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'केवलणाण-दसण-सम्मत्त-चारित्त- वीरियाणमणेयभेय- | स्थिति में मुक्तात्माओं में भी भाव क्रोधादि उत्पन्न होने लगेंगे। किन्तु भिण्णाणं जीवगुणाणं विरोहित्तणेण तेर्सि घादिववदेसादो।'11 यह आगम विरुद्ध होने से मान्य नहीं है। अतः सिद्ध है कि जीव में इसके अतिरिक्त जीव के निष्क्रिय रहने पर धर्मादि द्रव्य उसे गति | स्वभावभूत कथंचित्परिणामित्व शक्ति है। यहाँ आचार्यश्री ने जीव आदि क्रियाओं में प्रवर्तित नहीं करते, किन्तु कर्म जीव की निष्क्रिय को सर्वथा परिणामी न बतलाकर कथंचित् परिणामी बतलाया है अवस्था में ही उसे रागादिरूप परिणत होने के लिये उद्दीप्त करते हैं। जिसका फलितार्थ यह है कि वह कथंचित् अपरिणामी भी है और यहाँ तक कि कभी-कभी प्रतिरोध किये जाने पर भी जीव को रागादि कथंचित् अपरिणामी होने से (रागादि की शक्ति स्वयं में न होने से) के वशीभूत कर देते हैं, जिससे उच्चभूमिका में स्थित साधक को ही रागादिरूप परिणमन के लिये कर्मोदय रूप निमित्त की आवश्यकता भी समाधि से च्युत होकर भक्ति आदि शुभराग में लगना पड़ता है। इससे यह बात स्पष्ट हो जाती है कि कर्मोदय रूप निमित्त कथंचित् है। और निम्न भूमिका में स्थित श्रावक यह जानते हुए भी कि विषय अपरिणामी को परिणमाता है अतः कर्म उद्दीपक निमित्त है। धर्मादिद्रव्य सुख हेय है, कर्मोदय के वशीभूत हो विषय-सेवन के लिये विवश कथंचित् अपरिणामी को नहीं परिणमाते, अपितु जो गत्यादि में स्वयं होते हैं। ये तथ्य प्रमाणित करते हैं कि कर्म धर्मादि द्रव्यों से भिन्न परिणत हो जाता है उसके ही गत्यादिपरिणाम में सहायता करते हैं। प्रकार के निमित्त हैं जिनका स्वभाव उदासीनरूप से सहायक होना इसलिये वे उदासीन हैं। नहीं है, बल्कि जीव के स्वभाव का घात करना तथा उसे परतन्त्र बनाने
| परिणाम विकार के हेतु का प्रयत्न करना है। इस अर्थ में ही उन्हें प्रेरक कहा गया है।
तात्पर्य यह कि कर्मों के मोहरागात्मक स्वभाव से प्रभावित आगम में जो यह कहा गया है कि जीव कर्मोदय के निमित्त
होकर मोहरागात्मक हो जाना ही जीव का कंथचित् परिणामी होना है। से स्वयं रागादिरूप परिणत होता है, कर्म उसे बलपूर्वक नहीं परिणमाते, यह जीव की कथंचित् परिणामित्व शक्ति को दर्शाने के
यह उसकी स्वभावभूत शक्ति है। यही स्वपरप्रत्ययपरिणमन है। लिये कहा गया है अर्थात् यह बतलाने के लिये कि जीव में कर्मों की
इससे इस तथ्य की विज्ञप्ति होती है कि आत्मा के परिणामों में जो
रागादि विकार आते हैं वे कर्मोद्दीपित ही हैं। आचार्य अमृतचन्द्र ने रागादि प्रकृति से प्रभावित होने की स्वाभाविक शक्ति है इसलिये वह उससे प्रभावित होकर रागादिरूप परिणत हो जाता है। यदि यह
साफ कहा है कि आत्मा के परिणाम में जो मिथ्यादर्शनादिरूप विकार
आता है वह परद्रव्य (कर्म) से ही उत्पन्न होता है - 'सः (त्रिविधः शक्ति न होती तो कर्म उसे बलपूर्वक प्रभावित न कर पाते। इसी
परिणामविकारः) तु तस्य स्फटिकस्वच्छताया इव परतोऽपि प्रभवन् स्वभावभूत परिणमन शक्ति को दृष्टि में रखकर जीव को रागादिभावों
दृष्टः ।'18 तथा 'तस्मिन्निमित्तं परसङ्ग एव।'19 का उपादानकर्ता तथा कर्मोदय को निमित्तमात्र कहा जाता है। 4
___ पूर्व में निर्देश किया गया है कि कर्मों का निमित्तस्वभाव विशेष स्वपरप्रत्ययपरिणमन
प्रकार का है, सामान्य प्रकार का नहीं। वे ऐसे निमित्त हैं जिनके कारण किन्तु इसका तात्पर्य यह नहीं है कि रागादिभाव भी जीव के आत्मा स्वाभाविक परिणमन छोड़कर विपरीत परिणमन करने लगता स्वभाव से ही उद्भूत होते हैं और कर्म उनकी उत्पत्ति में धर्मादिद्रव्यों है। इसे आचार्य अमृतचन्द्र ने इस प्रकार समझाया है- 'जैसे नीले, के समान उदासीनरूप से सहायता मात्र करते हैं। यदि ऐसा हो तो हरे और पीले पदार्थों के सम्पर्क से स्फटिक पाषाण के स्वच्छ स्वरूप रागादिभाव जीव के स्वभाव सिद्ध होंगे और उनकी उत्पत्ति के लिये में नील, हरित और पीत विकार आ जाते हैं, वैसे ही मिथ्यादर्शनकर्मरूप निमित्त की आवश्यकता सिद्ध न होगी, क्योंकि गत्यादिरूप ज्ञान-चारित्र स्वभाववाले मोहकर्म के संयोग से आत्मा के निर्विकार परिणमन के लिये धर्मादिद्रव्य तथा अन्य स्वाभाविक परिणमन के लिये | परिणाम में मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्या चारित्र ये तीन विकार केवल कालद्रव्यरूप निमित्त आवश्यक है। आत्मा का रागादिभावरूप उत्पन्न हो जाते हैं। 20 परिणमन स्वपरप्रत्ययपरिणमन है जो कुछ स्वतः होता है, कुछ कर्मों | चूँकि कर्मों का सम्पर्क ही निर्विकार आत्मा में विकारोत्पत्ति का के निमित्त से होता है। इस दृष्टि से आत्मा और पुद्गल कथंचित् ही हेतु है, अन्यथा उसमें विकार उत्पन्न नहीं हो सकता, अतः सिद्ध परिणामी हैं, कथंचित् अपरिणामी हैं। इसे आचार्य जयसेन ने है कि कर्म उदासीन निमित्त नहीं हैं, उद्दीपक हैं। निम्नलिखित विवेचन में स्पष्ट किया है
शक्ति का घात होने पर ही जीव रागादिरूप परिणत होता है 'यदि यह कहा जाए कि पुद्गलकर्मरूप द्रव्यक्रोध उदय में यहाँ एक महत्त्वपूर्ण बात ध्यान में देने योग्य है। कर्मोदय होने आकर जीव को बलपूर्वक भावक्रोधरूप परिणमा देता है तो प्रश्न है | पर जीव स्वयं रागादिरूप परिणत होता है, इसका तात्पर्य यह नहीं कि वह अपरिणामी जीव को परिणमाता है या परिणामी को? अपरिणामी है कि वह बिना किसी प्रतिरोध के परिणत हो जाता है। स्फटिक के को तो परिणमा नहीं सकता, क्योंकि जो शक्ति वस्तु में स्वतः नहीं समान परिणामी होते हुए भी वह स्फटिकवत् जड़ नहीं है कि कर्मोदय है उसे कोई दूसरा उत्पन्न नहीं कर सकता। जपापुष्पादि पदार्थ जिस होने पर बिना किसी प्रतिरोध के तटस्थभाव से रागादिरूप परिणम प्रकार स्फटिक आदि में उपाधि उत्पन्न कर देते हैं वैसे लकड़ी-खम्भे जाय। रागादिरूप परिणत होने में स्वभाव से च्युत होना पड़ता है, आदि में नहीं कर सकते, क्योंकि वे स्वतः परिणामी नहीं हैं। इसके जैसा कि श्री अमृतचन्द्र सूरि ने कहा है- 'परद्रव्येणैव... विपरीत यदि कर्म एकान्ततः परिणामी जीव को परिणमाते हैं तो उदय रागादिनिमित्तभूतेन शुद्धस्वभावात्प्रच्यवमान एव रागादिभिः में आये हुए द्रव्यक्रोधरूप निमित्त के बिना भी वह भाव क्रोधरूप परणम्येत। 21 स्वभाव सुख का हेतु है, विभावभाव (रागादिभाव) परिणमित हो सकता है, क्योंकि वस्तु में जो शक्तियाँ हैं वे पर की दुख के कारण हैं। कोई भी जीव सुख को छोड़कर दुःख स्वीकार नहीं उपेक्षा नहीं करती अर्थात् यदि रागादिभाव जीव में ही शक्ति रूप | करना चाहता। हम देखते हैं कि प्रायः लोग अशान्ति से बचने के में विद्यमान हो तो कर्मरूप निमित्त की आवश्यकता नहीं होगी। इस | लिये क्रोधादि के अवसरों को टालने का ही प्रयत्न करते हैं। असमर्थ
- अक्टूबर 2001 जिनभाषित 11
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