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महिलायें : जैन संस्कृति की सेवा में
पद्मश्री सुमतिबाई शाहा, शोलापुर मानव जाति में स्त्री का स्थान
नारी को अपने बौद्धिक और अध्यात्मिक विकास की सन्धि पहिले मानव समाज की रचनाओं में स्त्री व पुरुष-दोनों का | से ही प्राप्त हो गई थी। इसी कारण जैन संस्कृति के प्रारम्भ से ही स्थान समान है। स्त्री और पुरुष-दोनों के अस्तित्व से ही समाज | उच्च विद्या विभूषित और शीलवान् जैन नारियों की परम्परा प्रारम्भ की कल्पना पूरी हो सकती है। इन दोनों में से किसी भी एक | से ही शुरू हो गई है। भगवान् ऋषभदेव ने अपनी ब्राह्मी और घटक को अधिक महत्त्व दिया जा सकता है पर एक घटक को | सुन्दरी दोनों को उच्च शिक्षा की प्रेरणा दी थी। इससे स्पष्ट है कि महत्त्व देने वाला समाज, समाज के मूलभूत अर्थों में पूरा नहीं हो | उस समय नारी को पुरुष के समान शिक्षा लेने की सुविधा थी। जाता। स्त्री और पुरुष विश्वरथ के दो मूलभूत आधार स्तम्भ हैं। ब्राह्मी और सुन्दरी-इन दोनों कन्याओं ने अंकविद्या और अक्षरविद्या इसीलिए समाज में स्त्री का स्थान पुरुषों के बराबर अभिन्न, सहज | में प्रावीण्य प्राप्त किया था। अपने पिता के धीर, गम्भीर और
और स्वाभाविक मानना ही उचित है। स्त्री समाज रचना और | विद्वत्तापूर्ण व्यक्तित्त्व का प्रतिबिम्ब उनके मन पर पड़ा था। अपने सामाजिक प्रगति के लिये सहकार्य करने वाली है।
बन्धु भरत की अनुमति से इन दोनों ने भगवान् ऋषभदेव से ही जैनधर्म और नारी
आर्यिका व्रत की दीक्षा ले ली और ज्ञानसाधना की। उनके द्वारा जैनधर्म पुराने मूल्यों को बदलकर उसके स्थान पर नये | प्रस्थापित किये चतुर्विध संघ के आर्यिकासंघ की गणिनी (प्रमुख) परिष्कृत मूल्यों की स्थापना की गई है। जैन धर्म की दृष्टि से नर | आर्यिका ब्राह्मी ही थी। राजव्यवहार की उन्हें पूर्ण जानकारी थी।
और नारी दोनों का समान स्थान है। न कोई ऊँचा है न कोई नीचा। | कुछ जैन स्त्रियों ने विवाहपूर्व और विवाह के बाद युद्धभूमि श्रावक व्रत धारण करने का जितना अधिकार श्रावक का बताया | पर शौर्य दिखाया। पंजिरी के समिध राजाकी राजकन्या अर्धागिनी है, उतना ही अधिकार श्राविका का बताया है। पति-पत्नी, दोनों ने खारवेल राजा के विरुद्ध किये गये आक्रमणमें उसको सहयोग को ही, भगवान् महावीर के संघमें, महाव्रतों की साधना का | दिया। इतना ही नहीं, उसने इस युद्ध के लिये महिलाओं की अधिकार दिया गया है। जैनशास्त्रों में नारी जाति को गृहस्थ जीवन स्वतन्त्रसेना खड़ी की थी। युद्ध में राजा खारवेल के विजय पाने में धम्मसहाया (धर्मसहायिक), धर्मसहचारिणी, रत्नकुक्षधारिणी, पर इसने उनका अर्धाङ्गिनी पद स्वीकार किया। वह धर्मनिष्ठ और देव-गुरुजन (देवगुरुजनकाशा) इत्यादि शब्दों से प्रशंसित किया | दानवीर थी, ऐसा स्पष्ट उल्लेख शिलालेख में मिलता है। गंग गया है।
घराने के सरदार नाम की लड़की और राजा विरवर लोकविद्याधर भारत की नारी एक दिन अपने विकासक्रम में इतने ऊँचाई की पत्नी सामिभबबे युद्ध की सभी कलाओं में पारंगत थी। पर पहुँच चुकी थी कि वह सामान्य मानुषी नहीं, देवी के रूप में सामिमबबे के मर्मस्थल पर वाण लगने से इसे मूर्छा आ गई और प्रतिष्ठित हो गई थी। उसकी पूजा से कर्मक्षेत्र में ही स्वर्ग के देवता भगवान् जिनेन्द्र का नाम स्मरण-करते करते उसने इहलोककी रमण करके प्रसन्न होते थे। इस युग में उसे पुरुष का आधा हिस्सा यात्रा समाप्त की। विजय नगर के राज्य की सरदार चम्पा की कन्या मानते हैं, पर उसके बिना पुरुषका पुरुषत्व अधूरा रहता है, ऐसा | राणी भैरव देवी ने विजयनगर का साम्राज्य नष्ट होने के बाद अपना माना जाता है।
स्वतन्त्र राज्य स्थापित किया और उसे मातृ-सत्ताक पद्धति से कई मैं अपने इस लेख में आपको इतिहास में और आधुनिक बरसों तक चलाया। नाजलकोंड देश के अधिकारी नागार्जुन की काल में जैन महिलाओं द्वारा किये गये असामान्य कार्योंका, मृत्यु के बाद कदम्बराज अकालवर्षने उनकी देवी वीरांगना वीरांगनाओं के शौर्य का तथा श्राविकाओं के निर्माण किये हुये अक्कमवके कन्धे पर राज्य की जिम्मेदारी रक्खी। आलेखों में इसे आदर्श का अल्प परिचय देने वाली हूँ।
युद्ध-शक्ति-मुक्ता और जिनेन्द्र-शासनभक्ता कहा गया है। अपने भगवान् ऋषभनाथ का स्थान
अन्तकाल तक उसने राज्य की जिम्मेदारी सम्भाली। भारतीय संस्कृति के प्रारम्भ से ही जैनधर्म की उज्ज्वल गंग राजवंश अनेक नारियों ने राज्य की जिम्मेदारी सम्भाल परम्पराओं का निर्माण हुआ है। भगवान् आदिनाथ ने अपने पुत्रों कर अनेक जिन मन्दिर व तालाव बनाये। उनके देखभाल की के साथ ही कन्याओं को भी शिक्षण देकर सुसंस्कृत बनाया। व्यवस्था की। धर्मकार्यों में बड़े दान दिये। इन महिलाओं में चम्पला भगवान् आदिनाथ के द्वारा जैन महिलाओं को सामाजिक और राणी का नाम सर्व प्रथम लिया जाता है। जैनधर्म की सर्वाङ्गीण आध्यात्मिक क्षेत्र में दिये हुये इस समान स्थान को देखकर नारी | उन्नति और प्रसाद के लिये उसने जिन भवनों का निर्माण किया। के विषय में जैन समाज प्रारम्भ से ही उदार था, ऐसा लगता है।। श्रवणबेलगोल के शिलालेख क्रमांक 496 से पता चलता है कि 16 फरवरी 2003 जिनभाषित -
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