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आपको भी वह हमेशा मोक्षमार्ग में लगाए रखता है । यदि कदाचित् । प्रकार एक अंग से भी हीन सम्यक्तव हमारे संसार की संतति को
नहीं मिटा पाता । आठों अंग पूर्ण होने पर भी सम्यक्तव अपना सही कार्य करता है।
किसी परिस्थितिवश वह उससे स्खलित होता है, तो बार-बार . अपने को स्थिर करने में तत्पर रहता है। उसी तरह किसी अन्य धर्मात्मा को किसी कारण से अपने मार्ग से स्खलित होते देखकर, उसे बहुत पीड़ा होती है। यह येन-केन प्रकारेण उसे सहायता देकर उसकी धार्मिक आस्था दृढ़ करता है। भले ही इसमें उसे कोई कठिनाई उठानी पडे। यदि कोई व्यक्ति आर्थिक परेशानियों से अपने मार्ग से च्युत हो रहा है, तो उसे आर्थिक सहयोग देकर अथवा किसी काम पर लगाकर उसे पुनः वहाँ स्थित करता है । शारीरिक रोग के कारण विचिलत हो रहा है, तो औषधि देकर शारीरिक सेवा करके उसे धर्ममार्ग में लगाता है। यदि कुसंगति या मिथ्या उपदेश के कारण वह अपने धर्म मार्ग से स्खलित होता है, तो योग्य उपदेश देकर उसे पुनः स्थित करने का प्रयास करता है। यही सम्यग्दृष्टि का स्थितीकरण अंग है।
वात्सल्य 'वात्सल्य" शब्द " वत्स" से जन्मा है। 'वत्स' का अर्थ है " बछड़ा”। जिस प्रकार गाय अपने बछड़े के प्रति निःस्वार्थ, निष्कपट तथा सच्चा प्रेम रखती है, उसमें कोई बनावटीपन नहीं होता, उसे देखकर उसका रोम-रोम पुलकित हो जाता है, उसी प्रकार सम्यग्दृष्टि अपने साधर्मी बन्धुओं के प्रति निश्छल, निःस्वार्थ और सच्चा प्रेम रखता है। उसमें कोई दिखावटी या बनावटीपन नहीं रहता। उन्हें देखकर उसे उतनी ही प्रसन्नता होती है, जितनी कि किसी आत्मीय मित्र से मिलकर होती है। वह उनके साथ अत्यंत प्रगाढ़ का व्यवहार करता है। वह अपने प्रेम और वात्सल्य की डोर से पूरे समाज को बाँधे रहता है। सभी लोग उसके प्रेम-पाश में बँधे रहते हैं। वह सबके प्रति सहयोग और सहानुभूति की भावना रखता है। यही उसका वात्सल्य गुण है।
प्रभावना- सम्यग्दृष्टि की यह भावना रहती है कि जिस प्रकार हमें सही दिशा-दृष्टि मिली है, सत्य धर्म का मार्ग मिला है, उसी प्रकार सभी लोगों का अज्ञानरूपी अंधकार दूर हो, उन्हें भी दिशा मिले, वे भी सत्य धर्म का पालन करें। इस प्रकार की जगत् हितकारी भावना से अनुप्राणित होकर वह सदा अपने आचरण को विशुद्ध बनाए रखता है। उसका आचरण ऐसा बन जाता है कि उसे देखकर लोगों को धार्मिक आस्था उत्पन्न होने लगती है। वह परोपकार, ज्ञान, संयम आदि के द्वारा विश्व में अहिंसा के सिद्धांतों का प्रचार करता है तथा अनेक प्रकार के धार्मिक उत्सवों को भी करता है, जिसमें हजारों लोग एक स्थान पर एकत्रित होकर सद्भावनापूर्वक विश्वक्षेम की भावना भाते हैं, जिसे देखकर लोगों को अहिंसा धर्म की महिमा का भान होता है। यही उसका प्रभावना गुण है।
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इस प्रकार निःशंकितादि आठ गुण सम्यक्तव के कहे गए हैं। इन आठ गुणों के पूर्ण पालन करने पर सम्यग्दर्शन रहता है, अन्यथा नहीं। जिस प्रकार किसी विषहारी मंत्र में यदि एक अक्षर भी कम हो जाता है, तो वह मंत्र प्रभावहीन हो जाता है । उसी
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सम्यक्तव के इन आठ अंगों की तुलना हम अपने शरीर के आठ अंगों से कर सकते हैं। शरीर के आठ अंग होते हैं- दो पैर, दो हाथ, नितंब, पीठ, वक्षस्थल और मस्तिष्क शरीर के अंगों के प्रति यदि थोडी बारीकी से विचार करें, तो हमें इनमें भी सम्यक्तव की झलक दिखाई देती है। समझने के लिए जब हम चलते हैं, तो चलते वक्त एक बार रास्ता देख लेने के बाद बिना किसी संदेह के अपना दाँया पैर बढ़ा लेते हैं। दाँया पैर बढ़ते ही बिना किसी संदेह के अपना बाँया पैर स्वयं बढ़ जाता है, यही तो निःशंकित और नि:कांक्षित गुण का लक्षण है । अतः दाँया और बाँया पैर क्रमशः निःशंकित और नि:कांक्षित अंग के प्रतीक है। तीसरा अंग है निर्विचिकित्सा । इस गुण के आते ही घृणा या ग्लानि समाप्त हो जाती है। हम अपने बाँए हाथ को देखें, इस हाथ से हम अपने मल-मूत्रादि साफ करते हैं। उस समय हम किसी प्रकार की घृणा का अनुभव नहीं करते। बाँया हाथ निर्विचिकित्सा अंग का प्रतीक है ।
जब हमें किसी बात पर जोर देना होता है, जब हम कोई बात आत्मविश्वास से भरकर कहते हैं, तब हम अपना दाँया हाथ उठाकर बताते हैं तथा अन्य किसी की बात का ध्यान नहीं देते। अमूढदृष्टि का प्रतीक है, क्योंकि इस अंग के होने पर वह अपनी श्रद्धा पर अटल रहता है तथा उन्मार्गियों और उन्मार्ग से प्रभावित नहीं होता। शरीर का पाँचवाँ अंग नितम्ब है। इसे सदैव ढाँक कर रखा जाता है। इसे खुला रखने पर लज्जा का अनुभव होता है, यही तो उपगूहन है, क्योंकि इसमें अपने गुण और पर के अवगुण को ढाँका जाता है। नितम्ब उपगूहन अंग का प्रतीक है। सम्यक्तव का छठा अंग है स्थितीकरण। पीठ सीधी हो तभी व्यक्ति दृढ़ता का अनुभव करता है । जब हमें किसी वजनदार वस्तुको उठाना होता है, तो उसे अपनी पीठ पर लाद लेते हैं। इससे हमें चलने में सुविधा हो जाती है। पीठ स्थितीकरण अंग का प्रतीक है, क्योंकि गिरते हुए को सहारा देना ही तो स्थितीकरण है।
हृदय शरीर का सातवाँ अंग है। जब हम आत्मीयता और प्रेम से भर जाते हैं, तब अपने आत्मीय को हृदय से लगा लेते हैं। हृदय वात्सल्य अंग का प्रतीक है। वात्सल्य का अभाव होने पर सम्यक्तव भी हृदय शून्य ही सिद्ध है। मस्तिष्क शरीर का आठवाँ अंग हैं। यह प्रभावना अंग का प्रतीक है, क्योंकि इसे हमेशा ऊँचा रखा जाता है। इसी प्रकार अपने आचरण और व्यवहार से जिनशासन की गरिमा और महिमा बढ़ाना, उसका प्रचार-प्रसार करना प्रभावना है। इस प्रकार इन आठ अंगों के पूर्ण होने पर भी हमारा सम्यक्तव सही रह पाता है, अन्यथा वह तो विकलांग की तरह अक्षम रहता है। यदि हम अपने शरीर के अंगों की गतिविधियों की तरह सम्यक्तव के अंगों की साज-सँवार करते रहें, तो हमारा सम्यक्तव स्थित रहेगा।
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'अन्तस् की आँखें' से साभार -फरवरी 2003 जिनभाषित
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