Book Title: Jinabhashita 2001 10
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 22
________________ काव्यसमीक्षा संवेदनाएँ और संस्मरण अमरनाथ शुक्ल मुझे अपने एक कविमित्र का 'अभी मुझे और धीमे कदम अचानक एक पत्र मिला - जैन मुनि 73 वर्षीय श्री अमरनाथ शुक्ल जाने-माने रखना है/अभी तो चलने की आवाज श्री क्षमासागरजी की एक कविता पत्रकार, उपन्यासकार, कोशकार और प्रकाशक हैं। आती है। पुस्तक प्रकाशित करना है, आप देख अब तक आपकी पच्चीस से अधिक पुस्तकें प्रकाशित कैसे विनम्र, निरभिमान हैं। लें। हो चुकी हैं। इनमें से एक उपन्यास 'अन्नदा' हिन्दी आज तो थोड़ी ही उपलब्धि में लोग एक दिन पाण्डुलिपि मिली। अकादमी दिल्ली द्वारा पुरस्कृत किया गया है। आपने न जाने कितना इतराने लगते हैं। उलट पुलट कर देखने लगा। मैं जैन आत्म साक्षात्कार में मुनिजी मारीशस में सम्पन्न विश्व हिन्दी सम्मेलन में भारत का मतावलम्बी नहीं, मुनिश्री जी के नाम कहते हैं - से पूर्व-परिचित नहीं था, पर कवि प्रतिनिधित्व किया था। छह वर्ष पूर्व आप मुनि श्री 'सारे आवरण टूट कर गिर गए क्षमासागर का परिचय मुझे उनकी क्षमासागर जी के सम्पर्क में आये और उनके काव्य हैं/अंतस के तमाम अवगुंठन खुल कविताओं से मिला। साहित्यिक रुचि एवं व्यक्तित्व से अत्यन्त प्रभावित हुए। प्रस्तुत लेख गए हैं/सचाई जो भी हो/मैंने तो सिर्फ और वृत्ति के कारण मैं कविताएँ में उन्होंने अपनी अनुभूतियों और संस्मरणों को | अपने को निकट से देखना चाहा है। पढ़ता ही चला गया। गंभीर होकर पर अपने को जानना, पाना | अभिव्यक्ति दी है। लेखनी हृदय को छू लेती है। सोचने लगा, एक वीतरागी मुनि के कितना कठिन है, आगे कहते हैं - मन में संवेदनाओं तथा भावों का का अवसर नहीं होता, क्षणभर में निर्णय और 'अपने को अपने में देखना/अपनी कितना कोमल अनराग है। राम झरोखे बेठ | क्रियान्वयन होता है। सागर में जन्में वीरेन्द्र सीमाएँ खुद तय करना/ अपने को चुपचाप के जीव जगत के क्रिया-कलापों, अनुभवों कुमार सिंघई नामक युवक एक दिन ऐसे ही सहना/कितना मुश्किल है/इस तरह नितांत तथा अनुभूतियों का कितनी सूक्ष्मता से मुजरा अपने माता-पिता. भाई-बहिन के स्नेहिल | अपना होना। लिया है? इस संत ने जो सूक्तियाँ लिखी हैं परिवार के मोह-माया के बंधन तथा एम.टेक. हम जीवन भर बाहरी भौतिकताओं को सतसैया के दोहों की तरह, जो देखन में छोटे की उच्च शिक्षा के बावजूद समस्त भौतिक पाने के लिये छटपटाते रहते हैं, भागते रहते लगे घाव करें (भाव भरें) गंभीर। इन सहज उपलब्धियों एवं भावी महत्त्वाकांक्षाओं को हैं। कभी भी अपने को पाने, जानने का प्रयास कविताओं में कैसा ऊँचा अध्यात्म भाव है, एक झटके में ही नकार कर दिगम्बरी राह पर नहीं करते। यदि ऐसा कर सकें तो देखिए कवि पढ़ते ही बनता है। मुझे एक प्रसंग याद आया। चल पड़ा। तकनीकी विज्ञानी होते हुए भी क्या कहता है - सूरदास तथा तुलसीदास समकालीन संत कितना आंतरिक ज्ञानी है, सब को देखने मेरे देवता/जब मैंने अपने भीतर कवि थे। एक दिन किसी ने सूरदास से कहा- परखने की कैसी सूक्ष्म दृष्टि है, कितना झाँका/अपने को देखना चाहा/पहिली बार 'बाबा! तुलसीदास बहुत अच्छी कविता मानवीय संवेदनाओं से लबरेज है? वह तुम्हें देखा/तुम्हें पाया। लिखते हैं। उनकी कविताओं की लोगों में बड़ी मनुष्यों की ही नहीं, चिड़ियों की भी भाषा जो दिव्य ज्योति हमारे अन्दर विराज चर्चा है।' समझता है, उनके क्रिया कलापों से उनके रही है उसे बाहरी अंधेरे में क्यों ढूँढ रहे हैं। सूरदास ने टोकते हुए कहा - 'तुम्हें भ्रम मनोविज्ञान को जानता है। यह मैं उनकी काव्य आत्म प्रकाश में ही परमात्मा के दर्शन होते है। मैं जानता हूँ, तुलसीदास को तो कविता अभिव्यक्ति में ही नहीं, बल्कि कई वर्षों से लिखनी आती ही नहीं, वह कविता क्या उनके सहज जीवन में भी निरंतर देखता आ ज्ञानी और दानी होने की लौकैषणा बड़ी लिखेंगे? कविता तो मैं लिखता हूँ, पढ़ कर रहा हूँ। प्रबल होती है। यह एषणा सिर पर चढ़ जाती देखो। तुलसी कविता नहीं मंत्र लिखते हैं, जो अध्यात्म की जिस डगर पर वे चल है। गर्वोन्मत्त कर देती है। लेबनान के एक पढ़ते ही मन में उतर जाता है, जो जपा, गुना रहे हैं, जैसा तपोनिष्ठ जीवन जी रहे हैं वैसी मनीषी खलील जिब्रान ने एक जगह लिखा और गुनगुनाया जाता है। ही अभिव्यक्ति। लिखते हैं - है- 'वही दान सार्थक होता है जिसमें दाता कवि क्षमासागर जी की कविताओं को यात्रा पर निकला हूँ/ लोग बार-बार यह न देख/जान पाए कि वह किसे दान दे पढ़कर मुझे लगा कि कविता के दौर में, पूछते हैं। कितना चलोगे । कहाँ तक जाना रहा है, तथा याचक यह न देख/जान पाए कवियों की भीड़ से अलग इस संत कवि ने है/ मैं मुस्करा कर आगे बढ़ जाता हूँ। किससे कि उसे किसने दान दिया। इससे न तो दाता मंत्र जैसा मनन करने योग्य लिखा है। कहूँ/ कहीं नहीं/ मुझे तो अपने तक आना है। के मन में यह अहंकार पैदा होगा कि उसने पूर्व जीवन की पृष्ठभूमि से थोड़ा पर विनत भाव से महसूस करते हैं, अमुक याचक की दीनता पर तरस खाकर परिचित हुआ तो और चमत्कृत हुआ। अक्सर अपने तक पहुँचने के लिये साधना अभी दान दिया और न याचक इस हीन भावना का यह देखा गया है कि जीवन में बहुत बड़े अधूरी है। अपने 'मैं' को मिटाना है, अहं को शिकार होगा कि उसके दैन्य पर तरस खाकर निर्णय के लिये सोच-विचार और ऊहा-पोह गलाना है, इसीलिये आगे कहते हैं - अमुक ने उसे दान दिया। 20 अक्टूबर 2001 जिनभाषित - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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