Book Title: Jinabhashita 2001 10 Author(s): Ratanchand Jain Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra View full book textPage 8
________________ दिगम्बरत्व का महत्त्व डॉ. ज्योतिप्रसाद जैन मोक्ष प्राप्ति के लिए साधक की चरम अवस्था में दिगम्बरत्व | श्वेताम्बर साधु जिनमूर्तियों में भी लंगोट का चिह्न बनवाने लगे एवं अनिवार्य है, किन्तु वह अन्तरंग एवं बाह्य, दोनों ही प्रकार का युगपत् | मुकुट, हार, कुंडल, चोली-आंगी, कृत्रिम नेत्र आदि का प्रचलन तो होना चाहिए, तभी उसकी सार्थकता है। यह मार्ग दुस्साध्य है। तथापि | इधर लगभग दो-अढ़ाई सौ वर्षों के भीतर ही हुआ हैं। इसमें संदेह नहीं है कि दिगम्बर मुनि अपनी अत्यंत कठोरचर्या, व्रत, जैन-परम्परा में ही नहीं, अन्य धार्मिक परम्पराओं में भी श्रेष्ठतम नियम, संयम तथा शीत-उष्ण-दंश-मशक-नाग्न्य-लज्जा आदि बाईस साधकों के लिये दिगम्बरत्व की प्रतिष्ठा की गयी प्राप्त होती है। परीषहों को जीतने एवं नाना प्रकार के उपसर्गों को सहन करने में सक्षम प्रागैतिहासिक एवं प्राग्वैदिक सिन्धु-घाटी सभ्यता के मोहन जोदड़ो होता है। उसका जीवन एक खुली पुस्तक होता है। ज्ञान की उसमें से प्राप्त अवशेषों में कायोत्सर्ग दिगम्बर योगिमूर्ति का धड़ मिला कमी या अल्पाधिक्य हो सकता है। संस्कारों या परिस्थितिजन्य दोष | है। स्वयं ऋग्वेद में वातरशना (दिगम्बर) मुनियों का उल्लेख हुआ भी लक्ष्य किये जा सकते हैं, अथवा दिगम्बर मुनि के आदर्श की है। कृष्णयजुर्वेदीय तैत्तिरीय आरण्यक में उक्त वातरशना मुनियों को कसौटी पर भी वह भले ही पूरा-पक्का न उतर पाये, तथापि अन्य। | श्रमणधर्मा एवं ऊध्वरतस (ब्रह्मचर्य से युक्त) बताया है। परम्पराओं के साधुओं की अपेक्षा अपने नियम-संयम, तप एवं | श्रीमद्भागवत में भी वातरशना मुनियों के उल्लेख हैं तथा वहाँ अन्य कष्टसहिष्णुता में वह श्रेष्ठतर ही ठहरता है। फिर जो मुनि आदर्श को | अनेक ब्राह्मणीय पुराणों में नाभेय ऋषभ को, विष्णु का एक प्रारंभिक अपने जीवन में चरितार्थ करते हैं, उन मुनिराजों की बात ही क्या अवतार सूचित करते हुए उन्हें ही दिगम्बर चित्रित किया गया है। ऐसे हैं, वे सच्चे साधु या सच्चे गुरु ही आचार्य-उपाध्याय-साधु के रूप उल्लेखों पर से स्व. डॉ. मंगलदेव शास्त्री का अभिमत है कि में पंच-परमेष्ठी में परिगणित हैं, वे मोक्षमार्ग के पूजनीय एवं 'वातरशना-श्रमण' एक प्राग्वैदिक मुनि परम्परा थी और वैदिक धारा अनुकरणीय मार्गदर्शक होते हैं। वे तरणतारण होते हैं। उन्हीं के लिये पर उसका प्रभाव स्पष्ट है। कहा गया है - कई उपनिषदों, पुराणों, स्मृतियों, रामायण, महाभारत आदि धन्यास्ते मानवा मन्ये ये लोके विषयाकुले। अनेक ब्राह्मणीय धर्मग्रन्थों, वृहत्संहिता, भर्तृहरिशतक तथा क्लासिविचरन्ति गतग्रन्थाश्चतुरङ्गे निराकुलाः।। कल संस्कृत साहित्य में भी दिगम्बर मुनियों के उल्लेख एवं इस दिगम्बर मार्ग के प्रवर्तक प्रथम तीर्थकर आदिदेव ऋषभ दिगम्बरत्व की प्रतिष्ठा प्राप्त होती है। ब्राह्मण परम्परा में 6 प्रकार थे। जिनदीक्षा लेने के उपरान्त उन्होंने दिगम्बर मुनि के रूप में के संन्यासियों का विधान है जिनमें तुरायातीत श्रेणी के संन्यासी तपश्चरण करके केवलज्ञान एवं तीर्थंकर पद प्राप्त किया था। उनके दिगम्बर ही रहते थे। जड़-भरत, शुकदेव मुनि आदि कई दृष्टान्त भी भरत, बाहुबली आदि अनेक सुपुत्रों और अनगिनत अनुयायियों ने उपलब्ध हैं। परमहंस श्रेणी के साधु भी प्रायः दिगम्बर रहते हैं। इसी दिगम्बर मार्ग का अवलम्बन लेकर आत्मकल्याण किया है। मध्यकालीन साधु-अखाड़ों में भी एक अखाड़ा दिगम्बरी नाम से भगवान् ऋषभ के समय से लेकर अद्य पर्यन्त यह दिगम्बर मुनि | प्रसिद्ध है। पिछली शती के वाराणसी निवासी महात्मा तैलंग स्वामी परम्परा अविच्छिन्न चली आयी है। बीच-बीच में मार्ग में काल-दोष नामक सिद्ध योगी, जो रामकृष्ण परमहंस तथा स्वामी दयानन्द से विकार भी उत्पन्न हुए, चारित्रिक शैथिल्य भी आया, किन्तु सरस्वती जैसे प्रबुद्ध संतों एवं सुधारकों द्वारा भी पूजित हुए, सर्वथा संशोधन-परिमार्जन भी होते रहे हैं। दिगम्बर रहते थे। बौद्ध भिक्षुओं के लिए नग्नता का विधान नहीं हैं, जैन परम्परा का स्वयं वह श्वेताम्बर सम्प्रदाय भी, जो जैन किन्तु स्वयं गौतमबुद्ध ने अपने साधनाकाल में कुछ समय तक साधुओं के लिये दिगम्बरत्व को अपरिहार्य नहीं मानता और साधुओं दिगम्बर मुनि के रूप में तपस्या की थी। यहूदी, ईसाई और इस्लाम को सीमित-संख्यक, बिनसिले श्वेत वस्त्र धारण करने की अनुमति धर्मों में भी सहज नग्नत्व को निर्दोषता का सूचक एवं श्लाघनीय देता है, इस तथ्य को मान्य करता है कि प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव । माना गया है। जलालुद्दीन रूमी, अलमन्सूर, सरमद जैसे सूफी संतों तथा अन्तिम तीर्थंकर वर्द्धमान महावीर अपने जीवन में अचेलक ने दिगम्बरत्व की सराहना की है। सरमद तो सदा नंगे रहते थे। उनकी अथवा दिगम्बर ही रहे थे, अन्य अनेक पुरातन जैन मुनि दिगम्बर दृष्टि में तो - रहे, तथा यह कि जिनमार्ग में जिनकल्पी साधुओं का श्रेष्ठ एवं 'तने उरियानी (दिगम्बरत्व) से बेहतर नहीं कोई लिबास, श्लाघनीय रूप अचेलक है। कला के क्षेत्र में भी 8वीं 9वीं शती ई. यह वह लिबास है जिसका न उल्टा है न सीधा।' से पूर्व की प्रायः सभी उपलब्ध तीर्थंकर या जिनप्रतिमाएँ दिगम्बर सरमद का कौल था कि - ही हैं और वे उभयसम्प्रदायों के अनुयायियों द्वारा समान रूप से 'पोशानीद लबास हरकारा ऐबदीद, पूजनीय रहीं, आज भी हैं। कालान्तर में साम्प्रदायिक भेद के लिए बे ऐबारा लबास अयानीदाद' 6 अक्टूबर 2001 जिनभाषित - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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