Book Title: Jinabhashita 2001 10 Author(s): Ratanchand Jain Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra View full book textPage 3
________________ आपके पत्र, धन्यवाद : सुझाव शिरोधार्य _ 'जिनभाषित' का सितम्बर-अंक मिला। सम्पादकीय | दिया है। मैं तो इसको सन्तशिरोमणि पूज्य आचार्य विद्यासागर जी आलेख पढ़कर आपकी कलम को चूम लेने का मन हुआ। मन्दिरों का ही चमत्कार मानता हूँ। उनके चरणों में शत-शत नमन। में फिल्मी संगीत का प्रवेश और फिल्मी धुनों के मनोविज्ञान पर सतीशचन्द्र जैन नायक इतने सशक्त, तर्कपूर्ण और प्रभावक ढंग से प्रहार अभी तक किसी छीपीटोला 30/46, ने नहीं किया, हार्दिक बधाई। चुंगी स्कूल के सामने, आगरा-282001 युवा पीढ़ी को आकर्षित करने के नाम पर आज हम अपने जिनभाषित पत्र 5-6 माह से लगातार समय पर आ रहा है। धर्मायतनों मंदिर, धर्म-सभा, धार्मिक अनुष्ठान आदि में क्लब सभी लेख आगमसम्मत पठनीय प्रकाशित होते हैं। अभी सितम्बर संस्कृति को अपनाते जा रहे हैं, बिना यह सोचे-समझे कि इसके के अंक में आपका सम्पादकीय 'वैराग्य जगाने के अवसरों का दूरगामी परिणाम अपनी वीतरागता-प्रधान संस्कृति के मूलोच्छेदन मनोरंजनीकरण' लेख पढ़ा। हम जैसे विधानाचार्यों, पूजा करनेवाले में ही सहायक सिद्ध होंगे। मनोरंजनीकरण का अन्धानुकरण अपने पूजार्थियों एवं पूजा के सुनने वाले श्रद्धालुओं के लिये बहुत ही उपयोगी पैरों पर स्वयं कुल्हाड़ी मारने जैसा है। आज तो हमारे कुछ पूज्य है। संगीतकारों द्वारा आज की फिल्मी तर्ज पर अश्लील शब्दों की साधुगण भी धर्मसभाओं में ऐसे-ऐसे अटपटे और चटपटे प्रश्न, ध्वनियों का प्रसारण वास्तव में सभी जनों के लिय अनुपयोगी होता जिनका धर्म से दूर-दूर तक कोई सम्बन्ध नहीं होता, पूछकर सस्ता है। प्राचीन राग-रागिनियाँ हितकर थीं। आज केवल मनोरंजन रह गया मनोरंजन परोस रहे हैं। इन टोटकों और चुटकुलों से सम्मोहित होकर है। प्रतिष्ठाचार्यों, विधानाचार्यों को चिंतन करना चाहिए, समाज के बड़ी भीड़ें जुटती हैं और उस भीड़ को हम प्रभावना मान लेते कर्णधारों को भी ध्यान देना चाहिए। ये विधानादि सुसंस्कारों के लिये हैं। ऐसी धर्मसभाओं से लौटकर आनेवाले साधर्मी बन्धु इस प्रवृत्ति और पुण्यवर्धन के लिये किये जाते हैं। पूजा में भक्तिसंगीत, नृत्यादि की आलोचना करते हुए तो देखे जाते हैं, किन्तु मजा लेने की होना बुरा नहीं है, अच्छा है। लिखा है - 'धवल मंगलगानरवाकुले' आदत से लाचार होकर स्वयं उस भीड़ का हिस्सा भी बनते रहते उसका पालन तो होना ही चाहिए! मन भी लगा रहे और शुभ कर्म हैं। संस्कृति की सुरक्षा यदि करनी है तो हमें ऐसे आदतबिगाडू भी बँधते रहें। लेख के लिये आपको हार्दिक बधाई। कार्यक्रमों का बहिष्कार करना सीखना होगा। प्रतिष्ठाचार्य पं. लाड़लीप्रसाद जैन _ 'जिनभाषित' अच्छा निकल रहा है। स्वच्छ मुद्रण, आकर्षक सज्जा एवं सुरुचिपूर्ण सामग्री- इन तीनों ही दृष्टियों से स्तरीय है। पापड़ीवाल भवन, सवाई माधोपुर (राज.) स्व. मुख्तार सा. का आलेख पुराना होते हुए भी ताजा लगता आपकी सुन्दर पत्रिका का सितम्बर अंक देखकर प्रसन्नता हुई। है, आज भी वह उतना ही प्रासंगिक है, जितना तब था। श्री चित्र-चयन, छपाई-सफाई आकर्षक है। सामग्री भी उपयोगी है। शिखरचन्द्र जी का व्यंग्य भी विचारोत्तेजक और मखमली चोट इतिहास में भ्रांति पैदा करनेवाली कुछ गलतियाँ खटकती हैं, जिन करनेवाला है। पर आपका ध्यान दिलाना चाहता हूँ। ठीक समझें तो अगले अंक आवरण पर जिनका चित्र दिया जाये, उनके बारे में एक में मेरा यह पत्र प्रकाशित करने की दया करें। परिचयात्मक आलेख भी अवश्य रहना चाहिए। शेष शुभ। सुष्टु डॉ. श्रीमती विद्यावती जी के लेख में गुल्लिकाज्जी की मूर्ति प्रकाशन के लिये साधुवाद! का उल्लेख है। प्रसिद्ध इतिहास के अनुसार यह मूर्ति राजा चामुण्डराय नरेन्द्रप्रकाश जैन, द्वारा स्थापित नहीं है। यह तो उनके दौ सौ वर्ष बाद, 12वीं शताब्दी सम्पादक- जैन गजट की कलाकृति है। चामुण्डराय के सामने तो मंदिर का कोट-दरवाजा 104, नई बस्ती, फीरोजाबाद (उ.प्र.) कुछ भी नहीं बना था, सब बाद में बने हैं। इनके निर्माण का अधिकृत इतिहास उपलब्ध है, उसे देखना चाहिए। 'जिनभाषित' (सितम्बर 2001) में आपका सम्पादकीय लेख पूज्य ब्र, अमरचंदजी ने कुण्डलपुर के उदासीन आश्रम को 'वैराग्य जगाने के अवसरों का मनोरंजनीकरण' पढ़ने को मिला। दिगम्बर जैन समाज का प्रथम उदासीन आश्रम लिखा है। उसी लेख अत्यंत प्रसन्नता हुई। आपने समयोचित साहसिक कदम उठाकर धर्म में लिखा है कि इसके एक वर्ष पहले इंदौर का आश्रम उन्हीं ब्रह्मचारीजी के पाश्चात्यीकरण का मर्मभेदी चित्रण किया है। आज लगा कि जैनधर्म की उपस्थिति में स्थापित हो चुका था। उनके लिखने में या तो तारीखों के स्वरूप को विकृति से बचाने की चिन्ता करने वाले पुरुष भी इस की भल है. या फिर कण्डलपर के आश्रम को दिगम्बर जैन समाज धरा पर मौजूद हैं। का प्रथम आश्रम कहना गलत है। दोनों तो सही हो नहीं सकते, तब स्व. पं. जुगलकिशोर मुख्तार का आलेख 'भवाभिनन्दी मुनि पत्रिका की विश्वसनीयता पर आँच आती है, अतः इसका स्पष्टीकरण और मुनिनिन्दा' को पढ़ा तो रोंगटे खड़े हो गये। इस लेख ने पत्रिका | कराना चाहिए। की निर्भीकता प्रमाणित की है, बहके श्रावकों को मार्गदर्शन और साहस धन्यवाद और प्रणाम, पंजक शाह -अक्टूबर 2001 जिनभाषित 1 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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