Book Title: Jinabhashita 2001 10
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 14
________________ होने पर ही उनके वशीभूत होते हैं। अतः कर्मोदय होने पर जीव उनके | है। 27 रागादि प्रभाव का प्रतिरोध ही करता है। जब परास्त हो जाता है तभी | इस कथन से भी यही प्रकट होता है कि कर्म जीव को कभीस्वभाव को छोड़कर रागादिरूप परिणत होता है। इस प्रकार कर्मों की कभी इतना अशक्त बना देते हैं कि वह उनके चंगुल से छूटने का शक्ति आत्मशक्ति को अभिभूत करने वाली है, जैसा कि पौरुष भी नहीं कर पाता। जब उनकी शक्ति मन्द होती है तभी उन अमृतचन्द्राचार्य ने कहा है - 'आत्मा हि ज्ञान दर्शनसुखस्वभावः पर प्रहार सम्भव होता है। संसारावस्थायामनादिकर्मक्लेशसङ्कोचितात्मशक्तिः '22 अर्थात् आत्मा सार यह है कि यद्यपि जीव कर्मोदय के निमित्त से स्वयं ही ज्ञानदर्शनसुखस्वभाव है, किन्तु संसारावस्था में अनादि कर्मों के उदय रागादिरूप परिणत होता है, तथापि कर्मोदय के दुर्धर्ष प्रभाव से ने उसकी शक्ति को संकुचित कर दिया है। इसीलिए ज्ञानवरणादि चार पराजित होने के बाद ही परिणत होता है। अतः उसका स्वयं परिणत कर्मों को घाती (आत्मस्वभावघातक) कहा गया है। अज्ञानी ही नहीं, होना भी विवशता का ही परिणमन है। इससे स्पष्ट होता है कि कर्म ज्ञानी भी कर्मों की अभिभावक शक्ति से परास्त हो जाते हैं यह पूर्व उदासीन नहीं है, अपितु अत्यंत आक्रामक हैं। में बतलाया जा चुका है। पंडित टोडरमल जी कहते हैं - 'जब कर्मों कर्मों को शत्रु की उपमा दी गई है। शत्रु उदासीन नहीं होता, का तीव्र उदय होता है तब पुरुषार्थ नहीं हो सकता, साधक ऊपर आक्रामक होता है, सहायक नहीं होता, बाधक होता है। उससे युद्ध के गुणस्थानों से भी गिर जाता है।23 पंडित आशाधरजी का कथन होता है और उसे जीत लेने पर व्यक्ति विजेता या 'जिन' कहलाता है। धर्मादि द्रव्यों को शत्रु की संज्ञा नहीं दी गई, क्योंकि वे उदासीन त्याज्यानजस्रं विषयान्पश्यतोऽपि जिनाज्ञया। होते हैं, आक्रामक नहीं, मित्रवत् सहायक होते हैं, शत्रुवत् बाधक मोहत्त्यक्तुमशक्तस्य गृहिधर्मोऽनुमन्यते।।24 नहीं। इस प्रकार कर्मों के प्रेरक होने का अर्थ है उनका आक्रामक, अर्थात् जिनेंद्रदेव के उपदेश से विषयों को निरन्तर त्याज्य उद्दीपक, अभिभावक, प्रयोजक, बाधक या घातक होना। इसी अर्थ समझते हुए भी जो चारित्रमोह के उदय से उनका त्याग करने में में उन्हें आगम में प्रेरक कहा गया है, अन्य किसी अर्थ में नहीं। यह असमर्थ हैं, उन सम्यग्दृष्टि भव्य जीवों के लिये गृहस्थधर्म की अनुमति उपर्युक्त प्रमाणों एवं युक्तियों से सिद्ध है। व्युत्पत्ति के अनुसार भी दी गई है। प्रेरक शब्द का यही अर्थ है। और उदासीन शब्द का प्रतिपक्षी होने यह कथन दर्शाता है कि कर्मोदय जीव की शक्ति का हरण के कारण भी उसका यही अर्थ फलित होता है। धर्मद्रव्य के स्वरूप कर उसे असमर्थ बना देता है, तभी वह विषय वासनाओं के वशीभूत | को स्पष्ट करते हुए आचार्य अमृतचन्द्र कहते हैंहोता है। कर्मों की अभिभावक शक्ति कितनी भीषण है यह आचार्य 'जैसे जल मछलियों के चलते समय न तो स्वयं चलता है अमृतचन्द्र जी के निम्न वक्तव्य से प्रकट हो जाता है न उन्हें चलाता है, किन्तु उदासीनरूप से उनके चलने में सहायता ___ 'इह सकलस्यापि जीवलोकस्य संसारचक्रक्रोडाधिरोपि- | करता है वैसे ही धर्मद्रव्य भी जीव और पुद्गल के चलने पर न स्वयं तस्य एकच्छत्रीकृतविश्वतया महता मोहग्रहेण गोरिव चलता है, न उन्हें चलाता है, अपितु उदासीन रूप से उनके चलने वाह्यमानस्य...।' 25 में सहायता करता है।' 28 अर्थात् यह जीवलोक जो संसाररूपी चक्र के मध्य में स्थित | इससे ज्ञात होता है कि अन्य द्रव्यों को किसी क्रिया के लिये है, समस्त विश्व पर एक छत्र राज्य करने वाले मोहरूप बलवान् पिशाच | उत्तेजित न करना, अपितु जो क्रिया वे स्वयं करते हैं, उसी में सहायता के द्वारा इस प्रकार हाँका जाता है, जैसे लोग बैल को हाँकते हैं। करना निमित्त के उदासीन होने का लक्षण है। प्रेरक शब्द उदासीन का इस कथन में "समस्त विश्व पर एकछत्र राज्य करने वाला' प्रतिपक्षी है। यह इस बात से स्पष्ट है कि आचार्य जयसेन ने 'उदासीन' 'बलवान् पिशाच' तथा 'जीवलोक को बैल के समान हाँकने वाला' | और 'अप्रेरक' शब्दों का प्रयोग एक ही अर्थ में किया है। अतः इन शब्दों से अच्छी तरह स्पष्ट हो जाता है कि कर्मों की शक्ति कितनी अन्य द्रव्य जो क्रिया स्वयं न करे (किन्तु उत्तेजित किये जाने पर कर दुर्धर्ष है। सके) उसे करने के लिये उत्तेजित करना या जो स्वयं करता हो उसमें इस दुर्धर्ष एवं जीव स्वभावघातक प्रकृति के कारण ही कर्मों बाधा डालना 'प्रेरक' शब्द का अर्थ है। कर्म इसी प्रकार का कार्य करते को शत्रु की उपमा दी गई है और उनको जीत लेने के कारण ही आत्माएँ है अतः वे इसी अर्थ में प्रेरक हैं। 'जिन' कहलाती हैं- 'अनेकभवगहनविषय-व्यसनप्रापणहेतून् | कर्म अपराजेय नहीं कर्मारातीन् जयतीति जिनः। 26 कर्म प्रेरक हैं, किन्तु अपराजेय नहीं है। वे आत्मा को अभिभूत कर्मों की प्रचण्ड शक्ति का ज्ञान श्री ब्रह्मदेव सूरि के करने की चेष्टा करते हैं, किन्तु जब उनका प्रभाव तीव्र नहीं होता, निम्नलिखित विवेचन से भी होता है - उस समय पौरुष करके प्रतिरोध किया जाय तो वे हावी नहीं हो पाते ___ "शिष्य प्रश्न करता है - संसारियों को निरन्तर कर्मबन्ध होता और इस प्रकार के निरन्तर पौरुष से उन्हें जड़ से उखाड़ा जा सकता है, इसी प्रकार उदय भी होता है, शुद्धोपयोग का अवसर नहीं है, | है। यह श्री ब्रह्मदेवसूरि के पूर्वोदधृत वचनों से प्रमाणित है। तब मोक्ष कैसे सम्भव है? उत्तर-जैसे शत्रु की क्षीणावस्था देखकर इस तरह आक्रामक, बाधक, उद्दीपक, घातक, अभिभावक मनुष्य पौरुष करके उसका विनाश कर देता है, वैसे ही कर्मों की भी आदि रूप में ही कर्म प्रेरक हैं। वे धर्मादिद्रव्यों के समान अनाक्रामक, सदा एक जैसी अवस्था नहीं रहती। उसमें प्रबलता और मन्दता होती अबाधक, अनुद्दीपक तथा जीव की स्वभावभूत क्रिया में सहायक नहीं रहती है। अतः जब मन्दावस्था आती है तब ज्ञानी जीव निर्मल भावना है। अतः उनसे (धर्मादिद्रव्यों से) सर्वथा विपरीत हैं। उनके इस प्रकार रूप विशेष खड्ग से पौरुष करके कर्मशत्रुओं का हनन कर डालता प्रेरक होने से मोक्ष के अभाव का प्रसंग उपस्थित नहीं होता। यदि 12 अक्टूबर 2001 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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