Book Title: Jinabhashita 2002 05
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

View full book text
Previous | Next

Page 24
________________ संस्मरण अतीत के झरोखे से डी.सी.जैन, पूर्व मुख्य अभियन्ता लगभग 30 वर्ष पूर्व मुझे सपत्नीक अमेरिका जाने का । पूर्व निर्धारित पड़ाव पेरिस पहुँचा। वहाँ पर हमारा स्टे चार दिन अवसर प्राप्त हुआ था। हमारा जहाज देहली इन्टरनेशनल हवाई का था। सायंकाल ग्रुप के सभी साथियों का वजन एवं ऊँचाई का अड्डे से उड़ान भरकर क्वेत एवं लंदन होता हुआ लगभग 26 घंटों | नाप लिया गया। अंत में पूर्ण स्वस्थ व्यक्ति का 25 डॉलर का प्रथम में न्यूयार्क के केनेडी हवाई अड्डे पर सकुशल उतरा। वहाँ मेरे छोटे पुरस्कार मुझे मिला। रिजल्ट सुनकर मेरे आश्चर्य का ठिकाना नहीं भाई, जो कि वहीं पर डाक्टर हैं लेने आ गये थे। कस्टम की | रहा। वैसे इस ग्रुप में सबसे दुबला पतला व्यक्ति में ही था। मुझसे प्रक्रिया के पश्चात् जब हम लोग न्यूयार्क शहर की ओर जाने लगे | पूछा गया कि आप 6'-1"लम्बे हैं एवं आपका वजन केवल 73 तो वहाँ की गगनचुम्बी इमारतों एवं चौड़ी सड़कों को देखकर | किलोग्राम ही है। यह आप कैसे कंट्रोल कर पाये। मैंने माईक पर आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा। कुछ क्षण तो ऐसा लगा कि हम उन भाई-बहनों को संबोधित करते हुए कहा कि इसका मुख्य श्रेय किसी देवलोक में आ गये हैं, वैसे मैं स्वयं एक सिविल इंजीनियर मेरी पूर्ण शाकाहारी दिनचर्या को है। मैंने मांस एवं मदिरा के पूर्ण हूँ एवं उस समय मध्यप्रदेश लोक निर्माण विभाग में कार्यपालन निषेध का आजीवन व्रत ले रखा है। मैं हल्का शाकाहारी भोजन यंत्री के रूप में भवनों एवं सड़कों के निर्माण में संलग्न था। लेता हूँ, जिसमें सभी प्रकार की सब्जियाँ, सलाद एवं फलों का ___मैं इस सोच में डूब गया कि मेरे जीवनकाल में इस उच्च समावेश होता है। रात्रि में भोजन नहीं करता हूँ। सायंकाल के बाद स्तर के निर्माण कार्य कभी भारतवर्ष में हो भी पावेंगे? जिस देश केवल एक ग्लास गरम दूध लेता हूँ। उन सब पर मेरे वार्तालाप का का केवल दो सौ वर्ष का ही इतिहास हो एवं इतने कम समय में गहन असर हुआ एवं उन्होंने मुझे विश्वास दिलाया कि वे धीरे धीरे मांसाहार का त्याग कर शाकाहार को अपनाने का प्रयत्न उन्नति की पराकाष्ठा पर पहुँच गया हो, इसको देखकर मुझे जैन करेंगे। सूर्यास्त के पूर्व भोजन करने का प्रयोग भी करेंगे। बीस ग्रन्थ 'छहढाला' के रचयिता पं. दौलतराम जी की निम्न पंक्तियाँ दिन उनके साथ रहकर उन्हें निकट से देखने एवं समझने का मुझे याद आ गईं मौका मिला। इस बीच उनसे विभिन्न विषयों पर वार्तालाप भी दौल समझ सुन चेत सयाने काल वृथा मत खौवे । हुआ। भगवान् महावीर के अहिंसा, अपरिग्रह एवं अनेकान्त के यह नरभव फिर मिलन कठिन है जो सम्यक नहीं होवे॥ संभवतः पण्डित जी की उक्त पंक्तियों का मर्म अमेरिका सिद्धांतों को समझने में उन्होंने विशेष रुचि दिखलाई। उनमें से के निवासियों ने समझ लिया था, जिन्होंने समय का सही उपयोग एक बुजुर्ग ने यह भी कहा-आपके द्वारा बतलाया गया अनेकान्त कर अपनी सम्यक् सूझबूझ, अथक परिश्रम एवं देश के प्रति सिद्धांत तो अलवर्ट आइंस्टीन की थ्योरी ऑफ रिलेटिविटी के समर्पित होकर उसे उन्नति के शिखर पर पहुँचाया। काश, हम समकक्ष है। मैने उनसे कहा कि आइंस्टीन जो आज कह रहे हैं, भारतवासी पं. जी के द्वारा दिये गए सम्यक् बोध को कार्य रूप में उसका प्रतिपादन तो भगवान् महावीर ने 2500 वर्ष पूर्व ही कर परिणित कर सकें ! उस समय अमेरिका में रहने वाले नागरिकों के दिया था। बारे में हमारे देश में बड़ी गलत धारणा था कि वे तो मलेच्छ हैं भगवान् राम की मर्यादा एवं कृष्ण के दर्शन से भी वे एवं उनका जीवन निम्नकोटि का है। मैंने उनका आचरण इस प्रभावित दिखे। धारणा के विपरीत पाया। वे अत्यधिक प्रगतिशील, अनुशासनप्रिय भारतीय संस्कृति से वे अत्यधिक प्रभावित हैं। विशेष रूप एवं ढंग से जीने की कला में माहिर होते हैं। से महात्मा गांधी ने सत्य, अहिंसा एवं स्वदेशी के सम्यक् प्रयोग से लगभग डेढ़ माह अमेरिका में रहने के पश्चात् मुझे कंडक्टेड भारत वर्ष को स्वतंत्रता दिलाई, इसकी हार्दिक प्रशंसा करते हैं। टूर के माध्यम से अमेरिकन लोगों के साथ यूरोप के छह देशों की ईसामसीह के बाद वे गाँधीजी को 'महामानव' संबोधित कर आदर प्रकट करते हैं। यात्रा पर जाने का सुअवसर प्राप्त हुआ। ई-2/162, अरेरा कॉलोनी, हमारा चार्टर्ड प्लेन न्यूयार्क से उड़कर हमारे ग्रुप के पहले | भोपाल-462016 भोस 22 मई 2002 जिनभाषित - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36