Book Title: Jinabhashita 2004 02
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 16
________________ आदर्श जीवन, आदर्श मृत्यु ब्र. अन्नू जैन जीवन हर पल गतिमान रहता है, जहाँ रुकावटें या ठहराव | मुस्कान के साथ सुभाशीष दिया। आता है वहाँ जीवन समाप्त हो जाता है। यही कारण है कि शरीर कृश हो रहा था पर आत्मा उत्तरोत्तर आध्यात्मिक प्रत्येक व्यक्ति यात्रा पर है, आप, मैं, हम सभी। और तलाश में है | चिन्तन में सरावोर थी। उनकी परीचर्या में लगे ब्रह्मचारी रानू जी ने अपनी-अपनी मंजिल की। मनुष्य को इसकी खबर नहीं कि जो | उनके हाथों से पिच्छि छुड़ाने का प्रयास किया पर उन्होंने पिच्छिका सांस वह अन्दर ले रहा है वह उसे बाहर निकाल पायेगा या | को नहीं छोड़ा ये होती है अपने आदर्शों के प्रति निष्ठा । अपनी चर्या नहीं। आकाश में उड़ रही पतंग जाने कब कट जाये और सांसों के प्रति समर्पण । इसी दौरान ब्रह्मचारी जी ने समयसार की गाथाओं की डोर हवा में ही रह जाये। का उच्चारण विनोद पूर्वक अशुद्ध किया, तपोनिष्ठ साधक ने हाथ 'श्वासों का क्या ठिकाना रूक जाये चलते-चलते।। उठाकर इशारा किया कि गाथा अशुद्ध है। ब्रह्मचारी जी ने विनय शनी भी बझ जाये जलते-जलते॥ | पूर्वक कहा आप ही शुद्ध पढ़ें तो मुनिश्री ने घडी की ओर इंगित सजा सको तो ख्वाहिशों का कारवां सजालो। किया अर्थात् अभी रात्रि है और साधक रात्रि में नहीं बोलते। ये है ओस की ये उम्र है खो जाये गलते-गलते॥' | पूर्ण सजगता का प्रतीक। ऐसे ही जीवन में मृत्यु अवश्यंभावी है, पर इसका समय मैंने विचार किया चर्या के प्रति जागरुकता और संयम के सुनिश्चित नहीं। अतः जन्म और मृत्यु के मध्य जो अंतराल है | प्रति उत्साह ये एक दिन की साधना नहीं वरन् सम्पूर्ण जीवन की उसमें जीवन के रहस्यों का उद्घाटन हो जाये तो जीवन जन्म और | साधना है, तपस्या है। ये गुरु से विरासत में मिले हुये संस्कार हैं, मृत्यु से भी महत्वपूर्ण हो सकता है। फूल का खिलना मूल्यवान जो उन्हें क्रश काया के बाद भी मुक्ति पथ पर गतिमान कर रहे हैं। नहीं है, मूल्यवान उसका कली से फूल बनने के बीच अपने | जैसे कोई योद्धा प्रारम्भ से युद्ध कौशल में निष्णात हो तो युद्ध क्षणों वातावरण को सुवाषित करना। ठीक उसी प्रकार जन्म और मृत्यु | में उसकी विजय सुनिश्चित है उसी प्रकार साधक की प्रारम्भ से के बीच का जीवन कैसे जिया जाये यह महत्वपूर्ण है। की हुई साधना अन्तिम लक्ष्य 'समाधि' को प्राप्त करा ही देती है। मनुष्य जीवन महज कोई लकड़ी का टुकड़ा नहीं जो नदी | प्रात: मुनि श्री समतासागर जी, मुनि श्री प्रमाणसागर जी, में यूँ ही बहता जाये या पेड़ का पत्ता नहीं जो हवा में यूं ही उड़ता | मुनिश्री निर्णयसागर जी व ऐलक श्री निश्चयसागर जी महाराज जाये। जीवन में सचेतन लक्ष्य होना चाहिये ताकि हम उस जीवन | समाधिस्थ साधु के पास पहुंचे। मुनिश्री प्रमाणसागर जी महाराज को आदर्श जीवन कह सकें। हम अपने गंतव्य पर कैसे जा रहे हैं, I ने 'दिन रात मेरे स्वामी मैं भावना ये भाउँ देहान्त के समय में हंसते हुये या रोते हुये। रोते हुये जाने वालों का जीवन असफल | तुमको न भूल जाऊँ।' इन वैराग्यप्रद पंक्तियों के साथ आध्यात्मिक किन्तु संघर्ष को सहर्ष स्वीकार कर हंसते हुये अपने गन्तव्य को | समय सारीय सम्बोधन देते हुये कहा 'महाराज श्री आपका स्वास्थ्य प्राप्त करने वालों का जीवन सफल और आदर्श मय होता है। | चरम सीमा पर है आपके आहार-पानी के त्याग का अवसर आ ऐसा ही जीवन था पूज्य मुनिश्री प्रवचनसागर जी महाराज | गया है आप अपने उत्साह को बढ़ाकर सब कुछ त्याग करदें।' का उन्हें ज्ञात था कि मनुष्य का सबसे बड़ा सृजन स्वयं का उस समय मुनिश्री प्रवचनसागर जी बोलने की स्थिति में नहीं थे। निर्वाण है। अतः उन्होंने प्रत्येक क्षण साधना की ओर विकासोन्मुख | पर मैंने देखा उन्होंने दृढ़ता पूर्वक अपने दोनों हाथ उठाकर इशारे होते हुये अपने में पूर्णता लाने का प्रयास किया और यही जीवन से कहा कि मैं सबका प्रत्याख्यान आजीवन करता हूँ। आत्म जीने की कला है, आदर्श जीवन है। साधक जब साधना की | साधना की इस जाग्रति को देखकर मैं अभिभूत हो गया। अल्प गहराई में पहुँच जाता है तब उसे बाहर का कुछ भी भान | बाद में मैंने मुनिश्री प्रमाणसागर जी महाराज से उनके नहीं रहता, वह अपने में इतना समा जाता है, शरीर की ओर | भावों की पराकाष्ठा के विषय में पूछा तो मुनिश्री ने कहा 'उनके उसका ध्यान ही नहीं जाता। उन्हें भान हुआ कि शरीर रूपी | परिणाम तो ऐसे हैं जो श्रुत केवलीयों को भी दुर्लभ हैं।' धन्य हैं बाहरी महल रोग के कारण खण्डहर हो रहा है तो अब आत्मिक | ऐसे साधक जिन्होंने अपने तन को चैतन्य मंदिर बना लिया। अपने महल के निर्माण में संलग्न होना होगा अर्थात् समाधि की साधना | जीवन को आदर्श जीवन और मृत्यु को महोत्सव बना लिया। मैं ही श्रेष्ठ है। समाधिस्थ मुनि प्रवचनसागर जी के चरणों में विनयांजलि अर्पित जैसे ही यह चर्चा विद्युत गति से फैली कि मुनिश्री करते हुये ईश्वर से प्रार्थना करता हूँ कि ऐसे उत्कृष्ठ भाव और प्रवचनसागर जी समाधि की ओर अग्रसर हैं तो मैं भी वैराग्य ! शांति सबको प्रदान करें ताकि सबका जीवन कल्याण पथ पर जनक साधना के दर्शनार्थ कटनी पहुँचा और उनके संनिधी में बढ़ता रहे। ओम शांति। जाकर नमोस्तु किया। जैसे ही नमोस्तु के शब्द उनके कानों पर पुण्य वर्धनी पड़े उन्होंने हमारी ओर दृष्टिपात किया और चेहरे पर मंद-मंद मेन रोड, शहपुरा (भिटौनी) 14 फरवरी 2004 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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