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वाक्य अपनी जगह सही हैं। दोनों का अर्थ जुदा-जुदा है, अतः। लोगों को कुछ अटपटा सा लगता है। मैंने इस पूरे श्लोका जो अर्थ पुनरुक्तिका आरोप मिथ्या है।
निश्चित किया है, वह इस प्रकार है, विद्वान् इस पर गम्भीरता से (2) श्लोक नं. 106 में 'पर्वण्यष्टम्यांच' पद में पर्वणी
विचार करें : मूल शब्द बताया गया है, यह गलत है। मूल शब्द पर्वन् (नपुंसक
इस श्लोक में कोई भी पाठान्तर नहीं पाया गया है। सिर्फ लिंग) है उसका सप्तमी विभक्ति के एक वचन में पर्वणि रूप
कीर्तिकेयानुप्रेक्षा की संस्कृत टीका में शुभचन्द्राचार्यने इसके बनता है जबकि पर्वणी शब्द में ईकार बड़ा है और वही स्त्रीलिंग
चतुराहारविसर्जन पद की जगह चतुराहारविवर्जन पद दिया है, जो शब्द है तथा यह प्रथमा विभक्ति का द्वि वचन है। अगर वह यहाँ
सामान्य शब्द भेद को लिये हुये हैं, किसी अर्थ भेद को लिये हुए होगा, तो 'पर्वण्यामष्टम्यां च' ऐसा पद बनता। इसमें छन्दभंग ही नहीं। होता। अत: यह ठीक नहीं है । टीकाकार ने भी मूल शब्द पर्वन् ही
लेख के प्रारम्भ में जो इस श्लोक का अर्थ दिया गया है, माना है और उसी का अर्थ चतुर्दशी किया है। उसी का सप्तमी के उसमें पूर्वार्द्ध का अर्थ तो ठीक है, किन्तु उत्तरार्द्ध अर्थ ठीक नहीं एक वचन में पर्वणि रूप दिया है। (3) श्लोक नं. 109 में जो | है। क्योंकि उत्तरार्द्ध के अर्थ में जो उपवास करके आरम्भ का प्रोषध का अर्थ सकृद्भुक्ति दिया है, उसी के आधार से टीकाकार आचरण करना प्रोषधोपवास है, ऐसा बताया है, उसके अनुसार ने धारणक और पारणक के दिन एकाशन की बात कही है। कोई ग्रन्थकार आरम्भ करने का उपदेश नहीं दे सकता और न उनकी यह कोई निजी कल्पना नहीं है। प्रोषध का अर्थ सकृद्भुक्ति ऐसा प्रोषधोपवास का लक्षण कहा जा सकता है। अन्य ग्रन्थों में नहीं पाये जाने से ही वह आपत्ति योग्य नहीं हो | मेरे विचार में 'स: प्रोषधोपवासो यदुपोष्यारम्भमाचारति' सकता। समन्तभद्र के बहुत से प्रयोग हैं जो अन्य ग्रन्थों में नहीं। इस उत्तरार्द्ध के उपोष्यारम्भ पद का अर्थ उपवास-सम्बन्धी आरम्भपाये जाते। जैसे:
अनुष्ठान लेना चाहिये। योगसारप्राभृत (अमितगति प्रथम कृत) के चेतः कलुषयतां श्रुतिरवधीनां दुःश्रतिर्भवति।।79॥ | श्लोक 19 अधिकार 8 में आरम्भ शब्द का अर्थ धर्मानुष्ठान दिया रत्नकरण्ड श्रावकाचार के इस श्लोक में अवधि शब्द | है। उपवास से सम्बद्ध हो जाने पर आरम्भ अपने आप धर्मानुष्ठान शास्त्र अर्थ में प्रयुक्त किया गया है, यह अनूठा है।
हो जाता है। यहाँ उपवास विषयक आरम्भ के आचरण को (आ) चौथा शिक्षाव्रत वैयावृत्य बताया है और उसी में
प्रोषधोपवासका लक्षण बताया है। ग्रन्थकार ने इस श्लोक में और अर्हतपूजा को गर्भित किया है (श्लोक 119)। यह निराला है।
इसके पूर्वके तीन श्लोकों में जो उपवासविषयक कर्त्तव्य बताये हैं, (इ) श्लोक क्रमांक 97 के आसमयमुक्तिमुक्तं पदमें आये
वे सब इस उपोष्यारम्भ पद में आ जाते हैं। इस छोटे से पद में समय शब्द की जो व्याख्या श्लोक 98, "मूर्धरुहमुष्टिवासो बन्धं
उपवास सम्बन्धी सारे क्रियानुष्ठान गर्भित कर लिये गये हैं, इसी से पर्यकबन्धनं चापि। स्थानमुपवेशनं वा समयं जानन्ति समयज्ञाः,"
लक्षणात्मक श्लोक को अन्त में रखा है। उपोष्यारम्भ पद के द्वारा में की गई है, । वैसी अन्यत्र नहीं पाई जाती।
प्रकारान्तर से ग्रन्थकार ने यह भी सूचित किया है कि यहाँ अन्य (ई) श्लोक नं. 24 में गुरुमूढ़ता के लिये पाखण्डिमोहनम् शब्द का प्रयोग भी अद्वितीय है।
सब गार्हस्थिक आरम्भ त्याज्य हैं। सिर्फ आहार का त्याग करना (उ) श्लोक नं. 147 में मुनिवन, भैक्ष्याशन, चेल, खण्डधर
ही उपवास नहीं है, किन्तु लौकिक आरम्भों को त्याग करना भी आदि कथन भी अनुपम हैं।
साथ में आवश्यक है। ऐसा अन्य ग्रन्थकारों ने भी इस प्रसंग में (ऊ) स्वयंभूस्तोत्रमें चारित्र के लिये उपेक्षा शब्द का प्रयोग लिखा है : श्लोक 90 में किया गया है।
(क) पुरुषार्थसिद्ध्युपाय-मुक्त्समस्तारम्भं (श्लोक 152) (ऋ) आज सामायिक शब्द का ही प्रचार है, किन्तु इस (ख) अमितगति श्रावकाचार-विहाय सर्वमारम्भमसंयमअर्थ में रत्नकरण्डश्रावकाचार में सर्वत्र सामयिक शब्दका ही प्रयोग | विर्वधकं (12/130) सदोपवासं परकर्ममुक्त्वा (7170), किया गया है, कहीं भी सामायिक शब्दका नहीं। यह भी एक सदनारम्भनिवृत्तैराहारचतुष्टयं हित्वा (6-88) विशेषता है।
(ग) सकलकीर्तिकृत सुदर्शन चरित-त्यक्त्वारम्भगृहोद्भवं (4) श्लोक 109 प्रोषधप्रतिमा के श्लोक 140 के विरुद्ध
(2172) बताया जाता है, यह भी ठीक नहीं क्योंकि प्रोषधप्रतिमा के श्लोक
(घ) रइधूविरचित पासणाह चरिउ-संवरु किज्जइ में जो प्रोषधनियम विधायी पद दिया है, उसके नियम शब्दके अन्तर्गत श्लोक 106 से 110 तक का सारा प्रोषधोपवास का
आरम्भकम्मि (5/7) कथन आ जाता है। अत: यह श्लोक 109 किसी तरह विरुद्ध नहीं
(ङ) जयसेनकृत धर्म रत्नाकर -आरमीजलपानाभ्यां पड़ता, अपितु उसका पूरक ठहरता है।
मुक्तोऽनाहार उच्यते (1308) अब मैं श्लोक 109 के अर्थ पर आता हूँ। आज तक | (च) रत्नकरण्डश्रावकाचार के श्लोक 107 में भी उपवास श्लोक का पूरा वास्तविक अर्थ सामने न आ पाने से यह श्लोक | में आरम्भ का त्याग बताया है। 14 फरवरी 2003 जिनभाषित
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