Book Title: Jinabhashita 2002 05 Author(s): Ratanchand Jain Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra View full book textPage 4
________________ आपके पत्र, धन्यवाद सुझाव शिरोधार्य 44 सामाजिक परिवेश के साथ जैन धर्म दर्शन की अनूठी में। कविवर को मेरा प्रणाम । छाप लिए 'जिनभाषित' पत्रिका के जनवरी तथा मार्च 2002 अंक प्राप्त हुए। दोनों ही अंक सुरुचिपूर्ण, तथ्यात्मक पाठनीय सामग्री से ओतप्रोत हैं। " शंका-समाधान" स्तम्भ एक अत्यन्त अनूठा एवं ज्ञानवर्धक प्रयास है। सम्पादकीय कथन/लेख, साहसिक, अत्यधिक रोचक एवं धार्मिक टिप्पणियों से लबालब है । आपके तथा सभी सम्पादक बन्धुओं के मार्गदर्शन से पत्रिका में निरन्तर निखार आ रहा है। साहित्यिक रचनाएँ इसमें मोती के समान प्रतिबिम्बित जान पड़ती है। पत्रिका की निरन्तर उन्नति में आप सभी का योगदान प्रशंसनीय है। आप सभी को बधाई। डॉ. रश्मि जैन प्रवक्ता हिन्दी, 52/12, लेबर कालोनी, फिरोजाबाद- 283203 (उ.प्र.) 'जिनभाषित' मुझे नियमित रुप से प्राप्त हो रहा है। लगभग सभी अङ्कों में सम्पादकीय लेख अत्यधिक ज्ञानवर्धक होते हैं। अन्य लेखों का भी स्तर काफी अच्छा पाया। इन सबके लिए बधाई । 'जिनभाषित' पत्रिका साहित्य की सभी विधाओं को अपने में समेटे हुए जनमानस तक पहुँच रही है। सभी ने सराहा फरवरी 2002 के अंक में छपी एक ऐसे अनूठे व्यक्तित्व (पूज्य क्षमासागर जी) की कविता 'एहसास को, जिसने पूरे जैन जगत को अपनी आत्मीयता की डोर में पिरो लिया है कि 2 डी.सी. जैन ई-2/162, अरेरा कॉलोनी, भोपाल (म. प्र. ) -462016 संवेदनाओं ने मुझे जहाँ से छुआ, मैं वहीं से पिघलता चला गया कोई चाहे जो सोचे पर यह तो एक एहसास था । सच तो यह है कि जो व्यक्ति जितना संवेदनशील होगा, आत्मीयता भी उसी की धरोहर होगी । मेरे बारम्बार नमन इन चरणों को । सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री सरोजकुमार जी की कविताएँ प्रत्येक अङ्क में पढ़ रही हूँ" मंदिर में मुनियों को वंदना करते देखकर" कविता तो पाठक को भक्ति रस में डुबो देती है कि भक्ति और सिद्धि के रंग आपस में मिलकर, रंगारंग इन्द्रधनुष बन गये थे । भाव, भक्ति और शब्दों का अद्भुत समन्वय है, इस कविता मई 2002 जिनभाषित Jain Education International अरुणा जैन C 2/20/2:4, Sec. 16, वाशी नगर, नवी मुम्बई (महाराष्ट्र ) | 'जिनभाषित' पत्रिका मुझे प्राप्त हो रही है जिसके लिये मैं आप सबका अत्यन्त आभारी हूँ। पत्रिका में जो भी सामग्री आप प्रकाशित कर रहे हैं, वह आवश्यक एवं प्रेरणादायक होती है। इसके लिये आप सभी बधाई के पात्र है । भगतराम जैन 3/50, गली मामन जमादार, पहाडी धीरज, दिल्ली-6 जिनभाषित मार्च 2002 अंक मिला। पृष्ठ 23 पर प्रकाशित 'अहिंसा' शीर्षक श्रेष्ठ पुस्तक पर 51000/- के पुरस्कार की घोषणा के विज्ञप्ति बिन्दु पर ध्यानाकर्षित करना चाहूँगा, जिसमें उल्लेखित है कि पुस्तक के प्रकाशन वितरण व अन्य भाषाओं में अनुवाद के सम्पूर्ण अधिकार समिति के होंगे और लेखक को कोई रायल्टी नहीं दी जाएगी। जरा सोचिए ! 51000/- का यह घोषितं पुरस्कार पारिश्रमिक हुआ या पुरस्कार! यह तो लेखक का शोषण है। ऐसी प्रवृत्ति के कारण ही आज तक हमारा समाज अहिंसा विषयक कोई स्तरीय कृति उपलब्ध नहीं करा सका, जिसे अंतराष्ट्रीय स्तर पर तो क्या, राष्ट्रीय स्तर पर भी मान्यता प्राप्त हो । जैन समाज से अपेक्षा है कि इस प्रकार लेखक का शोषण करने की प्रवृत्ति को लगाम दे और अहिंसात्मक भावना के अनुरूप पहल करते हुए पुरस्कार दे । पुस्तक की रायल्टी प्राप्त करना लेखक का जन्मसिद्ध अधिकार है। For Private & Personal Use Only इसी प्रकार ब्र. महेश जैन का लेख 'आहार दान की विसंगतियाँ ' संदर्भित समस्या को उजागर तो करता है, परन्तु यह आहार व्यवस्था मूलतः धन पर निर्भर है और वह धन कैसा होना चाहिए. इस पर लेखक ने टिप्पणी नहीं की। परम्परानुसार न्यायोपात्त धन से आहार व्यवस्था होनी चाहिए, जिसका आज प्रायः अभाव है । विसंगतियों के समाधान के प्रसंग से यह भी ध्वनित होता है कि श्रमण संघ ग्रामोन्मुखी हों, परन्तु आज तो शहरीकरण की आँधी में ग्राम भी शहर की तरह हो रहे हैं, तो क्या श्रमणों को वन-वासी होना चाहिए? ऐसी स्थिति में उनकी आहारचर्या की व्यवस्था किस प्रकार होगी ? यह यक्ष प्रश्न है, जिसका समाधान होना चाहिए। पत्रिका अपने उद्देश्य में सफल है । सुभाष जैन, वीर सेवा मंदिर, जैन दर्शन शोध संस्थान, 21, दरियागंज, नई दिल्ली- 110002 www.jainelibrary.orgPage Navigation
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