Book Title: Jinabhashita 2004 02 Author(s): Ratanchand Jain Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra View full book textPage 6
________________ के संरक्षण का कार्य कराया जाय। दूसरे शब्दों में, उन्हें मुनि से मुनीम या चौकीदार बना दिया जाय। किन्तु इस कार्य के लिए एक मुनि का इतना अध:पतन कराने की क्या आवश्यकता है? पिच्छी-कमण्डलु और जिनमुद्रा का इस कदर चीरहरण करने की क्या जरूरत है? यह कार्य तो एक प्रबन्धकुशल, समर्पित, गृहस्थ या सप्तम-प्रतिमाधारी पिच्छी-कमण्डलुरहित ब्रह्मचारी भी आसानी से कर सकता है। 'मनुज' जी के उद्गार स्पष्ट कर देते हैं कि मुनि जयसागर जी को भट्टारकपीठ पर अभिषिक्त कर भट्टारक-परम्परा की पुनः स्थापना क्यों की गयी है? आर्यिका शीतलमति जी ने मुनि जयसागर जी का भट्टारक-पट्टाभिषेक शास्त्रसम्मत माना है, क्योंकि कुछ पन्नों में, जिन्हें उन्होंने शास्त्र कहा है, उन्हें भट्टारक-पदस्थापना विधि लिखी हुई मिली है। किन्तु उन्होंने यह नहीं बतलाया कि इस शास्त्र का कर्ता कौन है और यह कब लिखा गया है? उक्त लघु पुस्तिका में उस ९ पृष्ठीय (पृष्ठ ६९ से ७७) हस्तलिखित शास्त्र की छाया-प्रतिलिपि निबद्ध की गयी है, किन्तु उसमें न तो शास्त्रकर्ता का नाम है, न ही लेखन काल का उल्लेख । इसलिए वह सन्देह को जन्म देती है। यदि इस तथ्य की उपेक्षा कर दी जाय, तो भी उक्त हस्तलिखित शास्त्र में दी गई भट्टारक-पदस्थापना-विधि आगमोक्त सिद्ध नहीं होती। इसका निर्णय करने के लिए उक्त विधि के कुछ प्रासंगिक अंशों का मूलपाठ प्रस्तुत किया जा रहा है १."लध्वाचार्यपदं सकलसङ्घाभिरुचितम्। ऐदंयुगीनश्रुतज्ञं जिनधर्मोद्धरणधीरं रत्नत्रयभूषितं भट्टारकपदयोग्यं मुनिं दृष्ट्वा चतुर्विधसङ्घः सह आलोच्य लग्नं गृहीत्वा सकलोपासकमुख्यः सङ्घाधिपः सर्वत्रामन्त्रणपत्रीं प्रेषयेत्।" ___ अर्थ- लघु आचार्य का पद समस्त संघ को प्रिय है। जो मुनि इस युग का श्रुतज्ञ, जिनधर्म का उद्धार करने में समर्थ, रत्नत्रय से भूषित एवं भट्टारकपद के योग्य हो, उस मुनि को खोजकर चतुर्विध संघ के साथ विचार-विमर्श करके, शुभमुहूर्त में सभी श्रावकों का मुखिया संघपति सब जगह आमन्त्रणपत्र भेजे। २. "अथाह्वानादिविधिः । ऊँ हूँ णमो आइरियाणं धर्माचार्याधिपते परमभट्टारक-परमेष्ठिन्नत्र एहि एहि संवौषट् । अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः । ... अत्र सन्निहितो भव-भव वषट्। इति आह्वानादिकं कृत्वा ततश्च ऊँ हूँ णमो आइरियाणं धर्माचार्याधिपतये सकलश्रुताम्बुधिपारप्राप्ताय परमभट्टारकाय नमः।" अर्थ- अब आह्वानादिविधि का वर्णन किया जाता है। ऊँ हूँ णमो आइरियाणं, हे धमाचायार्यधिपति! परमभट्टारकपरमेष्ठी ! यहाँ आइये, यहाँ आइये। .... यहाँ विराजिए, यहाँ विराजिए। यहाँ पास में स्थित होइये, पास में स्थित होइये। इस प्रकार आह्वानादि करके (पण्डिताचार्य) ॐ हूँ णमो आइरियाणं, धर्माचार्याधपति, समस्त श्रुतसागर के पार को प्राप्त परमभट्टारक को नमस्कार' (ऐसा कहे)। ३. "ततः शान्ति-भक्तिं कृत्वा गुर्वावलिं पठित्वा श्रीमूलसङ्के नन्दिसङ्के सरस्वतीगच्छे बलात्कारगणे श्रीकुन्दकुन्दान्वये अमुकस्य पट्टे अमुकनामा त्वं भट्टारकः" इति कथयित्वा समाधिभक्तिं पठेत् । ततश्च गुरुभक्तिं दत्त्वा सर्वे यतिनः प्रणामं कुर्युः । ततश्च सर्वे उपासका अष्टतयीमिष्टिं कृत्वा गुरुभक्तिं दत्त्वा प्रणमन्ति। ततः सोऽपि भट्टारको दात्रे सर्वेम्य: उपासकेम्यश्च आशिषं दद्यात्। ततः सर्वे उपासकाः निज-निजगृहात् महामहोत्सवेन वर्धापनमानीय तं वर्धापयन्ति । दाता सर्वसङ्घ भोजयित्वा वस्त्रादिना सङ्घार्चनं कुर्यात् । याचकान् दीनानाथांश्च सन्तर्पयेच्च।' अर्थ- तत्पश्चात् शान्ति और भक्ति करके, गुर्वावली पढ़कर श्रीमूलसंघ के नन्दिसंघ, सरस्वतीगछ, बलात्कारगण एवं कुन्दकुन्दान्वय में अमुक के पद पर अमुक नामवाले तुम भट्टारक हुए' यह कहकर (पण्डिताचार्य) समाधिभक्ति पढ़े। उसके बाद गुरुभक्ति करके समस्त मुनि उसे (भट्टारक को) प्रणाम करें। फिर सभी श्रावक आठ प्रकार की इष्टियाँ तथा गुरुभक्ति करके उसे प्रणाम करें। तब वह भट्टारक भी दाता (दीक्षाविधि के आयोजक) एवं समस्त श्रावकों को आशीष प्रदान करे। उसके बाद सभी श्रावक अपने-अपने घर से बड़े उत्सवपूर्वक भेंट लाकर भट्टारक का अभिनन्दन करें। दाता सर्वसंघ को भोजन कराकर वस्त्रादि से संघ की पूजा करे, याचकों और दीन-अनाथों को भी सन्तुष्ट करे। इस विधि में वर्णित निम्नलिखित तथ्यों से सिद्ध होता है कि यह आगमोक्त नहीं है १. विधि में भट्टारक को लघु आचार्य, धर्माचार्याधिपति और भट्टारक-परमेष्ठी की उपाधियों से सम्बोधित किया गया है और कहा गया है कि जो मुनि भट्टारकपद के योग्य हो, उसे ही इस पद पर प्रतिष्ठित किया जाय। इससे सूचित किया गया 4 फरवरी 2004 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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