Book Title: Jinabhashita 2003 02 Author(s): Ratanchand Jain Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra View full book textPage 7
________________ समय मैं उपस्थित रहा और मैंने उन घटनाओं को प्रत्यक्ष देखा।। से आकृष्ट होकर आधुनिक शिक्षा प्राप्त युवक-युवतियों ने थोक में नैनागिरि में बीमारी इतनी भयंकर थी कि स्वयं आचार्य श्री ने पं. | संयम अंगीकार किया। वस्तुतः यह इस महान संत के महान जगनमोहन लालजी से समाधिमरण की इच्छा प्रकट की। थुबौन | व्यक्तित्व का महान आश्चर्यकारी रूप है। में आचार्य श्री का शरीर केवल हड़ियों का ढाँचा सा लगने लगा । मेरे लेखे में प्रयुक्त रूपक को मनीषी आलोचक महोदय ने था। उस समय के चित्र से आचार्य श्री को पहचानना कठिन नहीं समझा हो यह तो मेरी समझ में नहीं आता है। तथापि आलोचक होगा। जयपुर में तो लम्बी बीमारी ने शरीर को इतना अशक्त बना | महोदय को यह लेख क्यों नहीं रास आया इसका कारण वे स्वयं दिया था कि खड़े होना भी कठिन था। पैंड्रा रोड की हरपीज की ही जानते है। बीमारी का भयानक दृश्य तो आज भी हमें भयाक्रांत कर देता है। मूलचन्द्र लुहड़िया ये असाधारण जान लेबा बीमारियाँ मौत का आक्रमण नहीं तो क्या किशनगढ़ समाज द्वारा पारित प्रस्ताव है? ऐसे मौत के आक्रमणों को पू. आचार्य श्री ने अपने आत्मबल मदनगंज किशनगढ़ की दोनों तेरह पंथ एवं बीस पंथ और तपोबल से विफल कर दिया तो क्या यह कहना सच नहीं है समाज को दिनांक 5 दिसम्बर के जैन गजट में श्री वर्धमान काला कि ऐसे मौत हार गई? महापुरुषों के जीवन में ऐसे रोग व संकट सांभरलेक के लेख में छपे निम्न वाक्य पढ़कर दुःख एवं आश्चर्य आते हैं जिन्हें वे महापुरुष जीत कर अपने लक्ष्य की सिद्धि में हुआ : सफल होते हैं। "मुनिपुंगव (पू. मुनि सुधासागर जी) ने किशनगढ़ चातुर्मास आलोचक महोदय का उल्लेख कि 'रोग के आक्रमण को | के दौरान तेरहपंथ बीसपंथ की ऐसी खाई चौड़ी की जिससे दोनों मौत का आक्रमण मानने पर तो सारा आयुर्वेद शास्त्र ही अप्रासंगिक | एक दूसरे से लड़ने पर उतारू हो गये, इस खाई को दूसरे चातुर्मास हो जायेगा' निराधार है। वस्तुत: रोग के आक्रमण को मौत का | में आचार्य वर्धमान सागर जी ने पाटी एवं दोनों मतावलंबियों का आक्रमण मानने पर तो आयुर्वेद शास्त्र की सार्थकता ही सिद्ध | एक जगह सामूहिक भोज रखकर द्वेषता खत्म कराई" होती है। दुर्घटनाओं अथवा जान लेवा बीमारियों के रूप में मौत | उपर्युक्त समाचार अत्यंत मिथ्या, भ्रामक, द्वेषपूर्ण, निराधार का आक्रमण होने पर उस समय समुचित चिकित्सा उपलब्ध नहीं एवं निंदनीय है। वस्तुतः पू. मुनि सुधासागर जी महाराज का होने पर अकाल मृत्यु हो सकती है और चिकित्सा मिलने पर उस किशनगढ़ चातुर्मास दोनों समाजों के निवेदन पर हुआ था और मृत्यु को टाला भी जा सकता है। इस प्रसंग में भयंकर बीमारी के | चातुर्मास आयोजक श्री दि. जैन धर्म प्रभावना समिति के गठन में रूप में मौत का आक्रमण हर बार विफल हुआ और ऐसे मौत हार दोनों समाजों के प्रतिनिधि सम्मिलित थे। पूरे चातुर्मास में सभी गई। कार्यक्रमों में सदैव दोनों समाज भाग लेती रही। चातुर्मास में ही मेरे उक्त लेख का अभिप्राय गुरु महिमा बखान रहा है। नहीं कभी भी दोनों समाजों के बीच किसी भी प्रकार के मन आचार्य श्री ने स्वयं तो मोह को बहुत कुछ जीत ही लिया था। मुटाव का कभी कोई थोड़ा सा भी प्रसंग उपस्थित नहीं हुआ। किंतु बुंदेलखण्ड की धरती पर पाँव रखते ही वहाँ के निवासियों लड़ने मरने की बात लिखकर लेखक ने केवल पू. मुनि श्री के की सात्विक और सरल जीवन शैली ने उनके मन में आसन्न भव्य अपवाद का जघन्य अपराध किया है अपितु दोनों समाजों पर भी युवक-युवतियों का मोह भंग कर उन्हें संयम के मार्ग पर लाने की झूठा लाँछन लगाने का पाप किया है। किशनगढ़ की दोनों समाजों भावना उत्पन्न हुई। अपनी पवित्र भावना के क्रियान्वयन के दौरान ने पू. मुनि श्री सुधासागर जी एवं पू. आचार्य श्री वर्धमानसागर जी आचार्य श्री को अनेक बार भयानक जान लेवा असाधारण शारीरिक के चातुर्मास में सब कार्यक्रम पारस्परिक सहयोग से सम्पन्न हुए व्याधियों से ग्रस्त होना पड़ा जिनको मैंने रूपक अलंकार के थे। गत अनेक वर्षों से महावीर जयंती समारोह एवं क्षमावाणी माध्यम से निरूपित किया है। मानों आचार्य श्री की भावना से मोह | समारोह दोनों समाज सामूहिक रूप से ही आयोजित करती है। भयभीत हुआ और उसने अपने शत्रु आचार्य श्री पर आक्रमण के वस्तुत: तेरहपंथ,बीसपथ समाज की एकता एवं पारस्परिक वात्सल्य लिए मौत की सहायता ली। किंतु आचार्य श्री के चरित्र बल एवं का किशनगढ़ की दि. जैन समाज देश में एक प्रशंसनीय ऐतिहासिक पुण्य कर्मोदय के कारण मोत और मौत दोनों हार गए। आदर्श प्रस्तुत कर रही है। जिनेन्द्र स्तुति के प्रसंग में ऐसे रूपकों का स्तुतिकारों द्वारा अस्तु मदनगंज-किशनगढ़ की तेरहपंथ, बीसपंथ दोनों प्रचुर प्रयोग किया गया है : समाज उपर्युक्त सर्वथा मिथ्या, भड़काऊ और दुर्भावना पूर्ण लेख कतिपय प्रसंग प्रस्तुत है : की भर्त्सना करती है और लेखक से अपेक्षा करती है कि ऐसी विषापहार स्तोत्र : मिथ्या द्वेषपूर्ण बातें भविष्य में नहीं लिखें। सुरासुरन को जीति मोह ने ढोल बजाया। हम जैन गजट से भी यह अपेक्षा करते हैं कि ऐसे समाज तीन लोक में किए सकल वश मों गरमाया। में फूट डालने वाले समाचार प्रामाणिक जानकारी के बिना नहीं तुम अनंत बलवंत नाहिं डिग आवन पाया। छापें। करि विरोध तुम थकी मूल मैं नाश कराया।।24।। श्री मुनिसुव्रत दि. जैन बीसपंथ पंचायत एकीभाव स्तोत्र : अध्यक्ष मंत्री जो नर निर्मल ज्ञान मान शुचि चारितसाधे। ह. गुलाबचन्द्र गोधा ह. निर्मल कुमार पाटोदी अनवधि सुख की सार भक्ति कूची नहीं लाये। सो शिव वांछक पुरुष मोक्ष पट केम उधार। श्री आदिनाथ दि. जैन तेरहपंथ पंचायत मोह मुहर दृढ़ करी मोक्ष मंदिर के द्वारै॥13॥ अध्यक्ष मंत्री आलोचक महोदय ने स्वयं अपने लेख में कहा है कि ह. मूलचन्द्र लुहाड़िया ह. ताराचंद गंगवाल बुंदेलखण्ड के प्रवास में पू. आचार्य श्री के वैराग्योत्पादक व्यक्तित्व -फरवरी 2003 जिनभाषित 5 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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