Book Title: Jinabhashita 2002 05 Author(s): Ratanchand Jain Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra View full book textPage 8
________________ जैन धर्म की ऐतिहासिकता कैलाश मड़वैया आज जब इतिहास से छेड़खान विषयक विवाद गहराया । था। दान पत्र पर पश्चिमी एशियाई नरेश की मुद्रा भी अंकित है। हुआ है, तब कुछेक जगह तो सत्य को सिद्ध करने के लिए भी | यह काल ईसा पूर्व 1140 अनुमाना गया है। तेईसवें तीर्थंकर अस्मिता का संघर्ष सम्मुख आ खड़ा है। आज यदि राजनैतिक | पार्श्वनाथ तो महावीर स्वामी से मात्र 250 वर्ष पूर्व ही हुए थे, इतिहासकारों को ही इतिहास लिखने को दे दिया जाये तो यह प्रश्र | जिनका इतिहास में कई जगह उल्लेख है। हालाँकि वर्तमान इतिहास सुलझने की बजाय उलझता ही जायेगा। यह सही है कि राजनीति | ईसा के 500 वर्ष से आगे जाने को तैयार नहीं है। इसलिये यह 'ईथर' की तरह जीवन में हर जगह विद्यमान है, परन्तु कुछ जगहों | महावीर तक ठहर जाता है। पर यदि इससे नहीं बचा गया तो परिणाम गम्भीर तो हो ही गये हैं | प्राचीन ग्रन्थों में ही राम के काल में, तीर्थंकर मुनिसुव्रत के और अधिक भयावह होते जायेंगे। आज राजनीतिज्ञों ने धर्म में होने के संदर्भ मिलते हैं। परन्तु हैं ये पौराणिक प्रमाण ही, जिन्हें प्रवेश कर लिया है, साहित्य में 'वाद' का सिक्का चलता ही है, | प्रागैतिहासिक कहा जाता है। शिक्षा भी 'खेमों' में हैं। संस्कृति पृथक् होते हुए भी राजनीति ही | जहाँ तक प्रथम जैन तीर्थंकर ऋषभदेव का ऐतिहासिक हावी है, यह नया आक्रमण इतिहास पर हुआ है। प्रश्न है उस संबंध में विद्वानों का मत है कि तब के इतिहास मिलने वस्तुतः है यह "अंधों के हाथी" की तरह स्थिति । इतिहास का तो प्रश्न ही पैदा नहीं होता, इसलिये कथित रूप से हैं तो यदि शब्द के छपने से प्रारंभ मानेंगे तो बहुत कुछ छूट जायेगा। ऋषभदेव भी पौराणिक तीर्थंकर ही, परन्तु पुरातत्त्व के इतने ठोस शब्द के गढ़ने से मानते हैं तो श्रुति पर विश्वास करना पड़ेगा, | प्रमाण उपलब्ध हैं कि ऋषभदेव को काल्पनिक कहना अपने गाल जिसमें मानवीय निजत्व जुड़ने की सम्भावनाएँ तो हैं, पर और | पर तमाचा मारने जैसा प्रतीत होता है। कोई विकल्प भी नहीं है। श्रुति के ही आधार पर शास्रों और सिन्धु घाटी सभ्यता पुराणों की रचनाएँ हुई हैं. जिनमें वैयक्तिक निजत्व जुड़ा ही हुआ सन् 1922-23 में हड़प्पा और मोहनजोदड़ो की खुदाई से है । हाँ, पुरातत्त्व के आधार अवश्य शेष हैं, जिनको नकारा नहीं जा | प्राप्त सिन्धु घाटी की प्राचीन सभ्यता को ऐतिहासिक मान्यता प्राप्त सकता। हालाँकि, संभावनाएँ और अनुमान तो इसमें भी रहता है, | है। इस खुदाई में प्राप्त ईसा के 5000 वर्ष पूर्व की, दिगम्बर पर सत्य के पर्याप्त करीब रहता है। कायोत्सर्ग योग मुद्राओं की मूतियाँ जैन तीर्थंकरों के अस्तित्त्व की जब से कथित इतिहासकारों द्वारा जैन धर्म के चौबीस में पुष्टि करती है और उपलब्ध वृषभ का प्रतीक, चूँकि प्रथम जैन से तेईस तीर्थंकर ही काल्पनिक करार दे दिये गये, तब से सामान्यतः तीर्थंकर ऋषभदेव का ही होता है। अतः सहज ही उक्त प्रतिमा शान्त रहने वाले इस समाज के बुद्धिजीवियों में गम्भीर हलचल आदि जैन तीर्थंकर होने की पुष्टि करती है। इसी आधार पर जैन प्रारम्भ हुई है। धर्म को प्राग्वैदिक भी कहा जाता है। सत्य यह है कि तेईस तीर्थंकरों को काल्पनिक कह देने से डॉ. राधाकृष्णन् यद्यपि इतिहासकार नहीं, दार्शनिक थे पर वे इतिहासकार ही विवादित हो गये हैं, जो स्वयं अपने निष्कर्षों वे दर्शन में कल्पना को स्थान तो नहीं दे सकते थे। पुष्ट प्रमाणों के पर पूर्वाग्रहवश प्रश्नचिह्न लगा लेते हैं । यह ऐतिहासिक सत्य है कि | आधार पर ही उन्होंने अपनी कृति “इण्डियन फिलास्फी" के पृष्ठ यदि कृष्ण इतिहास पुरुष हैं तो तीर्थंकर नेमिनाथ (अरिष्ट जिन) | 287 पर कहा है -"ईसा पूर्व प्रथम शताब्दी तक लोग तीर्थंकर को नकारा नहीं जा सकता, क्योंकि वे श्रीकृष्ण के चचेरे भाई थे | ऋषभदेव की पूजा किया करते थे।" और जूनागढ़ एवं गिरनार में उनके पुरातात्त्विक अवशेष विद्यमान | इसीलिये प्रसिद्ध इतिहासविद् डॉ. एम.एल. शर्मा ने "भारत हैं। प्रसिद्ध पुरातात्त्विक डॉ. फूहरर, प्रो. वारनेट, कर्नल टॉड एवं | में संस्कृति और धर्म" पृष्ठ 62 पर मत व्यक्त किया है कि मोहनडॉ. राधाकृष्णन् तीर्थंकर नेमिनाथ की ऐतिहासिकता को स्वीकारते । जोदड़ो से प्राप्त मुहर पर जो चिह्न अंकित है, वह भगवान् ऋषभदेव हैं। टॉड ने तो खोज कर यह निष्कर्ष दिया था कि नेमिनाथ ही का ही हैं। यह चिह्न इस बात का द्योतक है कि आज से पाँच हजार स्केण्डिनेविया की जनता में प्रथम "ओडिन" तथा चीनियों के वर्ष पूर्व योगसाधना भारत में प्रचलित थी और उसके प्रवर्तक जैन प्रथम"फो" नाम के देवता थे। भारतीय इतिहास एवं दृष्टि (पृ.45) | धर्म के आदि तीर्थंकर ऋषभदेव थे। सिन्धु निवासी अन्य ग्रन्थों के में डॉ. प्राणनाथ विद्यालंकर ने काठियावाड़ से प्राप्त एक प्राचीन साथ ऋषभदेव की पूजा करते थे। ताम्रपत्र प्रकाशित किया था। उक्त दान पत्र पर उल्लेख है कि सुमेर उदयगिरि-खण्डगिरि (उड़ीसा) स्थित शिलालेख जाति में उत्पन्न काबुल के खिल्वियन सम्राट नेवुचंदनज्जर ने जो भुवनेश्वर के निकट स्थित पुरातात्त्विक तीर्थ उदयगिरिरेवानगर (काठियावाड़) का अधिपति था, यदुराज की द्वारका में | खण्डगिरि स्थित हाथी गुफा का शिलालेख मूर्ति इतिहास की दृष्टि आकर गिरिनार के स्वामी नेमिनाथ की भक्ति की तथा दान दिया | से अत्यंत महत्त्वपूर्ण प्रमाण है। शिलालेख का प्रारंभ, शाश्वत जिन 6 मई 2002 जिनभाषित - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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