Book Title: Jinabhashita 2001 06
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 8
________________ 'जिनभाषित' का मई 2001 का अंक अन्तःकरण जाग्रत हुआ। 'ऋद्धि और सिद्धि' | अनुपमेय, सातिशय कलाकृति ने पत्रिका में मिला। इस सौजन्य हेतु धन्यवाद। यदि इस | से धर्म के प्रति सम्यक श्रद्धा में दृढ़ता आई। चार चाँद लगा दिये हैं। छपाई, सफाई, अंक को आधार माने तो संयोजना बहुत अन्य लेख भी ज्ञानवर्धक तथा संस्कृति एवं | गेटअप आदि तो अतिसुन्दर हैं ही, पर सबसे सुन्दर एवं सौम्य है। साज-सज्जा नयनाभि नैतिकता के संरक्षण हेतु प्रेरणा स्रोत हैं। आप | महत्त्वपूर्ण हैं अच्छे-अच्छे मनीषियों की राम है। कटिंग में प्रेस की थोड़ी असावधानी अपनी पत्रिका के माध्यम से जैन समाज और कृतियाँ। बुद्धिजीवी वर्ग की जो सेवा कर रहे हैं, वह | रह गई है, वह आपके दृष्टिपथ में होगी। अगले सम्पादकीय पढ़कर तो अति प्रसन्नता स्तुत्य है। आपको व समस्त लेखकों को । हुई। श्रुत पंचमी के माध्यम से श्रुतावतार के अक में सुधर जावेगी। वर्ष तथा अक संख्या साधुवाद। इतिहास के साथ द्रव्यश्रुत-भावश्रुत की भी डालनी चाहिए। आचार्यश्री का मोरा जी डॉ. विमला जैन,1344, सुहाग नगर, प्रकृष्टता का दिग्दर्शन करते हुए जिनवाणी के भवन में हुई प्रथम वाचना के परिसमापन पर फीरोजाबाद-283203 उ.प्र. साथ मनमानी करने वालों के मुखौटों का प्रदत्त प्रवचन आज भी स्मृतियों में मन को उद्घाटन कर स्याद्वाद-अनेकान्त का अच्छा गुदागुदा जाता है। आचार्यश्री आचार्यश्री ही हैं। 'जिनभाषित' के अप्रैल एवं मई विवेचन किया है। मैं उन सभी विज्ञजनों की, गुलाबचन्द्र आदित्य, 2001 के अंक प्राप्त हुए। हार्दिक धन्यवाद। जो सम्पादक मंडल में हैं, भूरि-भूरि प्रशंसा आदित्य भवन, जैन मंदिर रोड, पत्रिका तो अपने-आप में अद्भुत है। पत्रिका करते हुए पत्रिका के उत्तरोत्तर उत्तुंग शिखर शाहजहांनाबाद, बजरिया, | के लेख असाधारण है। यहा इसका विशषता | की ओर बढ़ने की मंगल कामना करता हूँ। भोपाल-462001 | है। मई 2001 के अंक में श्रुतपञ्चमी से पं. पूर्णचन्द्र' 'सुमन' शास्त्री, सम्बन्धित लेख पढ़कर अत्यंत खुशी हुई। Received the copy of काव्यतीर्थ, सुमन कुटीर, लेखों का चयन एवं प्रस्तुतीकरण बहुत ही जैन मंदिर मार्ग, "JINABHASHITA" May 2001. अच्छा है। पत्रिका के उज्ज्वल भविष्य की दुर्ग-491001 (छ.ग.) The articles are selective, attrac कामना करती हूँ। tive and deal with important top कु. बबीता जैन (शोध छात्रा), 'जिनभाषित' का मई 2001 का श्रुत ics. The presentation is neat and पुत्री- डा. आर.एस. जैन, मामा का बाजार, पञ्चमी अंक पढ़ा तो प्रथमतः यह विचार मन impressive. It will certainly serve जैन मंदिर के पास, हैदरगंज लश्कर, में आया कि इतना उत्कृष्ट साहित्य जो the needs of the Jaina society. ग्वालियर-949001 अध्यात्म से परिपूर्ण है, पत्रिका में देकर आपने समाज का बड़ा उपकार किया है। 'जैन Dr. S.P. Patil, Vaishali, 5 Ghevare 'जिनभाषित' पत्रिका प्राप्त हुई। सामग्री आचार में इन्द्रिय दमन का मनोविज्ञान' plots Samarth Chowk, South पठनीय है। आचार्य श्री विद्यासागर जी के मनोविश्लेषक फ्रायड की खोखली अवधारणा Shivaji nagar, प्रवचनों के समावेश से पत्रिका का गौरव बढ़ Sangli-416416 का सुन्दर, सारगर्भित एवं सटीक जवाब है। गया है। बालवार्ता और हास्य व्यंग्य रोचक आचार्यश्री के युगान्तरकारी महाकाव्य 'मूक तथा शिक्षाप्रद हैं। बधाई और मंगल कामना __ जिनभाषित का मई 2001 अंक माटी' के प्रशासन और न्याय के संदर्भ में स्वीकारें। भेजने की कृपा की, धन्यवाद। अंक में दी हुई उद्घाटित सूत्रों को टिप्पणी के साथ सहज ताराचन्द जैन अग्रवाल सामग्री पठनीय ही नहीं, प्रशंसनीय भी है। पचेवर (टोंक)-304509 राजस्थान ग्राह्य बना दिया गया है। 'सफेद शेर की पत्रिका का आकार, रूपसज्जा, संयोजन नस्ल' व्यंग्यकथा हृदय को गुदगुदाने के साथ कलात्मक तथा आकर्षक है। विशेष समाचार आपके सम्पादकत्व में प्रकाशित मन को झकझोरती भी है। श्री अशोक शर्मा में 'गोरक्षा का स्तुत्य प्रयास' पढ़कर प्रेरणा 'जिनभाषित' पत्रिका का मई माह का अंक द्वारा रचित गीत के सभी पद हदय को छू मिली। वास्तव में व्यावहारिक कार्य ही प्राप्त हुआ। इस अंक का महान आकर्षण श्री लेने वाले हैं। आपको कोटिशः बधाई। जैनधर्म की अहिंसा के प्रचार का सही प्रयास गोम्मट स्वामी के अद्वितीय मनोहारी जिन अरविन्द फुसकेले, राजस्व निरीक्षक, है। सम्पादकीय में श्रुतपंचमी पर सारगर्भित | बिम्ब का छाया प्रतिबिम्ब है जो अनायास ही ई.डब्ल्यू.एस. 541, कोटरा, भोपाल-462003 विचार मिले। 'ज्ञान की अनुभूति' से | मुग्ध कर देता है। उस महान् कलाकार की लोकदृष्टि आचार्य श्री विद्यासागर जी एक उत्कृष्ट संत तो हैं ही, एक कुशल कवि, वक्ता और विचारक भी हैं। काव्यरुचि और साहित्यानुराग उन्हें विरासत में मिला है। उनके दीक्षागुरु स्वयं आचार्य ज्ञानसागर जी मेधावी कवि थे, जिन्होंने संस्कृत साहित्य को अनेक महाकाव्यों के द्वारा समृद्ध किया। आचार्यश्री के कंठ में भी अपने गुरु के समान ही सरस्वती का निवास है। इसे गुरु का वरदान कहें या पूर्व पुण्योदय कि जिससे उनके बोलने, गुनगुनाने तथा यहाँ तक कि चलने उठने-बैठने में भी एक लय अनस्यूत है। प्राचार्य नरेन्द्रप्रकाश जैन, फीरोजाबाद (उ.प्र.) 6 जून 2001 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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