Book Title: Jinabhashita 2001 11 Author(s): Ratanchand Jain Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra View full book textPage 8
________________ की तलाश करते रहते हैं और यदि उनका कोई उच्च अधिकारी इसमें बाधा डालता है तो वे उस पर प्राणघातक हमला कर देते हैं। उनका क्रोध इस हद तक चला जाता है कि उस पद पर यदि साधर्मीबन्धु होता है तो उसे भी नहीं बख्शते। यह साधर्मी पर प्रहार नहीं, धर्म पर ही प्रहार है, क्योंकि आचार्य समन्तभद्र ने कहा है। 'न धर्मों धार्मिकैर्विना।' इतना ही नहीं, ये कर्मकाण्डप्रेमी एक ओर विश्वशान्ति महायज्ञ का आयोजन करते हैं और हवन कुण्ड में विश्वशान्ति की कामना करते हुए आहुतियाँ प्रदान करते हैं, दूसरी ओर अपने ही साधर्मी बन्धुओं के हाथ से किसी तीर्थ, मंदिर या धर्मशाला का कब्जा हथियाने के लिए लाठियों के प्रहार से उनका सिर फोड़ देते हैं। कहीं-कहीं यह भी देखा जाता है कि धार्मिक अनुष्ठानों या मंदिर आदि के निर्माण के लिये इकट्ठे किये गये धन को कुछ अति धर्मात्मा श्रावक विभिन्न तरीकों से हड़प लेते हैं। वस्तुतः वे इसे अपना उद्योग ही बना लेते हैं। इसीलिए ऐसे श्रावक धार्मिक अनुष्ठानों के आयोजन हेतु जी जान से पुरुषार्थ करते हैं। बोलियों का द्वन्द्वात्मक मनोविज्ञान वर्तमान में कर्मकाण्डों के आयोजन हेतु धन जुटाने की जो पद्धति है वह भी भावकाण्ड को चोट पहुँचानेवाली है। इसमें धन जुटाने के लिये इन्द्र, चक्रवर्ती, कुबेर आदि पदों के लिए नीलामी बोलियाँ लगायी जाती हैं। यह धन जुटाने की मनोवैज्ञानिक पद्धति है। इससे मनुष्य की मानकषाय तुष्ट होती है। मनुष्य में दूसरों को हीन और स्वयं को श्रेष्ठ सिद्ध करने की दूसरों की पराजय और अपनी विजय का झण्डा लहराते हुए देखने की आदिम प्रवृत्ति होती है। इसे मानकषाय कहते हैं। नीलामी बोलियाँ इस आदिम प्रवृत्ति को तुष्ट करने का अवसर देती हैं। जब किसी पद के लिए नीलामी बोली लगती है, तब श्रावकों में प्रतिस्पर्धा की भावना उत्पन्न हो जाती है, एक बोलीयुद्ध शुरु हो जाता है। इसमें जो बोली जीत लेता है वह समाज में आदरणीय और प्रशंसनीय बन जाता है। अतः बोली युद्ध में प्राप्त विजय उसे असीम आनन्द का अनुभव कराती है। इस आनन्दानुभूति के लिए मनुष्य ऊँची से ऊँची बोली लगाने की कोशिश करता है, फलस्वरूप अधिक से अधिक धन इकट्ठा हो जाता है। इस प्रकार नीलामी बोली धन जुटाने का मनोवैज्ञानिक उपाय है। यदि यह उपाय न अपनाया जाए तो पंचायती कार्य के लिये धनी से धनी आदमी भी इतना पैसा गाँठ से निकालने के लिये तैयार नहीं होगा। पहले ये कर्मकाण्डीय आयोजन पंचायती नहीं होते थे, अपितु कोई एक व्यक्ति स्वयं उनका आयोजन करता था और सारे धन की व्यवस्था उसी के द्वारा की जाती थी। इसके पीछे उसकी धर्मसाधना की भावना होती थी, कषायतुष्टि की नहीं इसलिये नीलामी बोलियों की आवश्यकता नहीं होती थी। आजकल सारे धार्मिक अनुष्ठान पंचायती होने लगे हैं, इसलिये नीलामी बोलियाँ आवश्यक हो गई हैं। धार्मिक अनुष्ठानों के पंचायती हो जाने के कारण व्यवस्था बनाने के लिए भी बोलियाँ एक मनोवैज्ञानिक उपाय होती हैं। यदि नीलामी बोली न रखी जाये तो समाज के सभी लोग इन्द्र-इन्द्राणी चक्रवर्ती 6 नवम्बर 2001 जिनभाषित Jain Education International · आदि बनने के लिये तैयार हो जायेंगे, किन्तु सबका इन्द्र-इन्द्राणी आदि बनाना संभव नहीं है, क्योंकि सौधर्म इन्द्र, कुबेर, चक्रवर्ती आदि के पद एक-एक ही होते हैं। अतः हजारों लोगों में से कुछ ही लोगों को चुनना आवश्यक हो जाता है। यह चुनाव इन्द्रादि पदों की नीलामी बोली द्वारा ही सरलतया हो पाता है। किन्तु इसका एक प्रतिपक्षी मनोविज्ञान भी है। इसके साथ एक ऐसी बुराई जुड़ी हुई है जो बहुत खतरनाक संदेश देती है। नीलामी बोली लगाने का मतलब है धनवान् को धार्मिक कार्यों में प्रमुखता देकर धन को सम्मानित करना और निर्धनता को अपमानित करना, लोगों के मन में यह भाव भरना कि धन के सामने विद्वत्ता, सौजन्य (निर्लोभ, न्याय-मार्गावलम्बन, अनुकम्पा, औदार्य) आदि अन्य गुण तुच्छ हैं। जो लोग बोली युद्ध में निर्धनता के कारण पराजित हो जाते हैं, वे हीनता के भाव से ग्रस्त हो जाते हैं। उनके मन में यह भाव उत्पन्न होता है कि धन ही समाज में सम्मान और धार्मिक कार्यों में प्रमुखता पाने का एकमात्र साधन है। यह भाव उनके मन में अपरिग्रह की निस्सारता और धन की सारमूलता में आस्था पैदा करता है। फलस्वरूप वे भी धनार्जन को जीवन का साध्य बना लेते हैं और जिन अच्छे-बुरे तरीकों से दुनिया के लोग धन कमाते हैं, उन्हीं तरीकों से वे भी कमाने में लग जाते हैं। नीलामी बोलियाँ यह अधःपतनकारी सन्देश देती हैं। पूज्यपादस्वामी ने कहा है कि दान के भाव से कमाना पुण्य के भाव से पाप करना है त्यागाय श्रेयसे वित्तमवित्तः सञ्चिनोति यः । स्वशरीरं स पहून स्नास्वामीति विलिम्यति ।। दूसरी ओर बोलीयुद्ध में दिग्विजय प्राप्त करनेवाले की मानकषाय का ठिकाना नहीं रहता। पहले वह धन को सारभूत समझने वाले लौकिक पुरुषों के बीच में ही सम्मानित होता था, अब धन को निस्सार समझने वाले कुछ साधुसन्तों के बीच में भी प्रतिष्ठा प्राप्त कर लेता है। फलस्वरूप उसकी मानकषाय में चार चाँद लग जाते हैं। दूसरी बात यह कि धन के द्वारा धर्मक्षेत्र में दिग्विजय प्राप्त कर लेने के बाद उसकी धनाकांक्षा पर विराम लग जाता हो, उसकी आरम्भ-परिग्रह की प्रवृत्ति परिमित हो जाती हो, सो बात नहीं है। उसका न्याय-अन्यायपूर्ण तरीकों पर आधारित धनार्जनतन्त्र ज्यों का त्यों चलता रहता है। अर्थात् बोलीयुद्ध में विजय प्राप्त कर पाण्डुकशिला पर भगवान का अभिषेक करते हुए भी वह लोभकषाय और मानकषाय की बेड़ियों में ज्यों का त्यों जकड़ा रहता है, उसके धनार्जनतन्त्र में अनैतिक मार्ग का अवलम्बन यथावत् कायम रहता है। इस प्रकार कर्मकाण्ड ही फलता-फूलता रहता है, भावकाण्ड नदारद रहता है। वस्तुतः दान करना निर्लोभ होने का लक्षण नहीं है, दान करना तो अकृपण या उदार होने का लक्षण है। अनावश्यक धन कमाने की लालसा न होना निर्लोभ होने का लक्षण है। बोलीपद्धति की बुराई को सीमित करने का एक उपाय यह हो सकता है कि जैसे लोकसभा के लिये वोटों से चुनाव होता है और राज्यसभा के लिए कुछ सदस्य साहित्य, कला आदि के क्षेत्रों में विशिष्ट योगदान करने वालों में से मनोनीत किये जाते हैं, वैसे ही इन्द्रादि पदों के लिए कुछ लोगों का चुनाव नीलामी बोली के माध्यम से किया जाय और कुछ लोगों को विद्वानों और सज्जनों के बीच से For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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