Book Title: Jinabhashita 2003 02 Author(s): Ratanchand Jain Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra View full book textPage 9
________________ धर्म जीवन की धुरी : " एक आदमी अपना मकान बनवा रहा था। मकान बनाने के लिए वह बार बार दीवार उठाता कि दीवार गिर पड़ती। वह दो-चार फुट भी नहीं उठ पाई। वह काफी परेशान था। मकान बन नहीं पा रहा था। एक दिन उसने उधर से गुजरते हुए एक संत को अपनी पीड़ा सुनाई। सन्त ने उसकी बात सुनी और हँसकर बोले'भाई दीवार उठाना है तो नींव खोदो", उसने कहा-मैं नींव नहीं खोदता, मकान की नींव की आवश्यकता ही नहीं। लोग बेवकूफ हैं, जो अपना बहुत सारा धन उस नींव में लगा देते हैं, जो दिखाई तक नहीं देती । सन्त उसकी अज्ञानता भरी बात सुनकर हँसते हुए बोले -" अरे भाई ! मुझे हँसी आ रही है तुम पर, जो अपना मकान बिना नींव के खड़ा करने जा रहे हो। तुमसे भी ज्यादा हँसी तो उन पर आ रही है, जो अपने जीवन के महल को बिना नींव के खड़ा करना चाहते हैं।" I मकान को खड़ा करने के लिए आधार जरूरी है। धर्म हमारे जीवन का आधार है कौन सा धर्म ? जो मन्दिर, मूर्तियों और पूजाओं में सिमटा है, जो धार्मिक क्रिया-कलापों, अनुष्ठानों और आडम्बरों से दबा है? नहीं! धर्म इतना संकीर्ण नहीं है। धर्म का क्षेत्र अत्यन्त व्यापक और विस्तीर्ण है। वह मन्दिर, मूर्ति और पूजाघरों तक सीमित नहीं। ये धर्म के अंग हो सकते हैं। धर्म नहीं। इन्हें ही धर्म मान बैठना हमारी अज्ञानता है। धर्म का सम्बन्ध हमारे आचरण से है, जो हृदय की विशुद्धि और चित्त की निर्मलता से प्रकट होता है। आचार्य गुणभद्र ने धर्म की अनूठी परिभाषा दी है" स धर्मो यत्र नाधर्मो " " धर्म वहीं है, जहाँ अधर्म नहीं।" धर्म, अधर्म के साथ नहीं रह सकता। प्रकाश- अंधकार दोनों साथ-साथ नहीं रहते, धर्म की यह सबसे बड़ी कसौटी है। अधर्म के रहते धार्मिक चेतना का विकास संभव नहीं। क्या है अधर्म? वही जो दूसरों को पीडा दे। हिंसा, अन्याय, अनीति, अनाचार, सब अधर्म की पर्याय हैं इनके रहते धर्म नहीं रह सकता। धर्म का अर्थ अहिंसा और सत्य से अनुप्राणित आचरण । धर्म धारण करने के लिए पाप का अभाव अनिवार्य है। जिसका आचरण पाप मुक्त है, धर्म सदैव उसके साथ रहता है। उसके लिए देश काल की सीमाएँ बाधक नहीं बनतीं। धर्म की इससे व्यापक परिभाषा और क्या हो सकती है ? आज जितने भी मूल्यों की चर्चा की जाती है, वे सभी मनुष्य के सत्य और अहिंसामय आचरण में समाहित हैं। धर्म की आत्मा को न पहिचान पाने के कारण, प्राय: लोग एक भूल में जी रहे हैं। इस भूल ने धर्म की अवधारणा को बदल डाला है। इसका ही यह परिणाम है कि जो व्यक्ति जितना अधिक पूजा-पाठ और धार्मिक क्रियाएँ करता है वह व्यक्ति उतना ही Jain Education International मुनि श्री प्रमाण सागर जी बड़ा धार्मिक माना जाता है। इसी कारण लोग जितना महत्त्व धार्मिक क्रियाओं को देने लगे हैं, उतना अपने परिणामों के सुधार पर नहीं देते। यही कारण है कि धर्म धारण करने के बाद भी जीवन में रूपान्तरण घटित नहीं होता । आन्तरिक प्रयोजन की अनभिज्ञता का यही परिणाम है। ऐसे ही लोगों को देखकर आज का युवा यह प्रश्न उठाता है कि जब रात-दिन धर्म करने वाले व्यक्ति के जीवन में भी कोई परिवर्तन नहीं आता तो क्या जरूरत है धर्म करने की? । ऐसे लोगों को मैं जवाब देता हूँ कि धर्म हमारे जीवन के रूपान्तरण का विज्ञान है। धर्म धारण करे और रूपान्तरण न हो, यह सम्भव नहीं । दिया जलायें और अन्धकार न छँटे, यह असम्भव है । धर्म हो और उसका प्रकाश न फैले, यह हो नहीं सकता। जिस व्यक्ति के व्यवहार में परिवर्तन परिलक्षित नहीं होता, उन्हें भूलकर भी धर्मात्मा मत मान बैठना। वे धार्मिक हो सकते हैं, धर्मात्मा नहीं धार्मिक और धर्मात्मा दोनों एक नहीं है। धर्मात्मा होना अलग बात है और धार्मिक बनना अलग बात। धार्मिक बनना सहज है, धर्मात्मा होना कठिन । धर्मात्मा वह है, जो धर्म को जीता है, धार्मिक वह है, जो धर्म की क्रिया करता है। बड़ा फर्क है, धर्म की क्रिया करने और धर्म को जीने में। धर्म की क्रिया करनेवालों का धर्म धार्मिक क्रियाओं तक सीमित रहता है। धर्म को जीनेवालों का धर्म उनके आचरण का अंग बनता है, उनकी एक-एक श्वास धर्म से अनुप्राणित रहती है। उसके प्रत्येक विचार और व्यवहार में धर्मं प्रतिबिम्बित रहता है। चाहे मन्दिर हो या मन्डी, दुकानदफ्तर कहीं भी क्यों न हो, उसका धर्म सदैव उसके साथ रहता है। धार्मिक व्यक्ति का धर्म उसके पूजा-पाठ और धार्मिक क्रियाकलापों तक सीमित रहता है। इसका अर्थ यह नहीं कि धार्मिक क्रियाएँ धर्म की बाधक हैं। ये बाधक नहीं, अपितु साधक हैं। पर साधन को साधन की तरह ही अपनाना चाहिए, साधन, साध्य नहीं होता। साधन का प्रयोजन साध्य की उपलब्धि है। मन्दिर, मूर्ति, पूजा-पाठ, सत्संगये सब धर्म नहीं, धार्मिक भावनाओं के उद्दीपन का केन्द्र हैं। यहाँ आकर हम अपनी धार्मिक चेतना का विकास कर सकते हैं, जो जीवन के हरक्षेत्र में हमें धर्म से जोड़े रहती है। ऐसा वे ही कर सकते हैं जो धर्म के मूल स्वरूप को समझते हैं। तीन तरह के लोग होते हैं एक पत्थर की तरह, दूसरे मिट्टी की तरह और तीसरे रुई की तरह । सतही स्तर पर धर्म करने वाले लोग पत्थर की तरह हैं। पत्थर अन्दर से नहीं भींगता, पानी में डालने के बाद भी अन्दर से पानी को ग्रहण नहीं करता। ऐसे लोग धर्म को ऊपर-ऊपर ही -फरवरी 2003 जिनभाषित 7 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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