Book Title: Jinabhashita 2001 10
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 10
________________ क्षुधा-परीषह स्व. पं. जगन्मोहनलाल जी शास्त्री मोक्षमार्ग के यात्री साधुजनों को अनेक विपत्तियाँ सहज ही आती ग्रीषम काल पित्त अति कोपै लोचन दीप फिरै गलबाहीं। है। तथापि मोक्षपथ का पथिक इन सभी बाधाओं पर विजय प्राप्त नीर न चहै सहै ऐसे मुनि जयवन्तो बरतो जगमाहीं। कर अपने गन्तव्य की ओर सहज प्रयाण करता है। क्षुधा के सम्बन्ध में - ___ मोक्षमार्ग में आने वाली बाधाएँ अनेक प्रकार की हैं - अनशन ऊनोदर तप पोषत पक्ष मास दिन बीत गए हैं, (1) कुछ बाधाएँ तो शरीर सम्बन्धी हैं जो स्वयं उत्पन्न होती जो नहिं बनी योग्य भिक्षा विधि सूख अंग सब शिथिल भए हैं। हैं, जैसे- रोग, व्याधियाँ, अस्वस्थता, जरा आदि की बाधाएँ। ऐसी दुसह भूख की वेदन सहत साधु नहिं नेक नए हैं, (2) कुछ आगन्तुक बाधाएँ हैं जो ऋतुपरिवर्तन, क्षेत्र परिवर्तन तिनके चरण कमल की प्रतिदिन हाथ जोड़ हम पाँय परे हैं। तथा सहयोगियों की प्रतिकूलता से आती हैं। उक्त वर्णन से साधु के क्षुधा-परीषह का पूर्ण दिग्दर्शन हो जाता (3) कुछ बाधाएँ अन्य जन्तु प्राणियों द्वारा आती हैं, जो | है। अध्यात्मनिष्ठ मुनिजन देह की उपेक्षा करते है, उसे अपनी साधना वनवासी साधुओं को सहज प्राप्त होती रहती हैं। में सहायक तो बनाते हैं, पर उसके वश होकर देह-साधना नहीं करते। (4) कुछ बाधाएँ विपरीत बुद्धि वाले स्वार्थी लोगों द्वारा उत्पन्न | क्षुधा-परीषह सहन करने वाले व्यक्ति अन्त समय की सल्लेखना को की जाती है। भी सुखपूर्वक साध सकते हैं। ___(5) कुछ बाधाएँ शत्रुभाव रखने वाले धर्मद्वेषी व्यक्तियों द्वारा सल्लेखना देहान्त के समय के लिये अमृततुल्य है। कहा है - आती है। 'अन्तःसमाधिमरणं तपः फलं सकलदर्शिनः स्तुवते'। अर्थात् जीवन ___ इन सम्पूर्ण बाधाओं को जिन दो भागों में आचार्या ने विभक्त के अन्त में सल्लेखना जीवन भर की तपस्या का फल है, ऐसा किया है वे हैं- परीषह और उपसर्ग। उपसर्ग परकृत बाधा है, पर परीषह सकलदर्शी भगवान् केवली ने कहा है। अथवा सम्पूर्ण दर्शन जो तो स्वयं आगत बाधा है। निर्विकार निरपराध मुनिजन जो स्वयं किसी आस्तिक हैं जीव का सद्भाव (अस्तित्व) मानते हैं, वे भी कहते हैं से बैर नहीं करते, तथापि मिथ्यादृष्टि जन अपने विविध विकारी कि जीवन भर की तपस्या का फल समाधिमरण ही है। परिणामों के कारण उन पर भी अनेक प्रकार के प्रहार करते हैं। साधुजन | भगवती आराधना में आचार्य शिवकोटि ने लिखा है कि समताभाव से उसे सहन कर अपने कर्म की निर्जरा करते हैं। समाधिसहित मरण करने वाला नियम से सात-आठ भव में मुक्ति सब परीषहों में आदि परीषह क्षुधा-परीषह माना गया है। क्षुधा | गामी होता है। यह सहज संभाव्य है कि अन्तसमय क्षुधा तृषादि की अनादि कालीन शरीर की सहयोगिनी बाधा है जो एकेन्द्रिय से लेकर बाधाएँ नियम से उपस्थित होती हैं। शरीर क्षीण (बलहीन) होने से पंचेन्द्रिय पर्यन्त चारों गति के जीवों को प्राप्त है। उसका शमन करने बाधाएँ सहना कठिन प्रतीत होता है, तथापि जिसने पूर्वावस्था में क्षुधाका अपनी-अपनी परिस्थिति के अनुसार सभी प्रयत्न करते हैं, पर परीषह-जय को अपनी साधना का मुख्य अंग बनाया है वह देहान्त वे उसपर विजय प्राप्त नहीं कर पाते। सम्पूर्ण जीवन उस एक बाधा के समय उक्त बाधाओं से विचलित नहीं होता। थोड़ा-सा भी उपदेश को शमन करने में ही बीत जाता है, पर उसका शमन नहीं होता। उसकी कमजोरी में अवलम्ब बनकर साहस उत्पन्न कर देता है। अनन्तानन्त जन्म इस जीव के अनादि से हुए हैं और जब तक संसार- | आत्माराधना करने का इच्छुक अपनी दृष्टि बाहर से मोड़ता है दशा है तब तक यह बाधा नहीं जाएगी। वह शरीर धर्म बन गई है। जैसे अपने गृहकार्य में तत्परता से संलग्न व्यक्ति का ध्यान उस समय उस पर विजय प्राप्त करने का एक मात्र उपाय क्षुधा-परीषह का जीतना | पड़ौसी की गतिविधि पर, उसके सुख-दुख या हानि-लाभ पर नहीं है, वह अन्य उपायों से शमन नहीं की जा सकेगी। जैन साधुओं का जाता, इसी प्रकार आत्माराधक देह को पड़ौसी समझता है, उससे आहार इतने नियमों और नियंत्रणों से साध्य होता है कि जिससे वे राग-द्वेष-मोह नहीं करता, इसीलिए शरीर पर आने वाली बाधाएँ उसे क्षुधा के वशगत नहीं होते। आत्माराधना से नहीं हटा पातीं। अनशन, ऊनोदर आदि तप उसी क्षुधा-परीषह को जीतने के भेदज्ञानी अर्थात् देहात्म भेद-विज्ञान का धनी ही आत्माराधना लिये ही करते हैं। अनेक प्रकार के व्रत-उपवास-वेला-तेला आदि तथा में समर्थ होता है, वह व्यग्र नहीं होता। मुनिजनों का आहार परघर पर्व विशेष अर्थात् दशलक्षण पर्व तथा षोडशकारणव्रत, रत्नत्रय, होता है। वे आरंभ-परिग्रह के सर्वथा त्यागी हैं, मन-वचन-काय से आष्टाह्निक आदि पर्वो पर स्वयं स्वेच्छा से उपवास करते हैं। वे आहार तथा कृत-कारित-अनुमोदना से (3x3=9 भंगों से) आरंभ के प्रति के वश में नहीं हैं, किन्तु आहार उनके वश में है। यद्यपि यह सहज मुनि किञ्चिन्मात्र भी संबंध नहीं रखते। ऐसी अवस्था में देह के लिये ही शारीरिक बाधा है, परन्तु उन पर हावी नहीं है। अत्यावश्यक भोजन भी उनके लिए उपेक्षणीय बन जाता है। तृषा और क्षुधा-परीषह के संबंध में 'बाईस परीषह' नामक जैनागम की आज्ञाप्रमाण विधि से ही प्राप्त अन्न को वे ग्रहण काव्य में बहुत स्पष्ट उसका स्वरूप बताया है। लिखा गया है- करते हैं। उनका आहार केवल देह को संयमसाधना का माध्यम बनाने पराधीन मुनिवर की भिक्षा परघर लेय कहैं कुछ नाहीं। के लिये है, शरीर-पोषण के लिये नहीं। यही कारण है कि भोजन दिन प्रकृति विरुद्ध पारणा भुंजत बढ़त प्यास की त्रास तहाँ ही। | में केवल एक बार ही होता है, यथाप्राप्त ही लेते हैं, याचनारहित, 8 अक्टूबर 2001 जिनभाषित - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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