Book Title: Jinabhashita 2001 10
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 24
________________ व्यंग्य य प्रजातंत्र से मेरी रिश्तेदारी शिखरचन्द्र जैन प्रजातंत्र में आंदोलनों का मन्थरगति से चलने वाले ये जुलूस अथवा बारातें 'वो ऐसा है कि मुझे दिल्ली वही स्थान है जो समुद्र में लहरों ट्रैफिक को कितनी देर जाम करके रखेंगी, यह कोई नहीं जरूर ही पहुँचना है .' उन्होंने का। जिस तरह मंद-मंद बयार के कहा। 'अब रेलगाड़ी चलेगी तो साथ उठती-गिरती लहरें समुद्र में बतला सकता। न ही इस मामले में कोई किसी की कुछ | पहुँच ही जाओगे -' मैं बोला। सर्वदा विद्यमान रहती हैं, उसी मदद कर सकता है। आखिर हैं तो सभी एक स्वतंत्र देश वही तो', उन्होंने जरा तरह नाना प्रकार के जन-समूहों में के स्वतंत्र नागरिक, जिन्होंने बाकायदा शासन की | मुस्कराते हुए कहा, 'किसी बात उत्तरोत्तर बलवती होती विभिन्न | प्रजातांत्रिक प्रणाली अपना रखी है, जिसके अंतर्गत वे | का भरोसा तो है नहीं. प्रजातंत्र जो लालसाओं से प्रेरित आंदोलन अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का मूल अधिकार रखते हैं। ठहरा। इसलिये थोड़ा समय हाथ प्रजातंत्र में निरंतर चलते रहते हैं। में रख कर चलना चाहिए।' जिस तरह वातावरण में निम्न दाब के क्षेत्र | ___ 'तो आठ बजे चले जाना। अभी तो बनते रहने से समुद्र में अक्सर तूफान उठ फैले! | दो घंटे हैं।' आते हैं, उसी तरह प्रजातंत्र में कई प्रकार के लेकिन लगता है कि मेरी कामनाओं में, 'इन दो घंटों में तो मेरे दिमाग की नसें दबावों के वशीभूत हो आंदोलन बहुधा उग्रता चाहतों में, दुआओं में कहीं कोई भारी कमी फूल जायेंगी। आटो-रिक्शा यदि अभी आ धारण कर लिया करते हैं और जिस तरह रही है क्योंकि मैंने बहुतेरे लोगों को प्रजातंत्र जाता तो इतना संतोष हो जाता कि आटो मौसम विभाग आने वाले तूफान की तीव्रता के प्रति सर्वथा अनुदार रवैया अपनाते हुए | वाले हड़ताल पर नहीं हैं।' का अंदाज लगाते हुए, मछुवारों को समुद्र में देखा है। यहाँ तक कि कुछ लोग तो प्रजातंत्र 'नहीं हैं भैया, आटो-वाले हड़ताल पर न जाने की सलाह देते रहते हैं, उसी तरह की तीखी आलोचना करते हुए पाए गए हैं। नहीं हैं।' मैंने उन्हें आश्वस्त करते हुए कहा, आन्दोलन-कर्ता, शांतिपूर्ण आंदोलन का उनके विचार में, प्रजातंत्र ने देश की सारी 'और पेट्रोल पम्प वाले भी हड़ताल पर नहीं रुख, सरकारी हस्तक्षेप के कारण, कभी भी व्यवस्था को चौपट कर रखा है। वोटों की उग्रता की ओर मुड़ जाने की आशंका बतलाते राजनीति ने देश की लुटिया डुबो दी है। कोई ‘पर इस बात की क्या गारंटी है कि हुए, लोगों को घर से बाहर न निकलने की किसी के नियंत्रण में नहीं है, जिसकी जो मर्जी रास्ता खुला ही मिलेगा? हो सकता है कि उस सलाह दे दिया करते हैं। इससे सिद्ध होता है हो, सो करता है। आम आदमी का जीना दूभर समय कोई जुलूस निकल रहा हो या कोई कि प्रजातंत्र में आन्दोलन, समुद्र में लहरों की हो गया है। योजनाबद्ध तरीके से कोई भी काम शोभा यात्रा चल रही हो अथवा किसी की तरह ही नैसर्गिक एवं अवश्यंभावी होते हैं। कर पाना संभव नहीं रहा है। प्रशासन नाम बारात निकल रही हों,' मेहमान ने कहा- 'पता यहाँ, लगे हाथ, मैं यह बतलाता चलूँ की कोई चीज नहीं रह गई है। देश रसातल है! ये जुलूस वाले भले दस-बीस ही हों, पर कि हमारे देश में प्रजातंत्र का जन्म, मेरे जन्म की ओर प्रस्थान कर चुका है। गोया, प्रजातंत्र मेन रोड पर इस कदर फैल कर चलते हैं कि के बाद हुआ था। इस हिसाब से मैं प्रजातंत्र को कोसने-गरयाने के लिये जितने जुमले एक साइकिल भी उन्हें भेद कर आगे न निकल को अपना छोटा भाई मानता हूँ। मुझे यह सोचे जा सकते हैं, सभी इस्तेमाल किये जा सके और बारात वालों का तो कहना ही क्या? अच्छी तरह से याद है कि उन दिनों मैं सागर चुके हैं। मदमस्त होकर नाचते हुए लोग, आसमान में के पड़ाव स्कूल में पहली कक्षा का विद्यार्थी जिन्हें प्रजातंत्र के साथ मेरी रिश्तेदारी छेद कर देने पर उतारू फटाके और कानों के था जब प्रजातंत्र के जन्म के उपलक्ष्य में हमारे की जानकारी है उन्हें इस संदर्भ में जान पर्दे फाड़ देने की सामर्थ्य रखने वाले बाजों स्कूल में लड्डू बँटे थे। शुद्ध देशी घी में बने बूझकर मुझसे बात करने में जरा ज्यादा ही के बीच से कोई महावीर ही बारात को पारकर मोतीचूर के लड्ड का स्वाद जिह्वा पर चढ़ते आनंद आता है। मसलन, एक रोज, मेरे एक आगे निकलने का कौशल दिखला सकता है। ही प्रजातंत्र मुझे बहुत अच्छा लगा था, बहुत मेहमान, जिन्हें रात नौ बजे की गाड़ी से और मंथर गति से चलने वाले ये जुलूस ही प्यारा। इसलिये मैंने उसी दिन प्रजातंत्र से दिल्ली जाना था, शाम छह बजे से ही रेलवे अथवा बारातें, ट्रैफिक को कितनी देर जाम इक तरफा रिश्ता कायम कर लिया था और स्टेशन जाने हेतु व्याकुल नजर आए। कहने करके रखेंगी, यह कोई नहीं बतला सकता तब से अब तक मैं, प्रजातंत्र के सकुशल बने लगे- 'आटो बुलवा दो, मैं स्टेशन चल देता है। न ही इस मामले में कोई किसी की कुछ रहने की कामना, निरंतर करता रहा हूँ तथा मदद कर सकता है। आखिर हैं तो सभी एक चाहता रहा हूँ कि प्रजातंत्र अपने उद्देश्य में 'अजीब आदमी हो', मैंने कहा - 'यहाँ स्वतंत्र देश के स्वतंत्र नागरिक, जिन्होंने सदा सफल रहे तथा उसकी कीर्ति चहुँओर से स्टेशन पहुंचने में मुश्किल से पन्द्रह मिनिट बाकायदा शासन की प्रजातांत्रिक प्रणाली लगेंगे। बाकी समय वहाँ क्या आलू छीलोगे?' | 22 अक्टूबर 2001 जिनभाषित - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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