Book Title: Jinabhashita 2001 10
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 17
________________ तू सूरज परभात का, ये सूरज है साँझ डॉ. विमला जैन 'विमल' शुचि शिक्षालय वृद्धजन, सतत देत हैं सीख, वृद्ध देख हसना नहीं, भावी रूप स्व दीख। देख वृद्ध की झुर्रियाँ, अनुभव अक्षर वाँच, तू सूरज परभात का, ये सूरज हैं साँझ। सूर्य ढले, दीपक बुझे, जीवन के संग मृत्यु, पीत होत पत्ता गिरे, जग परिवर्तन मृत्यु। जगत परीक्षा भवन है, मिले हैं घन्टे तीन, बाल, युवा, अरु वृद्ध वय, कर्म पुस्तिका लीन। ईश परीक्षक जगत का उत्तर कर्म सुवास, पाप-पुण्य पे अंक दे, फेल होय या पास। फेल हुये गति नीच है, सुर नर गति हो पास, . कर पुरुषारथ विमल मन, मुक्ति मिलन की आस। में यह आगममूढ़ता बनी रहेगी तब तक हम जैन धर्म का उज्ज्वल रूप नहीं पा सकेंगे। इन मिथ्या देवों का ऐसा कुछ जाल छाया हुआ है कि पंडित लोग भी इनके दुर्मोह से ग्रसित हैं। शुद्धाम्नायी पं. शिवजीराम जी राँची वालों का लिखा एक प्रतिष्ठा ग्रन्थ प्रकाशित हुआ है, जिसमें इन सभी वास्तुदेवों की उपासना का वर्णन किया है। बलिहारी है उनके शुद्धाम्नाय की। वास्तुदेवों के जो नाम जैन ग्रन्थों में लिखे मिलते हैं उनकी अन्यमत के नामों से कहीं-कहीं भिन्नता भी है। जैसे अन्य मत के नाम अर्यमा, सवितृ, सावित्र, शेष, दिति, विदारि हैं। इनके स्थान में जैनमत के नाम क्रम से ये हैं- आर्य, सविंद्र, साविंद्र, शोष, उदिति और विचारि। इन नामों में थोड़ा-सा ही अक्षर भेद है। यह भेद लिखने-पढ़ने की गलती से भी हो सकता है। कुछ नामभेद शायद इस कारण से भी किये हों कि उनमें स्पष्टतः अजैनत्व झलकता है। जैसे अर्यमा का आर्य, शेष का शोष, दिति का उदिति बनाया गया है, क्योंकि अन्यमत में अर्यमा का अर्थ पितरों का राजा, शेष का अर्थ शेष-नाग, दिति का अर्थ दैत्यों की माता होता है। सविंद्र और साविंद्र शब्दों का कुछ अर्थ समझ नहीं पड़ता है, जरूर ये शुद्ध शब्द सवितृ और सावित्र के बिगड़े रूप हैं। इसी तरह शुद्ध शब्द विदारि का गलती से विचार लिखा पढ़ा गया है। वास्तुदेवों के नामों में रुद्र, जयंत (यह नाम इन्द्र के पुत्र का है) और अदिति (यह देवों की माता का नाम है) ये नाम दोनों ही मतों के नामों में है। परन्तु मूल में ये नाम साफ तौर पर ब्राह्मण मत के मालूम होते हैं। जैन मान्यता के अनुसार इन्द्र का पुत्र और देवों की माता का कथन बनता नहीं है। जैनमत में देवों के माता पिता होते ही नहीं है, न रुद्र ही कोई उपास्य देव माना गया है। भगवान् महावीर ने ब्राह्मणमत की फैली हुई जिन मिथ्या रूढ़ियों का जबरदस्त भंडाफोड़ किया था, खेद है उनके शासन में ही आगे चलकर वे रूढ़ियाँ प्रवेश कर गई धर्म में धन्धा घुस गया, धन्धे से गया धर्म, यही पतन का पन्थ है, समझ कर्म का मर्म। दान-पुण्य चुपचाप कर मती मचावे शोर, पुण्य छिपाये से बढ़े घट जाता सुन शोर। धर्म और धन औषधि, जीवन व्याधि है मूल, धर्म पिलाने की दवा, धन मलहम सा शूल। पर उल्टा करता मनुज, धन को समझा सूप, धर्म दिखाते ऊपरी, होय व्याधि विद्रूप। हाय! विचारा चल बसा, बोला अर्थी देख, कल तेरी भी गति यही, आज अभी सत वेख। पौ जन्मा, प्रातः शिशु, युवा दुपहरी होय, साँझ बुढ़ापा, मृत्यु निश, जीवन दिन सा होय। शक्ति सम्पत्ति, बुद्धि का, करना उचित प्रयोग, कौरव, रावण पतन प्रिय, कृष्ण-राम सत योग। हर दिन होता जन्म है, हर निश होती मौत, 'विमल' शुभाशुभ कर्म का प्रतिदिन होता ब्यौत। सम्पादक - जैन महिलादर्श रीडर व अध्यक्ष, ललित कला विभाग म.गा.बा.वि.पी.जी. कालेज, फिरोजाबाद जैन निबन्ध रत्नावली (द्वितीय भाग) से साभार -अक्टूबर 2001 जिनभाषित 15 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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