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लगभग उसी अर्थ में पहले दिगम्बर सम्प्रदाय में मूलसंघ का उपयोग किया जाता होगा, किन्तु आगे चलकर यह संज्ञा रूढ़ हो गई, अपने मूल अर्थ आगमोक्त चर्या को बतलाने वाली नहीं रही और इसलिए जब मूलसंधी भी शिथिल होकर चैत्यवासी मठपति बन गये तब भी यह उनके पीछे लगी रही। यहाँ तक कि खूब ठाठवाट से रहने वाले भट्टारक भी इसे पदवी के रूप में धारण किये रहे ।
इस तरह जिन्होंने पहले द्राविड संपादि को जैनाभास कहा था, वे मूलसंघी भी आगे चलकर जैनाभास बन गये। इसके एक नहीं, बीसों प्रमाण मिले हैं जिनमें से थोड़े से ये हैं
1. मर्करा का दान-पत्र प्रसिद्ध है। उसमें श. सं. 388 (वि. 523) में महाराजा अविनीत द्वारा कुन्दकुन्दान्वय के चन्द्रनन्दि भट्टारक को जैन मंदिर के लिए एक गाँव दान किये जाने का उल्लेख है।
2. राजाधिराज विजयादित्य ने पूज्यपाद के शिष्य उदयदेव को शंख-जिनेन्द्र' मन्दिर के लिए श. सं. 622 में कर्दम नाम का गाँव दान दिया ।
3. राष्ट्रकूट कृष्ण तृतीय के सामन्त अरिकेसरी ने श. सं. 888 में अपने पिता बदिग के बनवाये शुभधाम जिनालय की मरम्मत और चूने की कलई कराने तथा पूजोपहार चढ़ाने के लिए सोमदेव (यशस्तिलक के कर्ता) को निकटुपुलु नाम का गाँव दान में दिया ।"
कराया था।
इन सब लेखों से स्पष्ट है कि हमारे इन बड़े-बड़े मुनियों के अधिकार में भी गाँव बगीचे आदि थे। वे मंदिरों का जीर्णोद्धार कराते थे, दूसरे मुनियों को आहार देते थे और दानशालायें भी बनवाते थे। गरज यह कि उनका रूप पूरी तरह से मठपतियों जैसा था ओर इसका पता विक्रम की छठी शताब्दि के बाद के लेखों से लगने लगता है।
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यह तो नहीं कहा जा सकता कि मठवासियों के समय में शुद्धाचारी और तपस्वी दिगम्बर मुनियों का अभाव हो गया होगा अथवा सारा जनसमुदाय उन्हीं का अनुयायी बन गया होगा। शुद्ध शास्त्रोक्त आचार के पालने वाले और उनकी उपासना करने वाले भी रहे होंगे, फिर भी वे विरल ही होंगे। जैसा कि पं. आशाधर ने कहा है - 'अफसोस है, सच्चे उपदेशक मुनि जुगनू के समान कहीं-कहीं ही दिखलाई देते हैं - 'खद्योतवत् सुदेष्टारो हा द्योतन्ते क्वचित् क्वचित्।'
संदर्भ
1. दर्शनसार, गाया 27
2.
3.
5.
इसके बाद के तो सैकड़ों दानपत्र हैं। जिनमें मूलसंघी और कुन्दकुन्दान्वय के 6. मुनियों को गाँव और भूमियाँ दान की गई हैं। श्रवणबेलगोल का जैन शिलालेख संग्रह तो ऐसे दानों से भरा हुआ है। नं. 80 के श.सं. 1080 के शिलालेख के अनुसार महाप्रधान हुल्लमय्य ने होय्सल-नरेश से सवणेरु गाँव इनाम में पाकर उसे गोम्मटस्वामी की अष्टविधपूजा और ऋषिमुनियों के आहार " के हेतु अर्पण कर दिया। नं. 90 के श. सं. 1100 के लेख में भी पूजन और मुनियों के आहार के लिए नयकीर्ति सिद्धान्तचक्रवर्ती को दान देने का उल्लेख है। 40 नं. के लेख से मालूम होता है कि हुल्लप मन्त्री ने अपने गुरु उन देवेन्द्रकीर्ति पंडित देव की निषिद्या बनवाई जिन्होंने रूपनारायण मन्दिर का जीर्णोद्धार कराया था और एक दान- शाला का भी निर्माण
4. एपिग्राफिआ इण्डिका जिल्द 2, पृष्ठ 237-40
जै. सि. भा. भाग, किरण 2-3
जैन शिलालेखसंग्रह का 493 नं. का शिलालेख ।
8.
9.
जैन शिलालेख संग्रह द्वि. भा. पू. 60-61 इण्डियन एण्टिक्वेरी जिल्द 7, पृ.
209-17
7. पुव्वायरियकथाई गाहाई संचिऊण एवत्थ । सिरिदेवसेणगणिणा धाराए संवसंतेण ॥ रहओ दंसणसारो....
म. म. ओझाकृत सोलंकियो का इतिहास। 'सोमदेव का नीतिवाक्यामृत' शीर्षक लेख पृ 177-96
10. इन्द्रनन्दिकृत नीतिसार से भी जो केवल मुनियों के लिये बनाया गया है(अनगारान्प्रवक्ष्यामि नीतिसारसमुच्चयम्), इन बातों की पुष्टि होती है कि मुनि लोग मंदिरों का जीर्णोद्धार करते थे, आहार-दान देते थे और थोड़ा बहुत धन भी रखते थे।
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महावीर निर्वाण महोत्सव
अनूपचन्द न्यायतीर्थ महावीर निर्वाण महोत्सव हर्ष पूर्वक अबकी बार ऐसा मने मिटे अँधियारा ज्ञान ज्योति का हो संचार
महावीर निर्वाण हो गया कार्तिक मावस प्रातः काल संध्या केवल ज्ञान ज्योति से ज्योतित गौतम हुए निहाल
देवों ने आ दीप जलाये घर-घर में था मंगलाचार वातावरण शांति का अद्भुत किया सभी ने जयजयकार |
मना रहा है विश्व समूचा पूरा वर्ष 'अहिंसा वर्ष रोगमरी दुर्भिक्ष नहीं हो युद्ध टलें होवे उत्कर्ष ।
महावीर निर्वाण महोत्सव पच्चीसौ ढाईस महान देता है सन्देश सभी को दूर करो जग का अज्ञान ।
दीवाली का महापर्व यह जगहितकारी सुखदातार मन की कीट कालिमा धोकर सिखलाता है विनय अपार ।
जगमग जगमग ज्योति लाकर करता है निर्भय संसार धरती को धनधान्य पूर्णकर मानवता का करे प्रचार |
जीओ और जीने दो सबको जीने का सबको अधिकार नहीं सताओ किसी जीव को करते रहो सदा उपकार
महावीर निर्वाण महोत्सव दीवाली का सुन्दर मेल उग्रवाद आतंकवाद का मिटा सकेगा सारा खेल | 769, गोदीकों का रास्ता, किशन पोल बाजार, जयपुर 302003) नवम्बर 2001 जिनभाषित
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