Book Title: Jinabhashita 2003 02
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 29
________________ धरोहरों का आंकलन इसलिये भी नहीं कर पाता क्योंकि यह बिना । मेरे न चाह कछु और ईश, रत्नत्रय निधि दीजे मुनीश। कमायी हुई परअर्जित सम्पत्ति की तरह प्राप्त हो गये हैं। हमारे मुनियों के लिये यह तीर्थक्षेत्र तपो भूमियाँ बनी रहें। आज अनेक मुनियों, आचार्यों का रूझान भी नये तीर्थों | श्रावकों, साधकों को यहाँ आपाधापी वाली जिन्दगी से छुटकारा की स्थापना की ओर अधिक है। तीर्थ रक्षा शिरोमणि आचार्य | मिले। प्रतिदिन के कार्यकलापों से भिन्न संयमपालन और ईश्वर आर्यनन्दी जी की तरह प्राचीन तीर्थों के हितार्थ कर्त्तव्यबोध की भक्ति का अवसर मिले। धार्मिक कार्यों में समय व्यतीत हो क्षेत्रों का आवश्यकता आज भी है। आर्यनन्दी महाराज ने अपने गुरु समन्तभद्र नैसर्गिक सौन्दर्य बना रहे, यही इनका रक्षण होगा। मात्र स्थानों का महाराज की आज्ञा से प्राचीन तीर्थों के रक्षार्थ एक करोड़ का ध्रौव्य | संरक्षण और नवनिर्माण ही पर्याप्त नहीं है। इन क्षेत्रों पर अपरिग्रही फंड तीर्थ रक्षा कमेटी के लिये अपने साधु जीवन के बारह वर्ष | साधु रहते हुए अपना साधना पथ सुविधापूर्वक पूरा कर सकें, तथा समर्पित कर तथा लगभग तीस हजार किलोमीटर की पद यात्रा | श्रावकों को धर्मोपदेश सुनने, परिग्रह परिमाणवत अथवा अपरिग्रही कर पूरा किया। संकल्प पूर्ति पश्चात भी पाँच वर्ष आगे भी तीर्थों | बनने की प्रेरणा जुटाते रहें जिससे यथार्थ धर्मतीर्थ का उद्योत बना के रक्षार्थ समाज को दान देने प्रेरित करते रहे तथा पच्चीस लाख रहे। तीर्थ क्षेत्र आत्मार्थी के लिये शान्ति, समता के नैसर्गिक उपवन रुपया अतिरिक्त दान के वचन प्राप्त किये। उन्होंने अपने नाम का | बने रहें। कोई तीर्थ या संस्थान स्थापित नहीं किया। उनका कहना था कि पुष्पराज कालोनी, सतना - 485001 प्राचीन तीर्थों की रक्षा और प्राचीन मूर्तियों की पूजा में दश गुना पुण्य अधिक अर्जित होता है। उन्होंने भारतवर्षीय दिगम्बर जैन समाज को प्राचीन तीर्थों के प्रति निजत्व बोध जगाते हुए उनके निष्कलंक जीवन प्रति कर्त्तव्य बोध से जोड़ा। अपने जीवन के अठासीवें वर्ष में श्री सम्मेद शिखर पर डॉ. सुरेन्द्र कुमार जैन 'भारती' स्थित चौपड़ा कुण्ड पर दिगम्बर जैन मंदिर निर्माण और अरक्षित मूर्तियों को स्थापित किया। इस कार्य में उन्हें दो वर्ष तक सबल जीवन एक प्रश्न है श्वेताम्बर समाज का विरोध सहना पड़ा। दो वर्ष तक वे पहाड़ पर प्रश्न चिह्न नहीं है स्थित चौपड़ा कुण्ड पर अपनी जान की परवाह न कर विराजमान प्रश्न निरन्तरता है रहे आये। उनकी ऐसी तीर्थों के प्रति रक्षण की लगन ने यह सिद्ध और प्रश्न चिह्न विराम । कर दिया कि साधु समाज आज भी धर्म, धर्मायतनों तथा अपनी प्रश्नों में उलझें नहीं संस्कृति के रक्षार्थ पूर्वाचार्यों पूज्य मुनि विष्णुकुमार, आचार्य उलझे हैं तो सुलझायें समन्तभद्र और अकलंक देव के आदर्शों का पालन कर सकता है। उदासीन श्रावक समाज में जागृति ला सकता है। चिन्ता से नहीं बदलते परिवेश - आज के बदलते परिवेश में यह पुण्य चिन्तन से क्षेत्र मात्र पर्यटन स्थल न बन जाये- इस पर ध्यान देना आवश्यक क्रन्दन से नहीं हो गया है। इन क्षेत्रों को पिकनिक स्पाट अथवा मनोरंजन स्थल न कर्मन से बनने देना ही उनका वास्तविक रक्षण है। आज साधन भोगी मद से नहीं समाज तीर्थस्थलों पर भी राग रंग के साधनों को जुटा रहा है। दम से परिग्रह एकत्रित करने की सहज प्रवृत्ति से यदि इसी प्रकार वहाँ पंच इन्द्रिय सुख जन्य साधनों की प्रचुरता बढ़ती रही तो क्षेत्रों का हय, हाय और हार से नहीं धर्म स्वरुप तिरोहित हो जायेगा। मात्र क्षेत्र रह जायेंगे। दान में प्राप्त जय, जान और प्यार से राशियों से क्षेत्र का विस्तार हो जायेगा। धर्म सिमटता जायेगा। सुलझते हैं प्रश्न। आजकल अतिशय क्षेत्रों पर अनेक मनौतियों को लेकर प्रश्नों का मंथन हो भीड़ देखी जाती है। अतिशय क्षेत्रों पर देवों का आगमन तथा तुम क्यों मथते हो? श्रद्धालुओं की आकांक्षाओं की पूर्ति भी होती देखी जाती है, परन्तु ऐसा सर्वदेश, सर्वकाल सभी के लिये नियम नहीं बन सकता। जियो और जीने दो, धर्मकार्य और ईश्वर भक्ति का लक्ष्य अहं विसर्जन तथा अज्ञान सही कहते हो। निवृत्ति होती है। सच्चा भक्त भगवान् से भवों-भवों तक सच्चे धर्म की शरण ही माँगता है। एल-65, न्यू इन्दिरा नगर,ए, बुरहानपुर (म.प्र.) -फरवरी 2003 जिनभाषित 27 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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