Book Title: Jinabhashita 2003 02
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 10
________________ अपनाते हैं, आन्तरिक रूप से नहीं है। धर्म करने के बाद भी । में धनवान से निर्धन, रूपवान से कुरूप, विद्वान से पागल, राजा से धार्मिक संस्कारों को ग्रहण नहीं कर पाते। रंक हो सकता है। संसार में किसी का भी सुख शाश्वत नहीं होता। मिट्टी पर पानी सींचने से वह अन्दर-बाहर भीग जाती है। | वह संसार के सभी सुखों को विष-मिश्रित मिष्ठान्नवत् अत्यंत हेय मिट्टी जब तक गीली रहती है, अत्यन्त मृदु रहती है, परन्तु सूख समझता है। यह सब समझकर वह सांसारिक प्रलोभनों से दूर कर कड़ी हो जाती है। ऐसे लोगों की धार्मिक चेतना तभी तक | रहता है। यही कारण नि:कांक्षित गुण है। होती है, जब तक वे धार्मिक वातावरण में रहते हैं । वातावरण के निर्विचिकित्सा : विचिकित्सा का अर्थ ग्लानि या घृणा बदलते ही संस्कार लुप्त होने लगते हैं और चेतना सुप्त हो जाती हैं। होता है। सम्यग्दृष्टि, मानव शरीर की बुरी आकृतियों को देखकर ऐसे लोगों का धर्म, धार्मिक क्रियाओं तक ही रहता है, व्यवहार में | घृणा नहीं करता, अपितु हमेशा व्यक्ति गुणों का आदर करता है। पूरी तरह उतर नहीं पाता। उसका विश्वास रहता है कि शरीर तो स्वभाव से ही अपवित्र है। रुई पानी में रहती है, पानी को सब ओर से सोख लेती है, गुणों के द्वारा ही इसमें पवित्रता आती है। वह दीन, दु:खी, दरिद्र, फिर उसे छोड़ती नहीं। ऐसे ही लोग सच्चे धर्मात्मा होते हैं। ये अनाथ और रोगियों के बीमार शरीर को देखकर घृणा नहीं करता. लोग धार्मिक क्रियाओं से अपनी धार्मिक चेतना का उद्दीपन कर | अपितु प्रेमपूर्वक उनकी सेवा करता है। वह पदार्थ के बाहरी रूप समार्जित संस्कारों को नष्ट नहीं होने देते। इनकी चेतना सर्वत्र पर दृष्टि न देकर उसके आंतरिक रूप पर दृष्टि देता है। इस उद्दीप्त रहती है। अन्तर्मुखी दृष्टि के कारण वह शरीर के ग्लानिजनक रूप से विमुख धर्मात्मा होने का अर्थ है- धर्म को अपनी आत्मा में बसा हो उसके गुणों में प्रीति रखता है। यही उसका निर्विचिकित्सा गुण लेना। आत्मा से जुड़ा धर्म व्यक्ति के सोच और प्रवृत्ति में परिवर्तन लाता है। उसे ऐसी निर्मल दृष्टि प्राप्त हो जाती है जिसे सम्यग्दर्शन | अमूढदृष्टि - मूढ़ता मूर्खता को कहते हैं । मूर्खतापूर्ण दृष्टि कहते हैं। सम्यग्दर्शन का अर्थ है-यथार्थ दृष्टि । इस दृष्टि के जगते | मृढ़दृष्टि कहलाती हैं। सम्यग्दृष्टि विवेकी होता है। वह अपने ही पदार्थ गौण हो जाते हैं और परमार्थ मुख्य । पदार्थमूलक दृष्टि के | विवेक व बुद्धि से सत्य-असत्य, हेय-उपादेय और हित-अहित रहते परमार्थ की उपलब्धि असंभव है। यथार्थ-दृष्टि उस बाधा को | का निर्णय कर ही उसे अपनाता है। वह अंध-श्रद्धालु नहीं होता। दूर कर परमार्थ का मार्ग प्रशस्त करती है, यह दृष्टि ही धर्मात्मा की | परमार्थभूत देव, शास्त्र और गुरु को वह पूर्ण बहुमान देता है। कसौटी है। जिनके जीवन में यह दृष्टि प्रकट हो जाती है, उनके इनके अतिरिक्त अन्य कुमार्गगामियों के वैभव को देखकर प्रभावित जीवन में कुछ विशिष्ट गुण 1. नि:शंकित 2. नि:कांक्षित 3. नहीं होता, न ही उनकी निंदा या प्रशंसा करता है, अपितु उनके निर्विचिकित्सा 4. अमूढ़ दृष्टि 5. उपगूहन 6. स्थितीकरण प्रति राग-द्वेष से ऊपर उठकर माध्यस्थ भाव धारण करता है। यही 7. वात्सल्य 8. प्रभावना उसका अमूढ दृष्टित्व है। एक सच्चा धर्मात्मा वही है जिसका जीवन उक्त आठ गुणों उपगृहन- सम्यग्दृष्टि गुणग्राही होता है । वह सतत अपनी से मण्डित हो। ये गुण व्यक्ति की प्रवृत्ति को विलक्षण बना देते हैं। साधना के प्रति जागरूक होता है। यदि कदाचित् किसी निःशंकित - शंका का अर्थ है संदेह। सम्यग्दर्शन से परिस्थितिवश, अज्ञान या प्रामाद के कारण किसी व्यक्ति से कोई अभिभूत जीव नि:शंक होता है। उसे मोक्ष मार्ग पर किसी भी | अपराध हो जाए, तो वह उसे सबके बीच प्रकट नहीं करता, प्रकार की शंका या संदेह नहीं रहता। रहे भी कैसे? श्रद्धा और अपितु एकांत में समझाकर उसे दूर करने का प्रयास करता है। शंका भला एक साथ रह भी कैसे सकते हैं। हम अपने लौकिक जैसे बाजार में अनेक वस्तुएँ रहते हुए भी हमारी दृष्टि वहीं जाती जीवन में भी देख सकते हैं, जिसके प्रति हमारे मन में श्रद्धा रहती है जिसकी हमें जरूरत है। वैसे ही सम्यादृष्टि को गुण ही गुण है, उसके प्रति कोई संदेह नहीं रहता। संदेह उत्पन्न होते ही श्रद्धा | दिखाई पड़ते हैं। अपने अंदर अनेक गुणों के रहने के बाद भी वह टूटने लगती है। सम्यग्दृष्टि को परमार्थभूत देव, गुरु तथा उनके | कभी अपनी प्रशंसा नहीं करता, अपितु अपने दोषों को ही बताता द्वारा प्रतिपादित सत्य-सिद्धांत, सन्मार्ग और वस्तु-तत्त्व पर अविचल | है। दूसरों के दोषों की उपेक्षा कर उनके गुणों को प्रकट करता है। श्रद्धा रहती है। वह किसी प्रकार के लौकिक प्रलोभनों से विचलित तात्पर्य यह है कि वह अपने दोषों को सदा देखता है तथा दूसरों के नहीं होता। वह अविचलित श्रद्धा ही नि:शंकित अंग या गुण है। | गुणों को। अपने गुणों को छिपाता है तथा दूसरे के दोषों को। नि:कांक्षित- विषय भोगों की इच्छा को "आकांक्षा'' अपनी निंदा करता है तथा दूसरों की प्रशंसा। दूसरे के दोषों तथा कहते हैं। सम्यग्दृष्टि किसी प्रकार की लौकिक व पारलौकिक | अपने गुणों को छुपाने के कारण, इस गुण का नाम उपगृहन गुण आकांक्षा नहीं रखता। उसके मन में इन्द्रिय भोगों के प्रति बहुमान | है। अपने गुणों में निरंतर वृद्धि होते रहने के कारण उसके इस गुण नहीं होता। वह बाहरी सुविधाओं को क्षणिक संयोग मात्र मानता | को "उपबृंहण गुण" भी कहते हैं। है। उसकी दृढ़ मान्यता रहती है कि संसार के सारे संयोग कर्मों के । स्थितीकरण - सम्यग्दृष्टि कभी किसी को नीचे नहीं आधीन हैं, साथ ही नाशवान भी हैं। पापोदय होते ही एक ही क्षण | गिराता। वह सभी को ऊँचा उठाने की कोशिश करता है। अपने 8 फरवरी 2003 जिनभाषित - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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