Book Title: Jinabhashita 2003 02
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 12
________________ जीवित जीवन मुनि श्री चन्द्रसागर जी जीवन जड़ नहीं गतिमान है प्रगतिमान है, अत: आवश्यक | उठने के लिए कुछ भी करने को तैयार रहता है। लेकिन उन्होंने है कि उस गति को उचित ढंग से इस भॉति नियमित और नियंत्रित | वह कार्य कर दिखाया जो साधारण मनुष्य के वश की बात नहीं किया जाये कि जीवन का अन्तिम लक्ष्य प्राप्त हो सके। जीवन का | है। यदि हमारा आचरण विवेक की मर्यादा से बंधा हो तो शरीर उद्देश्य केवल जीना मात्र नहीं, बल्कि इस रूप में जीवन यापन | को जितना कष्ट दिया जाता है आत्मा में उतना ही सुख होता है। करना है कि जीवन के पश्चात् जन्म और मरण का क्रम टूट जावे। उनका जीवन एक व्यवस्थित चारित्रनिष्ठ जीवन था। उनके चरण जीवन जितना कठोर एवं संयमित होता है व्यक्ति उतना ही ऊँचा | धर्माचरण से सने थे। वे लौकिकता से दूर पारलौकिक सुख प्राप्ति उठ जाता है। के इच्छुक थे, वे एक दिगम्बर भिक्षुक थे। “अप्पदीपोभव'' के उन्होंने दैहिक, दैविक एवं भौतिक ताप को नष्ट करने के सूत्र पर चलने वाले थे अर्थात् अपना दीपक स्वयं बनो। उन्होंने लिये अज्ञान से प्रकाश की ओर, मृत्यु से अमरत्व की ओर आने स्वयं प्रकाशित होकर दूसरों को प्रकाशित किया। स्वयं उन्होंने के लिए साधना को स्वीकारा था । पर वास्तव में देखा जाये, सोचा अपना रास्ता खोजा ऐसा बुद्ध ने अपने जीवन के अन्तिम उपदेश जाए तो यही ज्ञात होगा, देखने भी यही मिलेगा की शत्रु से युद्ध में कहा है- 'तन का बैरी रोग है, मन का बैरी राग तू मन को ऐसे करना कहीं सरल है पर इन्द्रियों के साथ युद्ध करना कठिन है । पर तपा ज्यों सोने को आग।' तप शब्द का उल्टा पत होता है, मनुष्य उन्होंने इन्द्रियों के साथ युद्ध किया और एक सफल योद्धा की भव पाकर भी तप नहीं किया तो पतन ही है। जहाँ सद्गुणों का भाँति विजयी हुये आचार्य श्री ज्ञानसागर जी की समाधि तपन के समावेश है, वहाँ अवगुणों का प्रवेश निषेध है। वे सादा जीवन दिनों चल रही थी। जीवन भर के किये हुये तप की तपन को उच्च विचार के सूत्र को जीवित बनाये रखने वाले श्रेष्ठ साधक थे। शीतल बना रहे थे। उन्हें साइटिका का रोग था यह मौसम उनकी | देव, गुरु, शास्त्र के प्रति समर्पण ही उन्हें जीवन भर साधे रहा, साधना के अनुकूल ही बैठा । एक दो श्रावकगण उन्हें आध्यात्मिक सम्हाले रहा। ज्ञान की पिपासा से जो भी आया उसे हमेशा शरण भजन, पं. द्यानतराय, पं. भूधरदास एवं पं. भागचंद आदि के | देने वाले बालब्रह्मचारी पं. भूरामल जी, शांतिकुमार, मुनि ज्ञानसागर, सुनाते थे। समाधि के छ: माहपूर्व से ही आचार्य श्री ज्ञानसागर जी | आचार्य ज्ञानसागर जी थे (उनके ग्रंथों की प्रशस्ति से यह नाम ज्ञात ने अनाज का त्याग कर दिया था। दूध और फलों का रस लेते थे। होते हैं) उनकी बचपन की साधना ने पचपन को सुदृढ़ बना बाद में दूध भी छोड़ दिया। केवल जल और रस लेते थे। फिर रस दिया। करने योग्य कार्य का बोध संयम की ओर बढ़ता रहा। छोड़ दिया पानी अकेला रखा। फिर पानी भी छोड़ दिया। अंत में आदर्श व्यक्ति वही बनता है जिसके जीवन में सत्य, आँखों में चार दिन निराहार रहे निर्जल उपवास किये एक ही स्थान पर लेटे ब्रह्मज्योति, वाणी में मिठास और हृदयसागर में करूणा का दरिया रहते थे गर्मी की कोई आकुलता नहीं होती थी। देह छोड़ने के अनवरत प्रवाहमान होता है। वे जानते थे और मानते भी थे कि पूर्व भागचन्द्र जी सोनी दर्शन हेतु आये, तो कहा आशीर्वाद दे दो अल्प के कारण बहुत को खोना विचार मूढ़ता है। तनगत चंचलता हाथ नहीं उठता था शरीर कृश हो चुका था। फिर पुन: कहा आँख को वे पद्मासन से समाप्त कर देते थे। मन की एकाग्रता को साधने खोल कर दे दो तो आँख खोलकर देखा प्रसन्न मुद्रा में । सेठ जी के के लिए शुद्धतत्त्व का चिन्तन करते थे। वे कटूता के जहर को धोने जाने के दस मिनिट बाद देह का त्याग कर दिया। 11 बजकर 10 के लिये मधुर सरस और शांत भाषा का प्रयोग करते थे। निषेधात्मक मिनिट पर सब देखते ही रह गये कि इन्द्रियों से युद्ध कर विजय | भावों के स्थान पर विधेयात्मक भावों का चिन्तन करते थे। अपने को प्राप्त हुये भोजन से सम्बन्ध छोड़ समता के भजन में समा गये।। दृष्टिकोण को सम्यक रखते थे। एवं दृष्टि को चार हाथ बाँध कर इस समय मुझे तुलसीदास की बात याद आ रही है चलने वाले जीवित साधक थे। कर्त्तव्यशीलता आत्मश्रम उनकी "जो करा सो झरा, जो बरा सो बुताना" जो फला है, वह | साधना के साथी थे। जिनवाणी के स्वाद को चखने-चखाने वाले झड़ेगा, जो जला है वह बुझेगा। अर्थात् जन्मा है वह मरेगा। आचार्य ज्ञानसागर जी यह सब कुछ जानते थे क्योंकि उनका जा मारिबे तैं, जग डर, मोरे मन आनन्द, जीवन स्वाध्याय शील था। अब वे स्व के अध्याय में अपना समय मरन किये ही पाइये, पूरन परमानन्द। दे रहे थे। मन और आत्मा को वश में कर कामनाओं को जीतने मरने के पूर्व ही मरण का अभ्यास कर लो। परिचय प्राप्त वाले निष्ठावान साधक थे। साधन की सीढ़ियाँ पार करते-करते / कर लो उसका भय और उसका आतंक समाप्त कर डालो। अंत में अंतिम सीढ़ी को पार कर साधना को सफल बनाया- आगामी | मरना सबको है, परन्तु अपने प्रभु के सामने, भयभीत होकर मृतक जीवन को सुन्दर बनाने का कार्य करते चले गये। मनुष्य ऊपर | समान निश्चेष्ठ होकर जाने में कोई बुद्धिमानी नहीं। उन्होंने अपने 10 फरवरी 2003 जिनभाषित - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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