Book Title: Jinabhashita 2002 05
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 11
________________ करने को नहीं कहता। वास्तव में जैन धर्म जीवन-दर्शन है। किसी भी वर्ग वर्ण का व्यक्ति उसका अनुयायी हो सकता है। भगवान् महावीर ने सम्यग्दर्शन के आठ अंग बताये हैं। इनमें एक भी अंग की कमी होने पर जीवन में सम्यक्त्व नहीं उतर सकता। उनमें एक अंग 'वात्सल्य' महत्त्वपूर्ण है, अपने साधर्मी बन्धुओं के प्रति गोवत्सवत् प्रीति करना ही सच्चा वात्सल्य है । सम्यक्त्व के इस महत्त्वपूर्ण अंग की ओर हमारा कितना ध्यान है ? यह विचारणीय है । आज जैन समाज में एकता का अभाव है। न केवल दिगम्बर श्वेताम्बर तेरापंथी और स्थानकवासी आपस में लड़ते हैं, अपितु एक ही पंथ के और एक ही सम्प्रदाय के बन्धुओं में सामाजिक बन्धुत्व की भावना नहीं के बराबर है। आये दिन जैन पत्रों में पारस्परिक विवाद भरे रहते हैं। कुछ पत्र तो पंथ-पक्ष से व्यामोहित हैं । सामाजिक समरसता की उन्हें कोई चिन्ता नहीं । साधुओं, विद्वानों और नेताओं में मतैक्य नहीं है। ये एक मंच पर नहीं आ सकते। धर्म की आड़ में प्रदर्शन और आडम्बर बढ़ रहे हैं महावीर के अनुयायी, महावीर के सिद्धान्तों पर नहीं चलते। आज का समाज इन विसंगतियों से भरा है। I जैन समाज के संगठन में जो बाधकतत्त्व हैं, वे ऐतिहासिक व आन्तरिक नहीं, सामाजिक और भौगोलिक नहीं, आर्थिक व सांस्कृतिक नहीं, वे बाहरी और ऊपरी है, जो पूरे समाज से सम्बन्धित नहीं है। वे खास लोगों की मनोवृत्ति, थोथी यशोलिप्सा और मुनिश्री विशुद्धसागर जी मुनिश्री विशल्यसागर जी श्री दिगम्बर जैन मंदिर, टिन शेड टी.टी. नगर भोपाल में दि. 17.5.2002 को परमपूज्य आचार्य श्री विरागसागर जी के परम तपस्वी शिष्य मुनि श्री विशुद्धसागर जी मुनि श्री विशल्यसागर जी मुनि श्री विश्ववीरसागर जी एवं मुनि श्री विश्रान्तसागर जी के मंगल सान्निध्य में ग्रीष्मकालीन सैद्धान्तिक एवं आध्यात्मिक वाचना की स्थापना समारोहपूर्वक हुई, जिसमें पू. आचार्य श्री विरागसागर जी के चित्र अनावरण व दीप प्रज्वलन के साथ मंगल कलश की स्थापना की गई। वाचना 15.6.2002 श्रुतपंचमी तक चलेगी। Jain Education International प्रभुत्वकामना की पूर्ति भर करते हैं । जब समाज का नेतृत्व अपना तेज खो देता है तो वह अंधेरे में ही भटकता रहता है। आज का नेतृत्व वर्ग स्थिरमतिवाला नहीं है। अनेकान्त की बातें करने वाले आग्रह का दामन नहीं छोड़ते। अहिंसा की बातें करते हैं, पर हिंसा से बचते नहीं अपरिग्रह की चर्चा करते हैं, पर संग्रहवृत्ति छोड़ते नहीं। इस ज्ञान और क्रिया में रात-दिन का अन्तर है। यह मनः स्थिति तब बनती है, जब समाज के नेतृत्व में जड़ता आ जाती है। और चिन्तन कुण्ठित हो जाता है। हमारा समाज फूल और पत्तियों को देखने में ही उल्लास का अनुभव करता है जो शाश्वत खिलने वाली नहीं हैं। जड़ को सम्यक्त्व जल से सींचने की किसी को चिन्ता नहीं वयोवृद्धों का अनुभव और युवकों की सक्रियता का । समन्वय समाज की प्रगति का आधार होता है। " न सा सभा सन्ति न यत्र वृद्धाः ।" जैन सामाजिक संगठन के लिये हमें जैनत्व को समझना होगा । परस्पर प्रीति, भातृभाव / मैत्रीभाव बढ़ाना होगा। दूसरों के विचारों का आदर करना होगा। खण्डन से मण्डन और समन्वय की ओर चलना होगा। समाज की शक्तियाँ निर्माणकारी हों। सम्यक्त्व को दूषित किये बिना सबको साथ लेकर चलना होगा। भोपाल में ग्रीष्मकालीन वाचना पूर्व प्रोफेसर राजकीय महाराजा संस्कृत कॉलेज, जयपुर (राज.) मुनिश्री विश्ववीरसागर जी मुनिश्री विश्रांतसागर जी प्रतिदिन प्रातः 7 से 8 बजे द्रव्य संग्रह, 8 से 9 बारसाणुपेक्खा अपराह्न 3 से 4 परमात्मप्रकाश एवं अपरान्ह 4 5 तत्त्वार्थवार्तिक का मंगल वाचन- विवेचन मुनि संघ द्वारा किया जा रहा है। तत्त्वार्थवार्तिक ग्रन्थराज का वाचन प्रो. रतनचन्द्र जैन, भोपाल द्वारा किया जा रहा है। विवेचन मुनिश्री विशुद्धसागर जी महाराज अपनी अमृतवाणी के माध्यम से करते हैं । श्रोता साधर्मी बंधु बड़ी संख्या में लाभान्वित हो रहे हैं। श्रीपाल जैन 'दिवा' - मई 2002 जिनभाषित For Private & Personal Use Only 9 www.jainelibrary.org

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