Book Title: Jinabhashita 2001 11 Author(s): Ratanchand Jain Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra View full book textPage 9
________________ नामांकित किया जाए। शायद इससे केवल धन ही महिमामंडित नहीं | दुष्ट मानते हैं तथा दूसरी उपजाति वालों से घोर ईर्ष्या, द्वेष और घृणा होगा, विद्वत्ता और सज्जनता को भी प्रतिष्ठा मिलेगी, फलस्वरूप | करते हैं, उनके बारे में दुष्प्रचार करते हैं, उनकी छबि को दृषित करते लोग धार्मिक अनुष्ठानों में प्रमुखता पाने के लिये विद्वान् और सज्जन | हैं, उनकी प्रगति में रोड़े अटकाते हैं तथा सामाजिक, आर्थिक और बनने का भी प्रयत्न करेंगे। धार्मिक रूप से उन्हें हानि पहुँचाने की कोशिश करते हैं। हमारे वात्सल्य ज्ञानकाण्ड का आधार साधर्म्य नहीं, अपितु समान उपजाति है। 'धर्मी सों गोवच्छ यद्यपि ज्ञानकाण्ड की प्रवृत्ति कर्मकाण्ड की अपेक्षा दूसरे नम्बर प्रीति सम कर निज धर्म दिपावै' इस उपदेश को हम ताक पर रख देते हैं। यह महामिथ्यात्व-प्रेरित उपजातिद्वेष-विष हमारी धमनियों में पर है, फिर भी व्रतकाण्ड और भावकाण्ड से अधिक है। किन्तु वह भी प्रायः भावकाण्ड से विरक्त होकर चल रहा है। स्वाध्याय होता इस हद तक व्याप्त हो गया है कि अब तो हमारी मुनिभक्ति भी उपजाति के आधार पर बँट गई है, हमारे मन्दिर अलग-अलग हो है, किन्तु कुछ स्वाध्यायी अनेकान्तवाद का गला घोंट कर एकान्त गये हैं, हमारी प्रतिमाएँ अलग-अलग हो गई हैं, हमारे तीर्थ अलगनिश्चयवाद या एकान्त व्यवहारवाद का प्रचार करते हैं। शास्त्रों के अनुवाद और भावार्थ में आगमविरुद्ध स्वाभीष्ट मान्यताओं का अलग हो गये हैं। शब्दब्रह्म की हमारी जन्मजन्मान्तरीय साधना पानी अपमिश्रण कर सर्वज्ञ की वाणी को दूषित करते हैं। मान लेते हैं कि को बिलोने और रेत को पेलने के समान निरर्थक सिद्ध हो रही है। वर्तमान में कोई सच्चा मुनि हो ही नहीं सकता। फलस्वरूप वे सच्चे ज्ञानकाण्ड चल रहा है, सम्यग्दर्शन की परिभाषाओं का मुनियों को भी 'नमोऽस्तु' नहीं करते, न उनका प्रवचन सुनते हैं, न विश्लेषण किया जा रहा है और हम त्रिमूढ़ताओं में फँस रह हैं। उन्हें आहार देते हैं। वे मिथ्या मुनियों के समान सच्चे मुनियों की भी 'भगवती' नाम देकर पद्मावती यक्षिणी की पूजा प्रचलित की जा रही है। मंत्रतंत्र में रत साधुओं की उपासना की जा रही है। इनके जन्मदिन निन्दा करते हैं। सच्चे मुनियों की जगह वे निश्चयाभास का प्रतिपादन करने वाले पण्डितों के प्रवचन सुनते हैं और उनके द्वारा लिखित अब पाश्चात्यशैली में मनाये जाने लगे हैं। जैसे पश्चिमी सभ्यता में अनुवादित ग्रन्थों का स्वाध्याय करते हैं तथा उन्हें ही मन्दिरों में रखते रंगे विषयभोगी गृहस्थ अपना जन्मदिन केक काटकर मनाते हैं, उसी हैं, ताकि उनकी एकान्तवादी मान्यताएँ सभी श्रावकों के मस्तिष्क में प्रकार मुनियों के जन्मदिन पर भी केक काटे जाने लगे हैं, अष्टद्रव्य प्रविष्ट हो जाएँ। अतः जब कोई सर्वज्ञ के मूल उपदेश की रक्षा के में एक नया पाश्चात्य नैवेद्य शामिल किया जा रहा है। शायद आगे लिए उन ग्रन्थों को मंदिर से हटाने का प्रयत्न करता है, तो उन्हें भद्दी चाकलेट और टाफियों का नम्बर आ जाय। मूढ़भक्ति के अन्धकार गालियों से अपमानित किया जाता है। दूसरा पक्ष भी युक्ति और में डूबे श्रावक जिनतीर्थ को लज्जित करने में कितनी प्रगति कर रहे सहिष्णुता से काम नहीं ले पाता, जिससे मारपीट हो जाती है। मामला पुलिस में चला जाता है। लोग हँसते हैं कि महावीर के उपदेशों से विद्वानों में भी परस्पर सौमनस्य दृष्टिगोचर नहीं होता। पत्रविश्व की समस्याएँ सुलझाने का उपदेश देने वाले जैन खुद अपनी पत्रिकाओं में वे एक-दूसरे पर कीचड़ उछालते हुए देखे जाते हैं। उनके समस्याएँ महावीर के उपदेशों से नहीं सुलझा पाते और उन्हें पुलिस संगठन अखण्ड नहीं रह पाते। तथा कोर्ट का सहारा लेना पड़ता है। इस प्रकार जैन ही महावीर के इस तरह हम देखते हैं कि ज्ञानकाण्ड भी भावकाण्ड की संगति से वंचित हैं। उपदेशों को बदनाम करने की चेष्टा में लगे हुए हैं। यह मारपीट मुनिभक्तों और मुनिनिन्दकों में ही होती हो. सो | व्रतकाण्ड नहीं। मुनिभक्तों में भी परस्पर हो जाती है। पर उसका कारण शास्त्र श्रावकों की धार्मिक प्रवृत्ति में व्रतकाण्ड तीसरे नम्बर पर है। नहीं, अपितु मन्दिरों और क्षेत्रों का स्वामित्व तथा उपजातीय विद्वेष | बहुत कम गृहस्थ ऐसे हैं, जिन्होंने विधिवत्, श्रावकव्रत ग्रहण किये होता है। सागर (म.प्र.) में घटी ताजा घटना इसका उदाहरण है। वहाँ | हो। प्रतिदिन देवदर्शन और पूजन करनेवाले तथा घर की चक्की के मुनिभक्तों के परस्पर विरोधी गुटों ने मंगलगिरि को अमंगलगिरि बनाने | आटे और कुए के पानी का उपयोग करने वाले गृहस्थ अल्पसंख्यक में कोई कसर नहीं छोड़ी। स्वाध्याय करते हुए श्रावक रटते रहते हैं- | ही हैं। श्रावकप्रतिमाएँ धारण करने वाले तो और भी अल्प हैं। किन्तु जीवादि प्रयोजनमूत तत्त्व, सरधै तिन माहिं विपर्ययत्व।। कुछ अपवादों को छोड़कर इनमें भी विनय, वात्सल्य, मैत्री, प्रमोद चेतन को है उपयोग रूप, बिन मूरत चिन्मूरत अनूप।। कारुण्य, माध्यस्थ्य आदि भावों के दर्शन दुर्लभ होते हैं। वर्षों से व्रतों पुद्गल नभ धर्म अधर्म काल, इनतें न्यारी है जीव चाल। का पालन करने वाली, शुद्ध अन्न-जल का सेवन करने वाली माताओं ता को न जान विपरीत मान, करि करें देह में निज पिछान।। | और उनकी बहुओं में इतनी कटुता और असहिष्णुता रहती है कि उनका फिर भी उन्हें आत्मा और देह की भिन्नता का ज्ञान नहीं होता। | अधिकांश समय अशान्ति में ही बीतता है। बेला, तेला और रविव्रत वे देहाश्रित उपजातियों के आधार पर साधर्मियों को भी श्रेष्ठ और हीन, | करने वाली जिठानी और देवरानी एक-दूसरे को फूटी आँखों नहीं शिष्ट और दुष्ट मानते हैं। उपजाति और कुछ नहीं, स्थानादि की | देखतीं। उन्हें शीघ्र ही अपने चूल्हे अलग-अलग करने पड़ते हैं। व्रतधारी समानता के कारण समुदायविशेष के लिये प्रसिद्ध हआ एक नाम है। पुरुषों का व्यापार या सेवा कार्य में अनैतिक मार्गों का अवलम्बन इन भिन्न-भिन्न नामोंवाले प्रत्येक समुदाय या उपजाति में श्रेष्ठ और ज्यों का त्यों चलता रहता है। दहेज की माँग करने में उन्हें जरा भी हीन पुरुष होते हैं। किन्तु हम अपनी उपजाति के लोगों को सर्वथा | पाप महसूस नहीं होता। दशलक्षण पर्व में दस दिन तक एकाशनश्रेष्ठ और शिष्ट तथा दूसरी उपजाति के लोगों को सर्वथा हीन और | उपवास करने के बाद भी पुराने वैरों का मैल मन से नहीं धुल पाता - नवम्बर 2001 जिनभाषित 7 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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