Book Title: Jinabhashita 2001 11
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 25
________________ जब पाकिस्तान के साथ युद्ध हुआ तो मैंने वही कविता एक पत्रिका में प्रकाशित करवा दी थी। कविता से मेरे रिश्ते का बस इतना ही इतिहास था जिसकी जानकारी मेरे कुछ सहपाठियों और रिश्तेदारों तक ही सीमित थी । इकबाल भाई को यह खबर कहाँ से मिली, यह मेरे लिए शोध का विषय था । बहरहाल, अपने आप को संयत रखते हुए मैंने कहा ' इकबाल भाई, ऊपर पहुँच कर सुनना ही ठीक होगा। फिर एक मिसरा ही क्यों पूरा शेर कहिएगा और भरपूर दाद लीजिएगा।' 2 'लेकिन तब तक तो बात जेहन से निकल जायेगी।' इकबाल भाई ने कहा । 'और जो आप जीप को यों ही कुछ देर और खड़ा रखें तो मेरी जान निकल जायेगी' मैंने कहा 'सो आप बेफिकर रहें साब।' उन्होंने कहा- 'ऐसा कुछ नहीं होगा। आप शायद जानते नहीं, पहले मैं सर्कस में जीप चलाया करता था। फिलहाल तो हुजूर गौर फरमाएँ ।' अब मेरे पास इरशाद कहने के अलावा अन्य कोई रास्ता नहीं था । इकबाल भाई ने मिसरा सुनाया। मैंने बाकायदा 'बहुत खूब' कहा। उन्होंने ब्रेक पर से पैर हटा कर एक्सीलेटर पर दबाव बढ़ाया तथा झटके से क्लच छोड़ा। जीप पहले नीचे की ओर लुढ़की। फिर थम गई और फिर आगे चल पड़ी तब मेरी जान में जान आई। इसके बाद जब कभी मुझे इकबाल भाई के साथ राजहरा पहाड़ पर जाने का संयोग होता तो मैं उनसे नीचे ही पूछ लेता कि कोई मिसरा तो नहीं बन पड़ा। वह मुस्करा कर दो-चार शेर कह डालते और तरोताजा महसूस करते हुए जीप चलाने लगते। उपर्युक्त प्रकरण के उपरान्त, राजहरा वासियों में मेरे अफसर होने के बावजूद कवि होने की खबर फैल गई। लोगों की दृष्टि में मेरे प्रति अतिरिक्त सम्मान परिलक्षित होने लगा। खदान प्रबंधन ने भी मेरे कवि होने को उचित महत्त्व देते हुए उस वर्ष विश्वकर्मा पूजा पर कव्वाली के बजाय अखिल भारतीय कवि सम्मेलन कराने का निर्णय लिया और मुझे यह दायित्व सौंपा कि इस कवि सम्मेलन में भाग लेने के लिये मैं दो स्थानीय कवियों का चयन करूँ। Jain Education International तब मुझे इस बात का कतई गुमान नहीं था कि इस जिम्मेदारी को लेकर मैं अपनी फजीहत कराने के रास्ते पर चल पड़ा था। इकबाल भाई की मदद से जब मैंने स्थानीय कवियों को मिलने के लिए बुलाया तो उमड़ पड़ी भीड़ को देखकर आश्चर्य चकित रह गया। कुल अढ़सठ कवि थे। राजहरा नगर की पच्चीस सौ की आबादी के मुकाबले कवियों की संख्या राष्ट्रीय औसत से बहुत ज्यादा थी। मानो राजहरा, खनिकर्मियों की नहीं, कवियों की बस्ती हो । लगा कि देश के ज्यादातर कवियों ने राजहरा में लौह अयस्क के उत्खनन का कार्य अपना लिया था। इस भीड़ में से दो कवियों का चुनाव उसी तरह चुनौती पूर्ण कार्य था जिस तरह कि आजकल हाईकमान का किसी राज्य के मुख्यमंत्री के चुनाव का होता है। प्रबंधन के नियम कि 'चयन न केवल निष्पक्ष होना चाहिए बल्कि निष्पक्ष दिखना भी चाहिए' का पालन करते हुए मैंने स्वयं की अध्यक्षता में एक कमेटी गठित की जिसमें हिन्दी और उर्दू भाषा के शिक्षकों का समावेश किया और चयन प्रक्रिया प्रारंभ कर दी जो कि बाकायदा एक सप्ताह तक चली। इस चयन कार्य में जो अनुभव हमें हुए उनका विस्तृत वर्णन तो यहीं नहीं करूंगा, पर संक्षेप में इतना अवश्य कहूँगा कि तकरीबन हर कवि में अपनी कविताएँ निरंतर सुनाते रहने की ललक पागलपन की हद तक पायी गयी। एक बार जो चालू होता था वह बंद होने का नाम ही नहीं लेता था। ज्यादातर कविताओं में भावों का नितांत अभाव पाया गया। भाषा के मामले में बहुतेरे कवियों को व्याकरण के 'रिफ्रेशर कोर्स' की आवश्यकता प्रतीत हुई। शायरों में कई के सीन काफ दुरुस्त नहीं थे। जो कवि सूर, तुलसी, मीर, कबीर, गिरधर या गालिब से प्रभावित थे वे अपने प्रेरणा स्रोत से बेहिचक काफी कुछ जस का तस ग्रहण करते पाए गए। अनेक कवि छंद में मात्रा और तुक के बंधन पर विश्वास नहीं करते थे। जो नई कविता लिखते थे वे स्वयं उसका अर्थ बतला पाने में सक्षम नहीं पाए गए। इन सभी विषमताओं के बीच सही कवि को ढूंढ निकालना चारे के ढेर से सुई खोजने के समान था । चयन प्रक्रिया के चलते भी, इकबाल For Private & Personal Use Only भाई को उनके चयन का पूरा भरोसा था। अन्य कवि भी इसे लगभग तय मानकर ही चल रहे थे पर कोई कुछ बोलकर अपनी उम्मीदवारी खतरे में नहीं डालना चाहता था। लेकिन प्रक्रिया के सम्पूर्णता तक आते-आते इकबाल भाई का विश्वास हिलने लगा। चयन समिति के सदस्य जिस तरह मीन-मेख निकाल रहे थे, चुनाव के ईमानदारी से होने का अंदेशा हो रहा था। इकबाल भाई ने खुफिया तौर पर जब और खोज बीन की तो उन्हें यह लगभग निश्चित ही जान पड़ा कि उनका नाम चयनित सूची में नहीं था। बस ! फिर क्या था? असंतोष भड़क उठा। सभी कवि इकबाल भाई के नेतृत्व में चयन प्रक्रिया के विरुद्ध बोलने लगे। जिसका चुना जाना तय हो, जब वही चुनाव के तरीके के खिलाफ बोले तो भला कौन उसकी बात नहीं मानेगा? सभी कवि एक स्वर में चयनकर्ताओं की काबलियत पर संदेह करने लगे। कुछ तो यह कहते सुने गए कि अफसरों का तो काम ही कर्मचारियों में फूट डालना था उन्हें आपस में लड़ाते रहना था और वो जो अफसरनुमा कवि चयन समिति के अध्यक्ष थे उन्हें कवि मानता कौन था? अफसरी का कविता से भला क्या सरोकार ? फिर जो कवि सम्मेलन होगा उसमें सभी स्थानीय कवियों की कविता पाठ करने का अवसर क्यों नहीं मिलना चाहिए ? बाहर से कवि बुलाने की दरकार ही क्या है ? और यह भी कि यदि कवि सम्मेलन होगा तो सभी अदसठ कवि एक साथ मंच पर बैठेंगे, वरना कवि सम्मेलन नहीं होने दिया जावेगा। इसके बाद जो हुआ वह औद्योगिक संस्कृति के अनुकूल ही था। कर्मचारी यूनियन बीच में कूद पड़ी। प्रबंधन के विरुद्ध नारे बाजी चालू हो गई। औद्योगिक विवाद खड़ा हो गया और इस प्रक्रिया में कवि सम्मेलन बैठ गया। तब से मैंने कवि और कविता से दूर का भी संबंध न रखने की कसम खा ली। अब कोई व्यक्ति यदि परिचय देते हुए कहता है। 'मैं कवि हूँ।' तो प्रत्युत्तर में मैं कहता हूँ मैं बहरा - - हूँ।' 7/56 ए, मोतीलाल नेहरू नगर (पश्चिम) भिलाई (दुर्ग) छत्तीसगढ़-490020 नवम्बर 2001 जिनभाषित 23 www.jainelibrary.org

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