Book Title: Jinabhashita 2004 02
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 18
________________ एवं 'सर्वजन सुखाय' का संदेश प्रदान करती है जो सभी मानवों पूज्य गरुदेव के श्रीचरणों में प्रतिदिन का बार-बार को एक महनीय, श्लाघनीय एवं अनुकरणीय उदाहरण है। नमोस्तु....' आपकी आज्ञानुसार कटनी तक पहुँच गये हैं, मेरे इस धरा के अद्वितीय सूर्य परम पूज्य आचार्य श्री विद्यासागर स्वास्थ्य के बारे में महाराज जी ने लिख ही दिया है। कमर के जी गुरुवर्य (वात्सल्यमयी माता) के चरण कमलों में अपने आपको नीचे का भाग शून्य सा हो गया है चार लाइन लिखने में भी कष्ट सम्पूर्ण रूप में समर्पित कर दिया था और तभी से मुनि श्री ज्ञान, का अनुभव कर रहा हूँ। मेरी आपके श्री चरणों में प्रार्थना है मझे तप/साधना एवं मुनिचर्या में ऐसे लिप्त हो गये थे कि उन्होंने अपने पास बुलाकर, मरण को जीतने वाले समाधिमरण पूर्वक इस अपनी आत्मा एवं शरीर को पूरी तरह से अलग-अलग कर लिया | नश्वर देह का विसर्जन आपके ही श्री चरणों में करना चाहता हूँ। था और अपनी आत्मिक चेतना में ऐसे तल्लीन हो गये थे कि पराधीन चर्या कितने दिन तक चलेगी। आशा है मेरी अर्जी स्वीकार शरीर में कुछ व्याधियाँ भी हो रहीं थीं उनका भी उनको आभास होगी। विगत जीवन में किये अपराधों का आपसे एवं वात्सल्य नहीं होता था क्योंकि उनकी आत्मा देह से पूरी तरह से विरक्त हो भाव रखने वाले सभी साधुओं से क्षमा प्रार्थना।' चुकी थी जिससे जीवन के अंतिम क्षणों में भीषण शारीरिक जिनवाणी माता को अपनी आत्म चेतना में पूरी तरह से परिषह को बड़े शांत/गंभीर परिणामों द्वारा सहन किया। उनके आत्मसात कर लिया था। निरन्तर साधना में तल्लीन रहने वाले दर्शन से ऐसा प्रतीत नहीं होता था कि उनको इतना भीषण/असहनीय | मुनिश्री जी की आत्मा पूर्णिमा की धवल चांदनी की तरह देदीप्यमान कष्ट हो रहा है। जब उनके जीवन के कुछ ही दिन शेष थे तब भी | हो रही थी। मनिश्री जिस उद्देश्य का संकल्प लेकर अपने गरुदेव उनका एक-एक क्षण आत्मानुभूति और गुरु चरणों की वंदना करने | के सान्निध्य में आये थे आज उसी साध्य की प्राप्ति हई। में व्यस्त था। उन्होंने सल्लेखना के समय श्री सम्मेदशिखर जी दिव्य आलोक से सुशोभित मुनिश्री जी की पवित्र आत्मा की प्रत्येक टोंक की हाथ में पिच्छी लेकर ३-३ बार आवर्त करके के पावन चरणों में अटट श्रद्धा सहित कोटिशः नमन/वंदन करती भाव वंदना की और अपनी अंतिम श्वांस प्रभु रूपी गुरु चरणों में | हँ एवं मनि श्री जी की भव्य जीवात्मा जहाँ पर भी हो हम श्रावकों समर्पित की। का कल्याण करे। जिस सुपथ/मोक्ष मार्ग की ओर स्वयं बढ़े हमको इस संसार में सब कुछ सुलभ है किन्तु महादुर्लभ है | भी उसी सन्मार्ग की ओर ले जायें और जब तक दिव्य ज्ञान की सुयोग्य पथ प्रदर्शक गुरु का आशीर्वाद। जिस तरह से: प्राप्ति ना हो जाये तब तक अपने आशीर्वाद के आलोक से रहकर भी अपनी किरणों की आभा से कमल खिला देता है उसी प्रकाशित करते रहें जिससे प्रत्येक प्राणी आपका अनुसरण कर तरह से मुनिश्री को अपने गुरुदेव का आशीर्वाद/ऑक्सीजन/प्राणवायु अपने जीवन से कर्मरूपी तम को दूर करने में सफल हो। हम मिल रही थी जिसका परिणाम था कि एक तरफ जहाँ उनके शरीर | सभी की सल्लेखना समाधि भी युगदृष्टा संत शिरोमणि परमपूज्य से असंभव कष्ट था वहाँ दूसरी तरफ इतनी अपूर्व शांति/समता आचार्य श्री विद्यासागर जी के चरण कमलों में हो, यही भावना उनके मुख कमल पर प्रदर्शित हो रही थी। दोनों सीमाएँ अपनी-| नित्य स्मरण करती हैं। जिस प्रकार से ध्रुवतारा दिग्भ्रमित जहाज अपनी पराकाष्ठा का स्पर्श कर रही थीं। जैसे वृक्ष की जड़ अपने को दिशा बोध कराने में सम्बल बनता है उसी तरह से हमारे फूल, पत्ते एवं टहनियों को अप्रत्यक्ष रूप से रस भेजती रहती है गुरुदेव हम सभी भटके मानवों का कल्याण करने में सम्बल बनें, उसी तरह से गुरुदेव अपने सभी शिष्यों की आत्म चेतना में रस यही विनती है, प्रार्थना है। पहुँचा रहे हैं। मुनि श्री प्रवचनसागर जी का जब स्वास्थ्य ज्यादा प्रोफेसर खराब होने लगा तब उन्होंने अपने गुरुवर्य को दो दिन पूर्व पत्र विभागध्यक्ष- अर्थशास्त्र शासकीय कला वाणिज्य महाविद्यालय लिखा, पत्र इस प्रकार था पी.टी.सी. के सामने, परकोटा, सागर (म.प्र.) सानोमय दर | जिनभाषित के लिए प्राप्त दान राशि १. चि. संदीप कुमार एवं आयु.आभा के विवाहोपलक्ष में श्री स्वरूप चन्द्र नरेन्द्र कुमार, रफीगंज (बिहार) द्वारा ५०/- रुपये प्राप्त । २. चि. अमित कुमार एवं आयु. पायल के विवाहोपलक्ष में श्री ताराचन्द्र जैन अडंगाबाद (पश्चिमबंगाल) द्वारा १००/- रुपये प्राप्त । ३. स्व. पं. चुन्नीलाल जी शास्त्री की ६ फरवरी को प्रथम पुण्यतिथि पर श्री अखिल बंसल, दुर्गापुरा, जयपुर (राजस्थान) द्वारा ५०/- रुपये प्राप्त। 16 फरवरी 2004 जिनभाषित -- - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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