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कर्म के उदय से होती है। जैसा कर्म जीव बंध कर लेता है तदनुरूप | आई। तिलंगों और ज्वालाओं से युक्त उस शक्ति को हनुमान ने ही शरीर संरचना होती है यही कारण है तीर्थकरों का शरीर | पकड़ लिया तब वह दिव्य स्त्री का रूप धारण कर बोली कि-"हे वज्रवृषभ नाराचसंहनन से युक्त होता है। विशल्या ने भी अन्तिम | नाथ ! प्रसन्न होओ और मुझे छोड़ो, इसमें मेरा कोई दोष नहीं है।'' समय में अजगर को साक्षात मृत्यु जानते हुए भी अपने भावों पर "इस संसार में मैं दुःसह तेज की धारक हूँ। विशल्या को तथा संवेगों पर भरपूर नियंत्रण रखा। अजगर को अपने समर्थ पिता | छोड़ और किसी की पकड़ में नहीं आ सकती। मैं अतिशय से दान दिलाया। विशल्या के इसी उदात्त भाव ने उसे विशिष्ट
बलवान हूँ। देवों को भी पराजित कर देती हूँ किन्तु इस विशल्या बनाया। जैसे हमारा बाह्य व्यवहार, सदगुण हमारे बाह्य व्यक्तित्व
ने मुझे स्पर्श किए बिना ही पृथक कर दिया है। यह सूर्य को को चुम्बकीय बनाते हैं उसी प्रकार हमारी आंतरिक चारित्रिक
ठण्डा और चंद्रमा को गरम कर सकती है, क्योंकि पूर्व भव में शक्ति, ध्यान, साधना, योग, मन भी हमारी आन्तरिक शक्तियों को
ऐसा ही अत्यन्त कठिन तपश्चरण किया है। अपने शिरीष के चुम्बकीय बनाते हैं जब मानव तर्क से हटकर अनुभव की अनुभूतियों
फूल सदृश सुकुमार शरीर को इसने पूर्व भव में ऐसे तप में और गहराइयों में स्नान करता है तब कहीं तेजो लेश्या उत्पन्न होती
लगाया था जो मुनियों के लिए भी कठिन होता है। मुझे इतने है और समस्त केन्द्र सक्रिय होने लगते हैं और इस प्रकार ऊर्जा
ही कार्य से संसार सारभूत जान पड़ता है कि इसमें जीवों द्वारा ऐसे
कठिन तप सिद्ध किए जाते हैं। तीव्र वाय से जिनका सहन करना समस्त शरीर पर छा जाती है। मानव देह मात्र देह नहीं है वह
कठिन था ऐसे भयंकर वर्षा, शीत और धूप से यह कृशांगी सुमेरू ब्रह्माण्ड की सम्पूर्ण उदात्त शक्तियों का सूक्ष्मतम व पूर्वतम संक्षेप
की चूलिका सदृश रंचमात्र भी कम्पित नहीं हुई। अहो! इसका है। यह समान्त शक्ति और इससे बना हुआ शरीर कृति, गुण स्वरूप
रूप धन्य है। अहो इसका धैर्य धन्य है। इसने जो तप किया है, आगामी जन्मों में भी सतत मौजूद रहता है। इन्हीं तमाम शक्तियों
अन्य स्त्रियाँ उनका ध्यान भी नहीं कर सकती। इस प्रकार एक को साथ लेकर अनंगशरा अगले जन्म में विशल्या बनी और सबके
दिव्य विद्या द्वारा प्रशंसित विशल्या एवं उसके द्वारा पूर्व भव में असाध्य (रोग) दूर करती रही। विशल्या के अतिरिक्त शरीर
किया गया तीन हजार वर्ष पर्यन्त का कठोर तप युग-युग तक संचारित बल से रोग मुक्ति की शक्ति का उदाहरण अन्यत्र नहीं
मूर्तिमान रहेगा। मिलता।
क्षण विरचित सर्व श्लाघ्य कर्तव्य योगः विशल्या ने ममत्व वात्सल्य, नारीत्व को अन्तर्निहित कर
पवन पथ विहारिस्फीत भूति प्रपंच। लिया था या यह कहें उसके शरीर में रक्त की भाँति ही प्रवाहित थे
अवभद् संपत्कल्पितानन्द तुल्यः उसकी विशुद्ध वात्सल्यमयी भावनाएँ। जैसे स्नेह, दुलार, प्यार,
प्रधानभूवि विशल्या लक्ष्मणोद्वाहकल्पः।। मनुहार किसी भी रोगी को पीड़ा से कुछ पल मुक्त कर देते हैं।
(तदनन्तर जिसमें क्षणभर में समस्त प्रशंसनीय कार्यों का उसी प्रकार विशल्या का स्नान जल भी विशल्या रूपा हो रोगियों योग किया था, विद्याधरों ने जिसमें विशाल वैभव का विस्तार के लिए जैसे अमृत बन जाता था।
प्रदर्शित किया था और जो देवसम्पदा से कल्पित आनन्द के समान विशल्या ने अपने चरित्र की स्वर्णिम आभा से युगीन | था ऐसा विशल्या और लक्ष्मण का विवाहोत्सव युद्धभूमि में ही महापुरुषों को चमत्कृत कर दिया। सीता के तपप्रभाव से अग्नि | सम्पन्न हुआ।) नीर बना और विशल्या के तप प्रताप से जल औषधि बना। | इस प्रकार विशल्या के माध्यम से प्रतिबिम्बत होता है
साथ ही विशल्या के माध्यम से ही हमें नारीत्व का दर्शन | निष्कलंक चरित्र । निर्मलता पवित्रता एवं विशिष्ट विलक्षणता सहित गरिमामय सौदर्य में होता है। युग की वह प्रथम महिला थी जिसने विनम्र बाला का वह स्वरूप जिसकी पुनीत स्मृति में वर्तमान की रणांगण से विवाह रचाया तथा स्वयं जिसकी सास जिसके घर गई नारियाँ सदैव श्रद्धापुष्प अर्पित करती रहेगी। विशल्या नारियों की थी तथा महानता थी यह विशल्या के परिवार की, उन्होंने केकैयी उस परम्परा में है जिन्होंने धर्म और कर्तव्य भावना की अभ्युन्नति के साथ विशल्या को रणागंण में भेज दिया। पद्मपुराणकार ने के लिए अपने जीवन को समर्पित किया, उत्सर्ग किया। विशल्या लिखा है
तपस्विनी है, सेवा परायण, तपस्विनी और कल्याण मूर्ति व्रताचारिणी भरत ततो माता स्वयं गत्वा महादरम्
है-विशल्या की तपस्या साधारण तपस्या नहीं थी, यह एक नारी प्रतिबोधमुपानीतः स तेन तनयाम दात्॥
की, उसके अखण्ड शील शौर्य की साधना थी। (तब भरत की माता केकैयी ने स्वयं जाकर उसे बड़े विशल्या ने अपने त्याग तपस्या को तन के अणु-अणु में आदर से समझाया जिससे उसने अपनी पुत्री दे दी।)
प्रविष्ट किया। विशल्या के माध्यम से लक्षमण को ही संजीवनी नहीं विशल्या द्वारा लक्ष्मण को पुनर्जीवन प्राप्त हुआ था। रणक्षेत्र
मिली अपितु भारत की प्रियमान नारी संस्कृति को भी नवदीप्ति प्राप्त में ही विशल्या का पाणिग्रहण सम्पन्न हुआ। उस समय का वर्णन
हुई। अपने विशाल वरदहस्त से, लोकोत्तर महत्तासे निरभिमानी करते हुए आचार्य रविषेण लिखते हैं :--
होकर वह मात्र निष्काम भावना से ही जन जन की सेवा में संलग्न विशल्या जैसे ही लक्ष्मण के समीप आई वैसे ही |
रही।
के.एच.-216, कविनगर कांतिमण्डल से युक्त शक्ति लक्ष्म्ण के वक्ष: स्थल से बाहर निकल ।
गाजियाबाद 20 फरवरी 2003 जिनभाषित
ना।
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