Book Title: Jinabhashita 2003 02
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 26
________________ गोयलीय जी अपने कार्यालय में थे। आराम का वक्त था। वे अपने | जिसकी अभिव्यक्ति 'जैन जागरण के अग्रदूत' में निम्न शब्दों में बिस्तर पर विश्राम कर रहे थे। उसी समय 'ज्ञानपीठ' के तत्कालीन | हुई हैमैनेजर आये। आदेशानुसार तकिये के पास रखा लिफाफा और | 'हमारे यहाँ तीर्थङ्करों का प्रामाणिक जीवन-चरित्र नहीं, रखी हुई दुअन्नी उठा ली। मुझे लिफाफे पर रखी दुअन्नी की बात | आचार्यों के कार्य-कलाप की तालिका नहीं, जैन-संघ के समझ में नहीं आयी। कार्यालय में मैनेजर से बातचीत के दौरान | लोकोपयोगी कार्यों की सूची नहीं; जैन-सम्राटों, सेनानायकों, मंत्रियों पूछा। मैनेजर ने बताया- 'मंत्रीजी, व्यक्तिगत डाक में ज्ञानपीठ का | के बल पराक्रम और शासनप्रणाली का कोई लेखा नहीं. साहित्यिकों पोस्टेज खर्च नहीं करते हैं। दुअन्नी टिकट के लिए दी है। एवं कवियों का कोई परिचय नहीं। और तो और, हमारी आँखों के गोयलीय हिन्दी, उर्दू, अरबी, फारसी, संस्कृत, अंग्रेजी | सामने कल-परसों गुजरने वाली विभूतियों का कहीं उल्लेख नहीं आदि के उद्भट विद्वान् थे। नाटक, कविता, कहानी, निबन्ध | है; और ये दो-चार बड़े-बूढ़े मौत की चौखट पर खड़े हैं; इनसे आदि सभी विधाओं में उनकी अप्रतिहत गति थी। इतिहास और | भी हमने इनके अनुभवों को नहीं सुना है, और शायद भविष्य में पुरातत्त्व के वे खोजी विद्वान् थे। 'दास' और 'तखल्लुस' उपनाम | दस-पाँच पीढ़ी में जन्म लेकर मर जाने वालों तक के लिए परिचय से उन्होंने उर्दू शायरी को बहुत कुछ दिया है। गोयलीय जी ने उर्दू | लिखने का उत्साह हमारे समाज को नहीं होगा। कैसे सीखी उन्हीं की जुबानी सुनिये प्राचीन इतिहास न सही, जो हमारी आँखों के सामने निरन्तर "मेरे अज्ञात हितैषी! गुजर रहा है, उसे ही यदि हम बटोरकर रख सकें, तो शायद इसी न जाने इस वक्त तुम कहाँ हो? न मैं तुम्हें जानता हूँ और | बटोरन में कुछ जवाहरपारे भी आगे की पीढ़ी के हाथ लग जाएँ।' न तुम मुझे जानते हो, फिर भी तुम कभी-कभी याद आते रहते | 'जैन जागरण के अग्रदूत' को वे 4 भागों में निकालना हो। बकौल फिराक गोरखपुरी चाहते थे। पर एक ही निकल पाया। उनका अन्य साहित्य हैमुद्दतें गुजरीं तेरी याद भी आई न हमें। प्रकाशित - 1. मौर्य साम्राज्य के जैन वीर, 2. राजपूताने और हम भूल गये हों तुझे, ऐसा भी नहीं। के जैन वीर, 3. 'दास'-पुष्पांजलि, 4. शेर-ओ-शायरी, 5. शेरतुम्हें तो 27, जनवरी 1921 की वह रात स्मरण नहीं ] वीर ओ-सुखन (5 भाग), 6. शाइरी के नयेदौर (5 भाग), 7. होगी, जबकि तुमने मुझे अंधा कहा था। मगर मैं वह रात अभी | शाइरी के नये मोड़ (5 भाग), 8. नग्मये हरम, 9. उस्तादाना तक नहीं भूला हूँ। रोलेट एक्ट के आंदोलन से प्रभावित होकर | कमाल, 10. हँसो तो फूल झंडें, 11. गहरे पानी पैठ, 12. जिन मई, 1919 में चौरासी-मथुरा महाविद्यालय से मध्यमा की पढ़ाई | खोया तिन पाइयाँ, 13. कुछ मोती कुछ सीप, 14. लो कहानी छोड़कर मैं आ गया था और कांग्रेस-कार्यों में मन-ही-मन | सुनो, 15. मुगल बादशाहों की कहानी खुद उनकी जुबानी। दिलचस्पी लेने लगा था। उन्हीं दिनों सम्भवतः 26, जनवरी 1921 | अप्रकाशित- 1. शराफत नहीं छोडूंगा, 2. हैदराबाद दरबार ई. की बात है, रात को चाँदनी-चौक से गुजरते समय बल्लीमारान | के रहस्य, 3. पाकिस्तान के निर्माताओं की कहानी खुद उनकी के कोने पर चिपके हुए काँग्रेस के उर्दू पोस्टर को खड़े हुए बहुत | जुबानी, 4. उमर खैय्याम की रुबाइयात, 5. बेदाग हीरे-विषयवार से लोग पढ़ रहे थे। मैं भी उत्सुकतावश वहाँ पहुँचा और उर्दू से | आशया (2 भागों में)। अनभिज्ञ होने के कारण तुमसे पूछ बैठा- "बड़े भाई ! इसमें क्या गोयलीय जी को जीवन में अनेक पुरुस्कार / सम्मान लिखा हुआ है?" तुमने फौरान जवाब दिया- "अमां अन्धे हो, | मिले। जिनमें प्रमुख हैं- उत्तरप्रदेश सरकार द्वारा 'शेर ओ सुखन', इतना साफ पोस्टर नहीं पढ़ा जाता।" जवाब सुनकर मैं खिसियाना- | 'शेर-ओ-शाइरी' तथा 'कुछ मोती कुछ सीप' पर पुरस्कार। हरियाणा सा खड़ा रह गया। घर आकर गैरत ने तख्ती और उर्दू का कायदा | सरकार द्वारा- 'मुगल बादशाहों की कहानी खुद उनकी जुबानी' लाने को मजबूर कर दिया।"... पर पुरस्कार । चण्डीगढ़ में दुशाला ओढ़ाकर तथा 500/- की राशि बाद में आप प्रसिद्ध उर्दू साहित्यकार शेरसिंह 'नाज' के भेंटकर सार्वजनिक सम्मान, केन्द्र तथा उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा साथ मुशायरों में जाने लगे। गोयलीय जी की रगों में राष्ट्रीयता और | स्वतंत्रता सेनानी होने से ताम्रपत्र से सम्मान आदि। जिनभक्ति का लहू दौड़ा करता था। उनकी एक नज्म यहाँ दृष्टव्य | गोयलीय जी का जीवन एक ऐसे तपस्वी और साधक का है, जो उन्होंने बैरिस्टर चम्पतराय के स्वागतार्थ 21, जनवरी 1927 जीवन रहा है जिसने जीवन में आये झंझावातों को चुपचाप सहा को कही थी और आपत्तियों का विषपान करते हुए भी साहित्यामृत प्रदान 'मकताँ हैं बेमिसाल हैं और लाजवाब हैं किया। जन्म शताब्दी पर विनम्र श्रद्धांजलि। हुस्ने सिफाते दहर में खुद इन्तख्वाब हैं। यह वर्ष गोयलीय जी का जन्म शताब्दी वर्ष है। कृतज्ञ पीरी में भी नमनूमे अहदे शबाब हैं। राष्ट्र/जैन समाज को उनकी स्मृति में गोष्ठियों का आयोजन, गोयाकि जैन कौम के एक आफताब हैं।' किसी मार्ग का नामकरण, पुरस्कार की स्थापना, स्टेच्यु का जैन साहित्य और संस्कृति का क्रमबद्ध और प्रामाणिक || निर्माण आदि अवश्य करना चाहिए। इतिहास न होने की पीड़ा गोयलीय जी को सदैव सालती रही।। कुन्दकुन्द कॉलेज परिसर, खतौली (उ.प्र.) 24 फरवरी 2003 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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