Book Title: Jinabhashita 2001 11
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 26
________________ नारीलोक जैन संस्कृति एवं साहित्य का मुकुटमणि कर्नाटक और उसकी कुछ ऐतिहासिक श्राविकाएँ प्रो. (डॉ.) श्रीमती विद्यावती जैन जिनालय का निर्माण छने हुए र उसे बड़ी | बसतिका कह विदुषीरत्न पम्पादेवी पूर्वांकों में कर्नाटक की पाँच ऐतिहासिक हुम्मच के सन् 1147 ई. के एक | समन्वयवादी थे। चन्द्रमौली होयसल नरेश श्राविकाओं के यशस्वी जीवन पर शिलालेख में विदुषी रत्न पम्पादेवी का बड़े वीर बल्लाल द्वितीय का महामन्त्री था और | प्रकाश डाला गया था। प्रस्तुत अंक में ही आदर के साथ गुणगान किया गया है। राज्य-संचालन में अत्यंत कुशल एवं धीरउसके अनुसार वह गंग-नरेश तैलप तृतीय अन्य ग्यारह श्राविकाओं की गौरव वीर। की सुपुत्री तथा विक्रमादित्य शान्तर की बड़ी गाथा वर्णित की जा रही है। अपने पति की सहमति पूर्वक आचबहिन थी। उसके द्वारा निर्मापित एवं चित्रित लदेवी ने सन् 1182 के दशक में अनेक चैत्यालयों के कारण उसकी यशोगाथा सवतिगन्धवारण का अर्थ है - सौतों (सवति) | श्रवणबेलगोल में अत्यंत भव्य एवं सुरम्य का सर्वत्र गान होता रहता था। उसके द्वारा के लिए मत्त हाथी। यह शान्तला देवी का एक | विशाल पार्श्व-जिनालय का निर्माण करवाया आयोजित जिन-धर्मोत्सवों के भेरी-नादों से उपनाम भी था। इस जिनालय में सन् 1122 था, जिसकी प्रतिष्ठा देशीगण के नयकीर्ति दिग-दिगन्त गूंजते रहते थे तथा जिनेन्द्र की ई. के लगभग भगवान शान्तिनाथ की मनोज्ञ | सिद्धान्तदेव के शिष्य बालचन्द्र मुनि ने की ध्वजाओं से आकाश आच्छादित रहता था। प्रतिमा स्थापित की गई थी। थी। यह जिनालय 'अक्कनवसदि' के नाम से कन्नड़ के महाकवियों ने उसके चरित्र- इस मन्दिर में प्रतिष्ठापित जिनेन्द्र के | प्रसिद्ध है। चित्रण के प्रसंग में कहा है कि - 'आदिनाथ अभिषेक के लिये उसने पास में ही गंग समुद्र कहा जाता है कि श्रवणबेलगोल में चरित का श्रवण ही पम्पादेवी के कर्णफूल, नामक एक सुन्दर बारामासी जलाशय का भी | उक्त वसदि ही एक ऐसा मन्दिर है, जो चतुर्विध-दान ही उसके हस्त-कंकण तथा निर्माण कराया था। साथ ही उसने नित्य | होयसल कला का एक अवशिष्ट तथा उत्कृष्ट जिन-स्तवन ही उसका कण्ठहार था। इस देवार्चन तथा जिनालय की भावी सुव्यवस्था कला का नमूना है। इस वसदि की व्यवस्था पुण्यचरित्रा विदुषी महिला ने उवितिलक- तथा सुरक्षा आदि के निमित्त अनेक गाँवों की के लिये स्वयं चन्द्रमौलि मंत्री ने अपने नरेश जिनालय का निर्माण छने हए प्रासक जल से | जमींदारी भी उसके नाम लिख दी थी। उक्त | से विशेष प्रार्थना कर कम्मेयनहल्लि नामक केवल एक मास के भीतर कराकर उसे बडी | बसतिका के तृतीय स्तम्भ पर एक शिलालेख | कर-मुक्त ग्राम प्राप्त किया था और उसे उक्त ही धूमधाम के साथ प्रतिष्ठित कराया था। भी उत्कीर्ण है जिसमें उक्त रानी की धर्म- | मंदिर की व्यवस्था के लिये सौंप दिया था। पम्पादेवी स्वयं पंडिता थी। उसने | परायणता की विस्तत प्रशंसा करते हए उसे जिनेन्द्र भक्त लक्ष्मी देवी अष्टविधार्चन-महाभिषेक एवं चतुर्भक्ति नामक अनेक विशेषणों से विभूषित किया गया है। जिस प्रकार गंग-नरेशों ने जैन धर्म के दो ग्रन्थों की रचना भी की थी। उसमें उल्लिखित उसके कुछ विशेषण निम्न प्रचार-प्रसार में बहुआयामी कार्य किये, पट्टानी शान्तलादेवी प्रकार हैं विद्यापीठों की स्थापना की, जैनाचार्यों को ___ अभिनव रुक्मिणी, पातिव्रत प्रभावश्रवणबेलगोल के एक शिलालेख में लेखन-कार्य हेतु सुविधा सम्पन्न आश्रय स्थल प्रसिद्ध सीता, गीत-वाद्य सूत्रधार, मनोजहोयसल वंशी नरेश विष्णुवर्द्धन की पट्टानी निर्मित कराये, उसी प्रकार उनकी महारानियों राज-विजय-पताका, प्रत्युत्पन्न-वाचस्पति, शान्तलादेवी (12वीं सदी) का उल्लेख बड़े ने भी उनका अनुकरण कर नये-नये आदर्श विवेक-बृहस्पति, लोकैक-विख्यात, भव्यही आदर के साथ किया गया है। वह प्रस्तुत किये। जन-वत्सलु, जिनधर्म-निर्मला, चतुःसमय पतिपरायण, धर्मपरायण और जिनेन्द्र-भक्ति ऐसी महिलाओं में से सेनापति गंगराज में अग्रणी महिला के रूप में विख्यात थी। समुद्धरण, सम्यक्त्व चूडामणि आदि-आदि। की पत्नी लक्ष्मी (12वीं सदी) का नाम संगीत, वाद्य-वादन एवं नृत्यकला में वह आचल देवी विस्मृत नहीं किया जा सकता। पति-परायणा निष्णात थी। आचार्य प्रभाचन्द्र सिद्धान्तदेव आचल देवी (12वीं सदी) के जीवन होने के साथ-साथ वह जिनवाणी-रसिक एवं इसके गुरु थे। में एक बड़ी भारी विसंगति थी। उसका पति | जिनेन्द्रभक्त भी थी। उसे अपने पति की शान्तला ने श्रवणबेलगोल के चन्द्रगिरि चन्द्रमौली शैवधर्म का उपासक था, जबकि | 'कार्यनीतिवधू' और 'रणेजयवधू' कहा गया के शिखर पर एक अत्यन्त सुन्दर एवं विशाल वह स्वयं जैनधर्मानुयायी, किन्तु दोनों के | है। एक शिलालेख के अनुसार उसने जिनालय का निर्माण करवाया था, जिसका जीवन-निर्वाह में कोई कठिनाई नहीं आई, | श्रवणबेलगोल में ‘एरडुकट्टे वसदि' का नाम 'सवति-गन्धवारण-वसति' रखा गया। क्योंकि स्वभावतः दोनों ही सहज, सरल एवं | निर्माण कराया था। वह अपनी सासु-माता 24 नवम्बर 2001 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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