस्वस्थ होने पर किसी भी प्रकार मुनियों जैसी ही थी। उन्होंने 'यथा गुरु तथा चेला' वाली कहावत | की औषधि लेने से मना किया एवं उन्होंने स्पष्ट मना करते हुये को पूरी तरह से चरितार्थ किया। उनकी चारित्रिक दृढ़ता एवं ज्ञान | कहा था कि 'प्राण जाएँ पर प्रण न जाहि' वाली कहावत को की गंभीरता जीवन के अंतिम क्षण तक देखने को मिल रही थी। | चरितार्थ करूँगा और अपने गुरु चरणों में यही भावना व्यक्त की वास्तव में जब से उन्होंने अपने गुरु चरणों में साधक का जीवन | कि 'हे आचार्य गुरुदेव मुझे अपने कर्मों की निर्जरा करना है प्रारंभ किया था, तभी से उनकी जीवन चर्या/मुनि चर्या चौथे काल | इसलिये मैं अपनी मुनिचर्या को किंचित मात्र भी विचलित नहीं के भावलिंगी मुनियों जैसी व्यवहारिक रूप से परिणित थी, करूँगा, क्योंकि सबसे श्रेष्ठतम सम्पत्ति रूप रत्नत्रय धर्म मेरे पास जबकि उनका शरीर तो पंचम काल का ही था। अत्यधिक तीव्र | विद्यमान है।' वास्तव में उनकी पवित्र आत्मा तो रत्नत्रय रूपी पुण्य होने के कारण इस मनुष्य जीवन में उन्होंने उत्कृष्ट चारित्र | कवच से आवेष्टित थी अतः अस्वस्थता का प्रभाव आत्मा तक के धनी, प्रखर ज्ञानी आध्यात्म वेत्ता विश्व संत श्री आचार्य | नहीं पहुँच सकता था। विद्यासागर जी महाराज का शिष्य बनने का सौभाग्य प्राप्त किया लगभग ढाई माह कैसे निकल गये यह पता ही नहीं
और जिन्होंने मुनिधर्म/मुनिचर्या का चट्टान की तरह अडिग | चला और उनकी आत्म चेतना में कर्मों की निर्जरा लगातार चलती रहकर पालन किया और अपने मानवीय जीवन को सफल बनाया। | रही। मुनिश्री जी ने सल्लेखना के समय अपनी सम्पूर्ण देह से
१६ अक्टूबर सन् १९९७ शरद पूर्णिमा को परमपूज्य | प्राणों को शनैःशनैः समेट कर केवल आत्म केन्द्रित कर लिया था आचार्य जी के चरणों में उनके ही कर कमलों से दीक्षा पाकर | और जैसे-जैसे उनके जीवन के अंतिम दिन निकट आते जा रहे थे ब्रह्मचारी चन्द्रशेखर का मुनि प्रवचनसागर के रूप में एक साधक | वैसे-वैसे उनकी निजात्मा प्रभु एवं गुरु चरणों में तल्लीनता निरंतर का जन्म हुआ। (जबकि ब्रह्मचर्य व्रत २९ नवम्बर १९८७, | बढ़ती जा रही थी। मुनि श्री आयु एवं शरीर से अवश्य ही युवा थे क्षुल्लक दीक्षा २० अप्रैल १९९६ तारंगाजी एवं ऐलक दीक्षा २९ | परन्तु तपस्या, ज्ञान, साधना में अत्यधिक परिपक्व हो गये थे। दिसम्बर १९९६ जूनागढ़ (गुजरात) में हुई थी) २९ नवम्बर । गुरुवर्य आचार्यश्री ने मुनिश्री प्रवचनसागर जी की आत्मिक १९६० को जन्म लेकर पिता श्री बाबूलाल जी एवं माता श्रीमती | चेतना में तप, ज्ञान, साधना, संयम का जो पौधा रोपा था उस पौधे फूलरानी (बेगमगंज, जिला-रायसेन, म.प्र.) की छत्रछाया में | को मुनिश्री कठिनतम तप/साधना एवं ज्ञान के जल से निरन्तर २७ वर्षों तक उनके मन में उच्चकोटि के साधक बनने की भावना | सींचते रहे जिससे वह पौधा विशाल आकार रूप में पल्लवितपुष्ट होती रही। २९-११-०३ को उनकी पवित्र आत्मा इस नश्वर पुष्पित हुआ और अपनी सौरभ से सभी दिशाओं को सरभित कर देह से मुक्त हुई। मुनि श्री ने लगभग १६ वर्षों में कठिन तपस्या दिया। आचार्य जी ने अपनी कुशल प्रज्ञा रूपी छैनी से एक ऐसी कर अपने अनेक पूर्व भवों के कर्मों का प्रक्षालन कर लिया था | भव्य मूर्ति में प्रवचनसागर जी को गढ़ दिया था जिसमें सत्यम, और अपनी आत्मा को इतना निर्मल स्फटिक जैसा बना लिया था | शिवम, सुंदरम् के दर्शन हो रहे थे। वर्तमान समय में मुनि श्री कि उस आत्मिक चेतना की ज्योति से अनेक प्राणियों ने प्रकाश | प्रवचनसागर जी की सल्लेखना समाधि मरण 'सर्वजन हिताय'
- फरवरी 2004 जिनभावित 15
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