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जैन संस्कृति और साहित्य के विकास
में कर्नाटक का योगदान
प्रो. (डॉ.) राजाराम जैन आदिपम्प सम्भवतः ऐसा
मुक्तकण्ठ से प्रशंसा की है। ऐसे प्रथम कन्नड़ जैन कवि था, जिसने माननीय लेखक ने पूर्वांक में कर्नाटक की भूमि को
दर्शनार्थियों में सुप्रसिद्ध पुराविद् कन्नड के 'आदिपराण' नामक ] अपने जन्म और साहित्यिक-सांस्कृतिक सर्जना से विभ
जेम्स फर्ग्युसन, बर्जेस, स्मिथ महाकाव्य में लिखा है कि - 'भरत | षित करने वाले जैनाचार्यों और कवियों की लम्बी सूची आदि प्रमुख हैं। जर्मनी के दार्शने अयोध्या में सम्राट पद ग्रहण प्रस्तुत की थी। प्रस्तुत लेख में उनके साहित्यिक और |निक विद्वान् डॉ. हेनरिच जिम्मर ने किया। हिमवत-पर्वत से लवण- सांस्कृतिक अवदान पर प्रकाश डाला जा रहा है। तो यहाँ तक लिखा है कि . सागर पर्यन्त षटखण्ड भूमण्डल
'आकृति एवं अंग-प्रत्यंगों की उसका शासन मानता था। उसके
संरचना की दृष्टि से यद्यपि यह धर्म-प्रेम की कीर्ति दिग्दिगन्त में व्याप्त थी। प्रजा भी राजा की भाँति | मूर्ति मानवीय है, तथापि अधर में लटकती हिमशिला की भाँति वह धर्म में अनुरक्त थी। ऋषभपुत्र भरत इस देश का प्रथम चक्रवर्ती सम्राट | अमानवीय-मानवोत्तर है और इस प्रकार जन्म मरण रूप संसार से हुआ इसीलिए उसके नाम पर आज भी यह देश 'भारत' कहलाता दैहिक चिन्ताओं से वैयक्तिक नियति, इच्छाओं, पीड़ाओं और
घटनाओं से असंपृक्त और पूर्णतया अन्तर्मुखी चेतना की वह सफल हम लोग तो यहाँ इतिहास सुनाने के लिये नहीं, बल्कि इस | अभिव्यक्ति है।' कर्नाटक की तपोभूमि की रज-वन्दन करने आये हैं और उसके स्वर्णिम | कर्नाटक ही नहीं, भारत के गौरव को उज्ज्वल करने वाली उस अतीत का स्मरण कर अपनी साहित्यिक ऊर्जा को प्रदीप्त करने के महान ऐतिहासिक मूर्ति ने निस्सन्देह ही श्रवणबेलगोला को भारत के लिये उत्तरापथ के कोने-कोने से चलकर यहाँ पहुँचे हैं। आज हमें स्मरण | पूर्वांचल स्थित तीर्थों के समान ही दक्षिणांचल को भी महान तीर्थ
आ रहा है, चरणपूज्य उस अरिहनेमि जैसे महामहिम शिल्पकार का, | बना दिया है। जिसने अपनी भरी जवानी में भी न केवल अपने परिवार की उपेक्षा हम उन राज-कुलों, जिनवाणीभक्त एवं साहित्य-रसिक गंग, की, अपितु अपनी भूख, प्यास एवं निद्रा को भी भूलकर सतत राष्ट्रकूट, चालुक्य एवं होयसल-नरेशों को भी सादर प्रणाम करते हैं, श्रद्धाभक्ति एवं समर्पित, निष्काम-भावना से विश्व को आश्चर्यचकित जिन्होंने सम्राट खारवेल के समान ही न केवल जैनधर्म के उत्तरोत्तर कर देने वाली उत्तुंग भव्य एवं एक-शिलाश्रित गोम्मटेश की मूर्ति को अभ्युदय के लिये अनेक द्वार खोले, अपितु जैनाचार्य-लेखकों, स्वामी घड़ा, जिसकी सुघड़ता और सौम्यता की प्रशंसा के लिये बोप्पण जैसे वीरसेन, जिनसेन आदि के लेखन-कार्य हेतु वाटनगर तथा तलकाट यशस्वी महाकवि के पास भी समर्थ शब्दों का अभाव हो गया था। | में सुविधा सम्पन्न विद्यापीठों एवं ग्रन्थागारों की स्थापना भी की, अतः उसे अपने तद्विषयक चरित-काव्य में भी लिखना पड़ा था कि जिनमें 5वीं सदी से 11वीं सदी तक विविध भाषा-शैलियों में विविध 'मेरे पास तो केवल टूटे-फूटे असमर्थ अथवा विकलांग शब्द मात्र | विषयक ग्रन्थों का लेखन-कार्य सम्पन्न किया गया। यदि महामन्त्री ही हैं, फिर भी मैं यह कहने के लिये बाध्य हूँ कि -
भरत एवं नन्न ने अक्खड़ एवं फक्कड़ महास्वाभिमानी अभिमानमेरु अतितुंगाकृतियादोडागदद रोल्सौन्दर्य मौन्नत्यमुं, पुष्पदन्त को अपने राजभवन में अत्यंत विनम्र भाव से आश्रय स्थान नुतसौन्दर्यनुभागे मत्ततिशयंतानागदौन्नत्यमुं।
न दिया होता, तो निश्चय ही अपभ्रंश का आद्य महापुराण एवं चरितनुतसौन्दर्यमुमूर्जिताशियमुं तन्नल्लि निन्दिर्युवें, साहित्य लिखा ही न गया होता। क्षितिसम्पूज्यमो गोम्मटेश्वरजिनश्री रूपमात्मोपम।।
प्रचण्ड पराक्रमी राष्ट्रकूट नरेश अमोघवर्ष तो आचार्य वीरसेन अर्थात् कोई भी मूर्ति आकार में जब बहुत ऊँची एवं विशाल | एवं जिनसेन से इतना प्रभावित था कि उसने अपना राज्यपाट ही होती है, तब उसमें प्रायः सौन्दर्य का अभाव रहता है। यदि वह विशाल | छोड़कर आचार्य जिनसेन से दीक्षा ले ली थी और उनके सान्निध्य भी हुई और उसमें सौन्दर्य-बोध भी हो, तो भी उसमें दैवी-चमत्कार में ही रहकर वह स्वयं कवि बन गया था। अपनी प्रश्नोत्तररत्नमालिका का उत्पन्न करना कठिन है लेकिन गोम्मटेश की इस मूर्ति में उक्त | के अन्त में उसने स्वयं लिखा हैतीनों के समुच्चय से उसकी छटा अलौकिक, अभूतपूर्व एवं विवेकात्त्यक्तराज्येन राज्ञेयं रत्नमालिका। वर्णनातीत हो गई है।
रचितामोघवर्षेण सुधियां सदलंकृतिः।।29।। देशवासियों को तो इस मूर्ति ने मोहित किया ही, भौतिकता अर्थात् हेय एवं उपादेय तत्त्वों का विवेक प्राप्त कर अपने के रंग में रंगे हुए पाश्चात्य-दर्शनार्थियों ने भी उसकी चारुता देखकर | साम्राज्य का त्यागकर मुझ अमोघवर्ष (भूतपूर्व राष्ट्रकूट- सम्राट तथा
24 अक्टूबर 2001 जिनभाषित
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