Book Title: Jinabhashita 2003 12
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 3
________________ आपके पत्र, धन्यवाद : सुझाव शिरोधार्य वैसे 'जिनभाषित' के प्रत्येक अंक में इतनी सारगर्भित, । से सुख्यात परम तपस्वी निस्पृही साधु हैं। परम पूज्य आचार्य ज्ञानवर्द्धक और तथ्यपूर्ण सामग्री होती है कि एक-दो दिन में ही | विद्यासागर महाराज का प्रवचनांश क्षमा की आद्रता-का प्रस्तुती पढ़कर अगले अंक की प्रतीक्षा प्रारम्भ हो जाती है। परमपूज्य करण भाई वेदचन्द्र जैन गौरेला द्वारा प्रशंसनीय है। आचार्य श्री के साक्षात् प्रवचन सुनने का जिन्हें सौभाग्य प्राप्त नहीं उत्तम तप धर्म-पर 'कर्मों को क्षय करने की शक्ति उत्तम हो पाता, उन्हें उनके प्रवचन सार शीर्षक से प्रकाशित प्रवचनांशों से तप में है।' डॉ. नरेन्द्र जैन भारती का लेख विद्वता पूर्ण है। ज्ञानवर्धक प्राप्त हो जाता है। यदि उनके प्रवचनों से कुछ अमृत वचनांश | इस मायने में भी है कि तप की अनेक परिभाषायें और उनके अर्थ चुनकर १०.१२ की संख्या में प्रत्येक अंक में दिये जायें तो वे | उन्होंने इस आलेख के माध्यम से प्रस्तुत किये हैं। श्री दिगम्बर जैन सभी को प्रेरणा पद सिद्ध होंगे। अतिशय क्षेत्र बिलहरी की जो सामग्री और चित्र श्री जिनेन्द्र कुमार अक्टूबर ०३ के अंक में 'देवपूजा' सम्बन्धी डॉ. श्रेयांस | जैन द्वारा प्रस्तुत की गयी है वह क्षेत्र हित के साथ उन अपनी जी का लेख तथा 'ध्यान और सामायिक' विषयक डॉ. अग्रवाल प्राचीन धरोहरों के प्रति समाज का ध्यान आकृष्ट करने का सर्वोत्तम के लेख काफी महत्त्वपूर्ण हैं । अन्य लेखों में भी काफी ज्ञानवर्धक प्रयास है। व्यक्तिगत रुप में जाकर मैं ने भी उन मनोज्ञ भव्य प्राचीन सामग्री है। आप सभी मिलकर इस पत्रिका को अपने नाम के मूर्तियों के दर्शन का सौभाग्य प्राप्त किया। चित्र पत्रिका में प्रभावशाली अनुरुप पूर्ण सार्थक बनाने हेतु सजग रहते हैं। मेरी मंगल कामनायें ढंग से नहीं पाये। कुल मिलाकर अंक प्रशंसनीय है। इसके निरन्तर निखरते रहने हेतु प्रेषित हैं। सुमतचन्द्र दिवाकर, सतना फूलचन्द जैन आपके द्वारा प्रकाशित मासिक पत्रिका 'जिनभाषित' अध्यक्ष अ.भा.दि.जैन विद्वत् । | सफलता के नये कीर्तीमान स्थापित कर रही है। आशा है इस परिषद्, वाराणसी प्रकार अपने मुखर रूप में निरन्तर उन्नति करती रहेगी। 'जिनभाषित' पत्रिका में सम्पादकीय और आचार्य श्री ___ हमारे यहाँ काफी महानुभावों ने पत्रिका मंगवाने हेतु निवेदन विद्यासागर जी महाराज के वचनामृत पाठकों को क्रमश: इहलोक किया है। अतः आप से विनम्र अनुरोध है 'जिनभाषित' इसी माह के अभ्युदय और परलौकिक निःश्रेयस की प्राप्ति में राजमार्ग हैं। से हमारी संस्था में भिजवाने का कष्ट करें। इनके पढ़ने से सन्तोष एवं शांति मिलती है। आचार्य श्री को वर्द्धमान वाचनालय, महुआ नमन्!!! आपको साधुवाद। आपकी पत्रिका का सितम्बर अंक सामने है, मुख्य पृष्ठ पर पं. रतनलाल जी बैनाड़ा के जिज्ञासा-समाधान अत्यन्त दिया गया सदलगा मंदिर का चित्र मुझे पू.आ.श्री की जन्म स्थान उपयोगी जानकारी प्रदान करते हैं, अन्य लेख भी पठनीय होते हैं। से जुड़े अतीत की ओर ले जाता है। मंदिर में विराजमान विम्ब का छाया चित्र होता तो और भी आकर्षक रहता। पत्रिका का मुख पृष्ठ भव्य-दिव्य होता है। इस शुभ कर्म के लिये सामग्री प्रकाशन के प्रत्येक विभाग में नवाचार दृष्टिगत है आपका अभिनन्दन !! जैसे विषय सूची के परंपरागत स्थान पर अन्तस्तत्त्व। डॉ. प्रेमचन्द्र रांवका, जयपुर संम्पादकीय में श्रमणों के शिथिलाचार पर आपकी लेखनी सितम्बर २००३ का अंक आद्योपान्त पढ़ा, पूज्य समयानुकूल है, यदि अभी भी हम नहीं चेते तो कालांतर में हमें चिन्मयसागर महाराज का लेख, 'सत्संग' शाब्दिक मोतियों/रत्नों श्रमण ढूढ़ने पर भी नहीं मिलेंगे, केवल श्रमणाभास रह जायेगा। से जड़े हार की तरह है। उक्त लेख से महाराज श्री के आगम ज्ञान डॉ. रमा जी का आलेख भी जानकारियों से भरा हुआ है। के तथा चिंतन के दर्शन होते हैं। महाराज श्री ने शब्दों के प्रयोग ब्र. सोनू, डबरा प्रचलित अर्थों के आधार पर न करके अन्वय आधार पर किये हैं। "जिनभाषित' पत्रिका यथासमय बराबर आ रही है। अक्टूबर सत्य के रसातल तक पहुँचने का एक मात्र साधन सत्संग और संत २००३ का अंक मेरे सामने है। पत्रिका का रुप-रंग व छपाई व समागम ही है। असलियत को समझकर असत्य साधुजनों से भी । डिजाइन बहुत सुंदर है। देखकर यह भावना बनती है कि ऐसी ही कभी नहीं छला जाता है। स्टेंडर्ड की जैन समाज में अन्य पत्रिकाएँ प्रकाशित होती? ___इस चातुर्मास में महाराज श्री के सत्संग का लाभ बार-बार शायद इस पत्रिका को देखकर ही जैन महिलादर्श ने भी शहपुरा (भिटौनी) जाकर प्राप्त किया। जंगल वाले बाबा के नाम | अपना कलेवर बदला है। आपकी पत्रिका को देखकर श्री अखिल -दिसम्बर 2003 जिनभाषित । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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