Book Title: Jinabhashita 2002 05
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 20
________________ कहा 'बचना अय नेताओ...... लो मैं आ गया।" मानों कोई पहलवान लँगोटा घुमाते हुए अखाड़े में प्रवेश कर गया हो । मुझे इस बात का पूरा भरोसा था कि नामी राजनीतिक दल, मेरे ऐलान के मद्देनजर फौरन मुझसे सम्पर्क स्थापित कर मुझे अपने-अपने दल में सम्मिलित होने हेतु सहर्ष आमंत्रित करेंगे और मैं थोड़े नखरे दिखाने के बाद किसी तरह ठीक से दल में प्रवेश कर जाऊँगा। पर दिन हफ्ते तो क्या, महीनों गुजर जाने के बाद भी किसी दल का कोई पदाधिकारी मुझ तक पहुँचना तो दूर, मेरे दरवाजे के सामने से भी नहीं गुजरा, समारोहों में दरी बिछाने वाले कार्यकर्त्ता के समकक्ष नेता तक नहीं। मेरे लिए यह घोर निराशा की स्थिति थी। पर मेरे दोस्तों ने मुझे पुनः उत्साहित किया। बोले-" यही तो विडम्बना है कि एक काबिल आदमी इच्छुक होते हुए भी राजनीति में नहीं घुस पाता। कारण कि वह स्वभाव से संकोची होता है। जब तक कोई उसे बुलाता नहीं, वह जाता नहीं। और जो राजनीति में होते हैं, वे काबिल को भला क्यों बुलाएँगे? अपने पैर पर कुल्हाड़ी मारेंगे क्या ? इसलिए जैन साब ! आप संकोच त्यागें और अपने पसंदीदा राजनीतिक दल में प्रवेश करने हेतु स्वयं पहल करें।" मेरे लिए किसी दल विशेष का चुनना निहायत ही मुश्किल काम था। मुझे तो सभी दल एक जैसे लगते थे। एक ही थैली के चट्टे-बट्टे । इसलिए मैंने, सर्वप्रथम, एक बहुत पुराने राजनीतिक दल में, जिसे दशाब्दियों तक राज करने का अनुभव था, प्रवेश करने के इरादे से उसके स्थानीय प्रमुख से भेंट की। उक्त दल (जिसे मैं सुविधा के लिए 'क' दल कहूँगा) के प्रमुख ने, जो कि स्थानीय सब्जी मंडी के अध्यक्ष भी थे, मेरा चारों तरफ से मुआयना किया। फिर बोले "आप कौन जात हो ?" "मैं जैन हूँ," मैने कहा । "वो तो ठीक है पर कौन से जैन हो ? श्वेताम्बर हो या दिगम्बर ? बीस पंथी हो या तेरा पंथी ?" यह मेरे लिए हत्थे से उखड़ जाने वाली बात थी। फिर भी नम्रता बनाए रखते हुए मैंने कहा-" इस बात से राजनीति का क्या सरोकार ?" "है । सरोकार है। संबंध है, जरूर है।" उन्होंने इतमीनान से कहा - "यह जानकारी बड़ी बारीकी से रखना होती है कि कौन आदमी किस जगह से कितने वोट निकलवा सकेगा ? अर्थात् जिस जगह पर, जिस जाति के जितने वोट होते हैं, उसी हिसाब से उस स्थान पर उस जाति का नेता तैनात किया जाता है। इसके अलावा किसी कार्यकर्त्ता, किसी नेता की कोई अहमियत नहीं होती।" " लेकिन यह तो सरासर फिरकापरस्ती है।" मैने साश्चर्य कहा - " इसे तो राजनीति से हर हाल में दूर रखना चाहिए। इसी ने तो देश को बर्बाद कर रखा है। इसके विरुद्ध तो हमें सख्त कानून बना देना चाहिए।" 18 मई 2002 जिनभाषित Jain Education International "वो कानून बनाइएगा तब, जब संसद मं पहुँचिएगा । पर संसद मे पहुँचने को होते हैं वोट दरकार, जो वैसे ही मिलते हैं जैसे हम कह रहे हैं। आगे आपकी मर्जी ।" इसके बाद जिस दल में घुसने की संभावना तलाशने का प्रयत्न मैने किया, उसे में 'ज' दल कहूँगा। जदल के स्थानीय प्रधान को मैंने अपेक्षाकृत विनम्र पाया। उन्होंने न केवल मेरा स्वागत किया बल्कि जदल में सम्मिलित होने का विचार करने हेतु मुझे धन्यवाद भी दिया। कहा- " आप जैसे लोगों की हमारे दल में अत्यंत आवश्यकता है। आपकी सोच, आपकी समझ, आपके अनुभव से हमें निश्चय ही लाभ होगा। वैसे एक बात बतलाएँ मान्यवर ! कि मंदिर को आप कितना आवश्यक मानते हैं ?" "बहुत आवश्यक स्थान मानता हूँ", मैने कहा-" आदमी के जीवन को सही दिशा देने में मंदिर का विशिष्ट योगदान होता है । प्रभु के दर्शन व आराधना से मन में शुद्ध विचारों का उदय होता है। आत्मा का कल्याण होता है। " "वही तो हम कहते हैं", मेरे प्रत्युत्तर से उत्साहित होते हुए उन्होंने कहा- "लेकिन हमारे विरोधी हैं कि हमारे मंदिर कहते ही भड़क उठते हैं। मानो हमने कोई अपशब्द कह दिया हो अथवा किसी साँड़ को लाल कपड़ा दिखा दिया हो। आप तो जैन साब! लोगों को मंदिर की महिमा समझाने में हमारी मदद कीजिए।" " जरूर करूँगा।" मैंने उन्हें आश्वस्त किया " लोगों को मंदिर का महत्त्व समझाऊँगा और मस्जिद का भी । गुरुद्वारा की महत्ता बतलाऊँगा और गिरजाघर की भी। धर्म की प्रभावना तो हर हाल में हितकारी होती है। हर धर्म की प्रभावना ।" मेरी बात सुनते ही प्रधान जी को सहसा अपने किसी अन्य महत्त्वपूर्ण कार्य की याद आ गई और मुझे साक्षात्कार का परिणाम तत्काल स्पष्ट हो गया। जाहिर है कि मेरे सत्प्रयत्नों के बावजूद किसी स्थापित राजनीतिक दल से मेरी पटरी नहीं बैठ पा रही थी, लेकिन इन थोड़े से दिनों में मेरे इर्द-गिर्द कुछ लोग एकत्रित होने लगे थे। सुबह-शाम घर पर कुछ लोग चाय-नाश्ते पर आने लगे थे। मेरे समर्थकों का एक गुट बन गया था। संयोग की बात कि इसी समय लोकसभा के चुनाव होने की घोषणा हो गई। मेरे मन में हूक उठी और मैं एक स्वतंत्र उम्मीदवार के रूप में चुनाव में कूद्र पड़ा । मेरे इस निर्णय की मिली-जुली प्रतिक्रिया हुई परिवार वालों ने मुझे मना किया। बहुत समझाया कि मेरा लोकसभा का चुनाव लड़ना किसी भी दृष्टिकोण से सही नहीं है। जीतने का तो सवाल ही नहीं उठता था, जमानत बचा पाने की भी गुंजाइश नहीं थी सेवानिवृत्ति पर मिली रकम का मटियामेट होना तय था। बुढ़ापे में मिट्टी पलीद होना निश्चित थी। लेकिन में जो था पिछले कुछ महीनों से उत्साह से लबालब चल रहा था । देशप्रेम की भावना हिलोरें मार रही थी और मेरे समर्थक मुझे जिताने के लिए For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.

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